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• प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
•३१७
प्रार्थना की वाणी प्रस्फुटित होती है और जब विधिपूर्वक मन-मथानी से मन्थन किया जाता है, तब परमात्मभाव रूप नवनीत प्राप्त होता है।
जैसे दही नबनीत सजातीय है; उनके मूल में अन्तर नहीं है, उसी प्रकार आत्मा और परमात्मा मूलतः एक ही है। जैन दर्शन प्रात्मा की अलग और परमात्मा की अलग जाति स्वीकार नहीं करता। फिर भी दोनों के परिणमन पृथक-पृथक हैं । इस पार्थक्य को दूर करना ही साधना और प्रार्थना का प्रयोजन है । जिसे विधिपूर्वक मनोमन्थन करने से मक्खन मिल गया है, वह परमात्मा है और जो उस मक्खन को प्राप्त नहीं कर पाया है, वह आत्मा है । जिस आत्मा में ज्ञान-आनन्द रूप नवनीत को प्राप्त करने की प्रबल भावना जाग उठी है, वह साधना के क्षेत्र में अवतीर्ण होता है । वह परमात्मा के चरणों का शरसा ग्रहण करके उसके स्वरूप का और फिर स्वरूप के माध्यम से निजस्वरूप का चिन्तन करता है, स्मरण करता है, उसमें तल्लीन होकर रमण करता है और इस प्रकार अपने विशुद्ध चैतन्यस्वरूप को विकसित और प्राप्त कर लेता है।
साधक इस उद्देश्य को समक्ष रख कर जब साधना के क्षेत्र में पाँव रखता है, तो उसके मन में से संकोच हट जाता है। वह यह नहीं सोचता कि मैं पूर्ण विशुद्ध स्वरूप के साथ रगड़ खाने का कैसे अधिकारी हो सकता हूँ; वह बिलकुल निष्कलंक और मैं कलंक-कालिमा से पुता हुआ ! मुझ में काम, क्रोध, मन, मोह, मान, माया आदि दोष हैं, विविध प्रकार की अज्ञानमय वृत्तियाँ वर्तमान हैं। मैं उस शिवस्वरूप सिद्धस्वरूप के साथ कैसे रगड़ खाऊँ ! मेरी-उसकी क्या समता है ?
पर नहीं, साधक और प्रार्थी अब अपने को परमात्मा के चरणों में रगड़ने के लिए प्रस्तुत करता है, तो कहता है-प्रभो ! मेरी वर्तमान योग्यता को नहीं देखना है, बल्कि मेरी शक्ति को देखना है। आपको जिस शक्ति की अभिव्यक्ति हो चुकी है, सत्ता रूप में बही मुझ में है । मगर वह सोई हुई शक्ति आप के साथ टक्कर किये बिना जागती नहीं है । इसी विश्वास और इसी आशा से मैं आपके चरणों में प्रस्तुत हुआ हूँ।
लोहे का टुकड़ा स्वर्ण बनने के लिए और मूल्यवान् बनने के लिए जैसे पारस के पास पहुँचता है और हीरे का कण अपनी चमक बढ़ाने के लिए कसौटी के निकट पहुँचता है, उसी तरह मैं भी, हे प्रभो ! तेरे पास आया हूँ । अतएव
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