Book Title: Jinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 334
________________ [ ६ ] प्रार्थना : परदा दूर करो प्रार्थना करने का मुख्य हेतु आत्मा में विद्यमान परन्तु प्रसुप्त व्यक्तियों को जागृत करना है । कल्पना कीजिए, यदि माचिस की तूली से प्रश्न किया जाय कि तू आगपेटी से क्यों रगड़ खाती है, तो क्या उत्तर मिलेगा ? उत्तर होगा - जलने के लिए, अपने तेज को प्रकट करने के लिए । मनुष्य की चित्तवृत्ति चेतना तूली के समान है और मनुष्य तूली रगड़ने वाले के समान । यहां भी यही प्रश्न उपस्थित होता है कि आखिर चित्तवृत्ति को परमात्मा के साथ क्यों रगड़ा जाता है ? परमात्मा के चरणों के साथ उसे किस लिए घिसा जाता है ? तब साधक का भी यही उत्तर होगा - जलने के लिए अपने तेज को प्रकट करने के लिए । संसारी जीव ने अपनी तूली (चित्तवृत्ति) को कभी धन से, कभी तन से और कभी अन्य सांसारिक साधनों से रगड़ते-रगड़ते अल्पसत्व बना लिया है । अब उसे होश आया है और वह चाहता है कि तूली की शेष शक्ति भी कहीं इसी प्रकार बेकार न चली जाय । अगर वह शेष शक्ति का सावधानी के साथ सदुपयोग करे, तो उसे पश्चात्ताप करके बैठे रहने का कोई कारण नहीं है उसी बची-खुची शक्ति से वह तेज को प्रस्फुटित कर सकता है, क्रमशः उसे बढ़ा सकता है और पूर्ण तेजोमय भी बन सकता है। वह पिछली तमाम हानि को भी पूरी कर सकता है । चित्तवृत्ति की तूली को परमात्मा के साथ रगड़ने का विधिपूर्वक किया जाने वाला प्रयास ही प्रार्थना है । इसके विपरीत जो अब भी होश में नहीं आया है और अब भी अपनी मनोवृत्ति को परमात्मा में न लगा कर धन-जन आदि सांसारिक साधनों में ही लगा रहा है । वह उस मूर्ख के समान है, जिसने पत्थर पर रगड़-रगड़ कर अधिकाश तूलियों को बेकार कर दिया है और बची-खुची तुलियों को भी उसी प्रकार नष्ट करना चाहता है, वह हाथ मलता रह जायेगा । आत्मा के लिए परमात्मा सजातीय और जड़ पदार्थ विजातीय हैं । सजातीय द्रव्य के साथ रगड़ होने पर ज्योति प्रकट होती है और विजातीय के साथ रगड़ होने से ज्योति घटती है । विश्व के मूल में जड़ और चेतन दो ही Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378