Book Title: Jinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 329
________________ • ३१० • व्यक्तित्व एवं कृतित्व का अपाय है। सम्पदा आपद् का स्थान है, संयोग वियोग वाला है। जो उत्पन्न होता है, वह सब क्षणभंगुर नाशवान् है। (३) तीसरी भावना है-अशरणानुप्रेक्षा अर्थात् अशरण की भावना । यथा। जन्मजरामरणभयै-रभिद्रुते व्याधि वेदना ग्रस्ते । जिनवरवचनादन्यत्र; नास्ति शरणं क्वचिल्लोके ।। अर्थात्-जन्म, जरा, मरण के भय से अति वीभत्स, व्याधि और वेदना से संयुक्त एवं संत्रस्त इस असार संसार में जिनवाणी के अतिरिक्त और कोई अन्य इस आत्मा को शरण देनेवाला एवं इसकी रक्षा करने वाला नहीं है। (४) चौथी संसारानुप्रेक्षा अर्थात् संसारभावना में निम्नलिखित रूप से संसार के सम्बन्ध में चिन्तन किया जाता है : माता भूत्वा दुहिता, भगिनी भार्या च भवति संसारे । व्रजति सुतः तितृत्वं, भ्रातृतां पुनः शत्रुतां चैव ।। संसारानुप्रेक्षा में इस प्रकार की भावना से चिन्तन किया जाता है कि जीव एक जीव की माता बन कर फिर उसी जीव की पुत्री के रूप में जन्म ग्रहण करता है। फिर कालान्तर में वह उस जीव की बहन के रूप में और पुनः भार्या के रूप में जन्म ग्रहण करता है। इस संसार में पुत्र कभी जन्मान्तर में पिता के रूप में, तदनन्तर भाई के रूप में और कभी किसी जन्मान्तर में शत्रु के रूप में उत्पन्न होता है। इस प्रकार संसार का कोई नाता अथवा सम्बन्ध स्थिर एवं शाश्वत नहीं है। संसार के सभी सम्बन्ध बदलने वाले हैं, अतः किसी के साथ मोह अथवा ममता के बन्धन में बन्ध जाना सिवा मूर्खता के और कुछ नहीं है। इस प्रकार की इन एकाकी, अनित्य अादि भाबनाओं से तन, धन, वैभव आदि को नाशवान और अशरण भावना द्वारा इनकी अवश्यंभावी विनाश से बचाने में असमर्थ समझने पर, भला बालू की दीवार पर गृह निर्माण की तरह उनकी कोई भी ज्ञानी क्यों चाह करेगा ? इस तरह संसार के पदार्थों से मोह कम होने पर मन की दौड़ भी स्वतः ही कम और शनैः शनैः समाप्त हो जायगी। मन की चंचलता कम करने का यह पहला उपाय है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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