Book Title: Jinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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• २६८
• व्यक्तित्व एवं कृतित्व
३. स्वाध्याय :
सद्गुरु का संयोग सर्वदा नहीं मिलता और मिलने पर भी उनकी शिक्षा का लाभ बिना स्वाध्याय के नहीं मिलता। अतः गुरु-सेवा के पश्चात स्वाध्याय कहा गया है । श्रावक गुरु की वाणी सुनकर चिंतन, मनन और प्रश्नोत्तर द्वारा ज्ञान को हृदयंगम करता है । शास्त्र में वरिणत श्रावक के लिए 'निग्रन्थ प्रवचन' का 'कोविद' विशेषण दिया गया है। स्वाध्याय के द्वारा ही शास्त्र का कोविदपंडित हो सकता है । अतः प्रत्येक श्रावक-श्राविका को वाचना, पृच्छा, पर्यटना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा द्वारा धर्मशास्त्र का स्वाध्याय करना चाहिये। सद्गुरु की अनुपस्थिति में उनके प्रवचनों का स्वाध्याय गुरु सेवा का आनन्द प्रदान करता है। कहा भी है- “स्वाध्याय बिना घर सूना है, मन सूना है सद्ज्ञान बिना।"
४. संयम :
जितेन्द्रिय, संयमशील पुरुष का ही स्वाध्याय शोभास्पद होता है। अतः स्वाध्याय के बाद चतुर्थ कर्म संयम बतलाया है। श्रावक को प्रतिदिन कुछ काल के लिए संयम का अभ्यास करना चाहिए। अभ्यास-बल से चिरकाल संचित भी काम, क्रोध और लोभ का प्रभाव कम होता है और उपशम भाव की वृद्धि होती है। अतः श्रावक को पाप से बचने के लिए प्रतिदिन संयम का साधन करना चाहिए। ५. तप :
गृहस्थ को संयम की तरह प्रतिदिन कुछ न कुछ तप भी अवश्य करना चाहिए । तप-साधन से मनुष्य में सहिष्णुता उत्पन्न होती है। अतः आत्म-शुद्धि के लिए अनशन, उणोदरी, रसपरित्याग आदि में से कोई भी तप करना आवश्यक है । तप से इन्द्रियों के विषय क्षीण होते हैं और परदुःख में समवेदना जागृत होती है। रात्रि-भोजन और व्यसन का त्याग भी तप का अंग है। आवश्यकताओं से दबा हुअा गृहस्थ तप द्वारा शान्ति-लाभ प्राप्त करता है। ६. दान :
___ श्रावक-जीवन के मुख्य गुण दान और शील हैं । श्रावक तप की तरह अपने न्यायोपार्जित वित्त का प्रतिदिन दान करना भी आवश्यक मानता है, जैसे शरीर विभिन्न प्रकार के पकवान ग्रहण कर फिर मल रूप से कुछ विसर्जन भी करता है । स्वस्थ शरीर की तरह श्रावक भी प्रतिदिन प्राप्त द्रव्य का देश, काल एवं पात्रानुसार उचित वितरण कर दान धर्म की आराधना करता है। पूर्णिया श्रावक के लिए कहा जाता है कि उसने धर्मी भाई को प्रीतिदान करने के लिए
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