Book Title: Jinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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• ३०२
• व्यक्तित्व एवं कृतित्व
१०. देशावकाशिकव्रत : जीवन में प्रारम्भ-परिग्रह का संकोच करने और पूर्वगृहीत व्रतों को परिपुष्ट करने के लिए दैनिक व्रत ग्रहण को देशावकाशिक कहते हैं। इसमें गृहस्थ हिंसादि आश्रवों का द्रव्य क्षेत्र काल की मर्यादा से प्रतिदिन संकोच करता है। प्रतिदिन अभ्यास करने से जीवन संयत और नियमित बनता है और वृत्तियाँ स्वाधीन बनती हैं।
११. पौषधोपवास व्रत : दैनिक अभ्यास को अधिक बलवान बनाने के लिए गृहस्थ पर्वतिथि में पौषधोपवास की साधना करता है। इसमें आहार त्याग के साथ शरीर-सत्कार और हिंसादि पाप कार्यों का भी अहोरात्र के लिए दो करण तीन योग से त्याग होता है। पौषध, व्रती हिंसादि पाप कर्मों को मन, वाणी और कार्य से स्वयं करता नहीं और करवाता नहीं। इस दिन ज्ञान-ध्यान से आत्मा को पुष्ट करना मुख्य लक्ष्य होता है। प्राचीनकाल के श्रावक अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा को प्रतिपूर्ण पौषध का सम्यक् पालन करते थे। जैसा कि भगवती सूत्र के प्रकरण में कहा है-चाउदसट्ठ मुदिट्ठ पुण्णमासिणीसु पडिपुष्ण पोसहं सम्म अणुपालेमाणा विहरन्ति । श्रावक चतुर्दशी, अष्टमी अमावस्या और पूर्णिमा में प्रतिपूर्ण पौषध का सम्यक् पालन करने विचरते हैं। दिन-रात आरम्भ परिग्रह में फंसा रहने वाला गृहस्थ जब पूरे दिन रात हिंसा, झूठ, परिग्रह से बचकर चल लेता है, तो उसे विश्वास हो जाता है कि हिंसा, झूठ, कुशील और क्रोध आदि को छोड़कर जीवन शांति से चलाया जा सकता है। पौषधोपवास श्रमण-जीवन की साधना का पूर्व रूप है। श्रावक को अनुकूलतानुसार हर माह में पौषध व्रत की साधना अवश्य करनी चाहिए।
१२. अतिथिसंविभाग व्रत : इस व्रत के द्वारा श्रावक भोजन के समय श्रमण-निग्रंथों का संविभाग करता है। शास्त्र में उसके लिए 'ऊसियफलिहा अवंगुय दुबारे' कहा है, अर्थात् उसके द्वार की आगल उठी रहती है। श्रावक के गृहद्वार खुले रहते हैं। साधु साध्वी का संयोग मिलने पर निर्दोष आहार-पानी, वस्त्र, पात्र और औषध आदि से उनको प्रतिलाभ देना श्रावक अपना आवश्यक कर्तव्य समझता है। वह मन, वचन, काय की शुद्धि से विधि पूर्वक विशुद्ध आहारादि प्रतिलाभित कर अपने आपको कृतकृत्य मानता है।
साधु के अभाव में देश विरति श्रावक और सम्यकदृष्टि भी सत्पात्र माना गया है। दान गृहस्थ का दैनिक कर्म है। वह यथायोग्य गहागत हर एक का सत्कार करता है। भगवती सूत्र में 'विच्छड्डिय पउर भत्तपाणे' विशेषण से गृहस्थ के यहाँ दीन-हीन, भूखे प्यासे पशु-पक्षी और मानव को प्रचुर भात-पानी डाला जाना कहा गया है। वह अनुकम्पा दान को पुण्यजनक मानता है।
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