Book Title: Jinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
७. उपभोग - परिभोग परिमाण व्रत मनुष्य हिंसा, असत्य आदि पाप आवश्यकता और भोग्य सामग्री के लिए ही करता है । जब तक शारीरिक आवश्यकता पर अंकुश नहीं किया जाता, अहिंसा एवं अपरिग्रह का पालन संभव नहीं । अतः इस व्रत में खान-पान - स्नान यानादि सामग्रियों को सीमित करना आवश्यक बतलाया है। श्रावक आनन्द ने दातुन से लेकर द्रव्य तक २६ बोलों की मर्यादा की और महारम्भ के १५ खरकर्म-हिंसक धंधों का भी त्याग किया था । आवश्यकता वृद्धि के साथ मनुष्य का खर्च बढ़ेगा और उसकी पूर्ति के लिए उसे प्रारम्भ - परिग्रह भी बढ़ाना होगा । अतः कहा गया कि भोगोपभोग के पदार्थों की मर्यादा करो । मर्यादा करने से जीवन हल्का होगा और प्रारम्भ - परिग्रह भी सीमित रहेगा ।
८. श्रनर्थदण्ड विरमण व्रत : हिंसादि पापों को घटाने के लिए जैसे आवश्यकताओं का परिमाण करना आवश्यक है, वैसे व्यर्थ - बिना खास प्रयोजन के होने वाले दोषों से बचना भी आवश्यक है । अज्ञानी मानव कितने ही पाप ना समझी से करता रहता है । शास्त्र में अनर्थ दण्ड के चार कारण बताये गये हैं । ( १ ) अपध्यान ( २ ) प्रमाद ( ३ ) हिंस्रप्रदान और ( ४ ) मिथ्या उपदेश । बिना प्रयोजन प्रार्त- रौद्र के बुरे विचार करना, द्रोह करना, भविष्य की व्यर्थ चिन्ता करना, नाच, सरकस एवं नशा से प्रमाद बढ़ाना, हिंसाकारी अस्त्र-शस्त्र अग्नि विष आदि अज्ञात व्यक्ति को देना, पापकारी उपदेश देना, मेंढ़े, तीतर आदि लड़ाके खुश होना, तेल, पानी आदि खुले रखना, बिना प्रयोजन हरी तोड़ना या दब आदि पर चलना अनर्थ दण्ड है । श्रमणोपासक को बिना प्रयोजन की हिंसादि प्रवृत्ति से बचना नितांत आवश्यक है |
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६. सामायिक व्रत : अनर्थ के कारणभूत राग, द्वेष एवं प्रमाद को घटाने के लिए समता की साधना श्रावश्यक है । सामायिक में सम्पूर्ण पापों को त्यागकर समभाव को प्राप्त करने की साधना की जाती है । सामायिक के समय श्रावक श्रमण की तरह निष्पाप जीवन वाला होता है । उस समय आरम्भ - परिग्रह का सम्पूर्ण त्याग हो जाता है । अतः गृहस्थ को बार-बार सामायिक का अभ्यास करना चाहिए, जैसा कि कहा है
सामाइयम्मि उकए समणी इव सावप्रो हवई जम्हा | एए कारण बहुसो सामाइयं कुज्जा [वि. प्रा. ]
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प्रतिदिन प्रातः काल गृहस्थ को द्रव्य क्षेत्र काल और भाव-शुद्धि के साथ सम्पूर्ण पापों का परित्याग कर स्थिर ग्रासन से मुहूर्त भर सामायिक का अभ्यास अवश्य करना चाहिए। इससे तन, मन और वाणी में स्थिरता प्राप्त होती है ।
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