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• प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
• २५३
तुम सम दूजा देव न भय हर, वीतराग निकलंक ज्ञान धर ।
ध्यान से होवे अमरा ॥तुमको।।३।। सकल चराचर सम्पत्ति अस्थिर, आत्म रमणता सदानन्द कर।
यही बोध है सुखकर ।।तुमको।।४।। देव तुम्हारी सेवा मन भर, करें बने वह अजर अमर नर ।
सदा लक्ष्य हो सब घर ।।तुमको।।५।।
(हो यह भावना सब घर) भूल न तू धन में ललचाकर, परिजन तन अरु धन भी नश्वर ।
पार्श्व चरण ही दिलधर ।।तुमको।।६।। दुनिया में मन नहीं लुभाकर, पार्श्व वचन का तो पालन कर ।
'गजमुनि' (हस्ती) विषय हटाकर ।।तुमको।।७।।
( ७ )
प्रभु-प्रार्थना (तर्ज-धन धर्मनाथ धर्मावतार सुन मेरी) श्री वर्धमान जिन, ऐसा हमको बल दो।
घट-घट में सबके, आत्म भाव प्रगटा दो ॥टेर।। प्रभु वैर-विरोध का भाव न रहने पावे , विमल प्रेम सबके घट में सरसावे । अज्ञान मोह को, घट से दूर भगा दो ॥घट।।१।। ज्ञान और सुविवेक बढ़े हर जन में, शासन सेवा नित रहे सभी के मन में । तन मन सेवा में त्यागें, पाठ पढ़ा दो ॥घट।।२।। हम शुद्ध हृदय से करें तुम्हारी भक्ति , संयुक्त प्रेम से बढ़े संघ की शक्ति । निःस्वार्थ बंधुता सविनय हमें सिखा दो ।।घट।।३।।
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