Book Title: Jinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 307
________________ • २८८ • व्यक्तित्व एवं कृतित्व ___ स्व. याने आत्म गुण अथवा स्व-सिद्धान्त का जिससे ज्ञान हो, वैसे सद्ग्रंथों का पठन-पाठन भी स्वाध्याय कहा जाता है। स्वाख्याय योग्य श्रुत: श्रुतज्ञान के १४ और २० भेद भी किये गये हैं। परन्तु पठन-पाठन की दृष्टि से दो ही भेद उपयुक्त होते हैं-सम्यक्श्रुत और मिथ्याश्रुत । अनुयोग द्वार सूत्र में लौकिक और लोकोत्तर भेद से भी कथन किया गया है। अल्पज्ञ-छद्मस्थों के द्वारा स्वेच्छा से जिन ग्रन्थों की रचना की गई है उनको मिथ्याश्रुत या लौकिक श्रुत कहते हैं । लौकिक श्रुत एकान्त हितकरी नहीं होते । सरागियों की वाणी वीतराग वाणी के आश्रित होने पर ही सम्यक्श्रुत होकर पठनीय हो सकती है। रागादि दोष से दूषित होने के कारण वह शास्त्र अचूक मुक्तिमार्ग नहीं बता सकता । मुमुक्षु जीवों के लिए वीतराग वाणी या उसके अनुकूल छद्मस्थ वाणी भव-बन्धन काटने में समर्थ होती है । सरागियों के वचन दोषयुक्त होने के कारण कभी-कभी पाठक या श्रोता के मन मोह उत्पन्न कर उनको भवसागर में भटका देते हैं । वीतराग भाषित सम्यक्श्रुत में ये दोष नहीं होते हैं, क्योंकि काम, क्रोध, लोभादि विकारों के सम्पूर्ण क्षय से वीतराग निर्दोष है । निर्दोष वाणी श्रोताओं में भी उपशम रस का संचार करती है और अनादि संचित दोषों का उपशम करती है। इसलिए कहा है श्लोको वरं परम तत्त्ब-पथ-प्रकाशी, न ग्रंथ कोटि-पठनं जन-रंजनाय । संजीवनीति वरमौषध मेकमेव, व्यर्थ-श्रमस्य 'जननो न तु' मूल भारः ।। परमतत्त्व को प्रकाशित करने वाला एक भी श्लोक करोड़ों ग्रन्थों से अच्छा है, व्यर्थ का भार देने वाले मूलों के ढेर से संजीवनी का एक भी टुकड़ा अच्छा है । मोक्ष साधन के दुर्लभ चतुरंगों में इस प्रकार की धर्मश्रुति को दुर्लभ कहा गया है । मनुष्य तन पाकर भी हजारों लोकधर्म की श्रुति अनायास नहीं पाते, जिसको सुनकर जीव तप-शांति और अहिंसा भाव को प्राप्त करें, ऐसे सद्ग्रन्थों का श्रवण अत्यन्त दुर्लभ है । जैसे कि कहा है जं सुच्चा पड़िवज्जति, तवं खंति महिंसयं ।। उ० ३ ।। सम्यक् श्रुत धर्मकथा प्रधान होता है, वहाँ अर्थकथा और कामकथा को महत्त्व नहीं मिलता-आत्म स्वरूप का ज्ञान होने से सम्यक् श्रुत के द्वारा जीव को स्वरूपामिमुख गति करने को प्रेरणा मिलती है । अतः स्वरूप और आत्मगुण का अध्ययन होने से ही सम्यक्श्रुत का पठन-पाठन स्वाध्याय कहा गया है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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