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[ ३ ] जैन आगमों में स्वाध्याय
सर्व विदित बात है कि स्वाध्याय के अभाव में बड़े से बड़ा साधन-सम्पन्न सम्प्रदाय भी सुरक्षित नहीं रह सकता । जैन शासन में स्वाध्याय का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है । स्वाध्याय ध्यान का महत्त्वपूर्ण अवलम्बन और श्रमण जीवन को अनुप्राणित करने वाला है। प्रत्येक श्रमण एवं श्रमणी की दिनचर्या में स्वाध्याय का प्रमुख स्थान है। चारों काल स्वाध्याय नहीं करने पर श्रमण को प्रतिक्रमण करना होता है । 'भगवती सूत्र' में गौतम स्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रभु ने स्बाध्याय के पाँच प्रकार बतलाये हैं।
१. वाचना, २. पृच्छना, २. पर्यटना, ४. अनुप्रेक्षा, ५. धर्मकथा । बिना पठन-पाठन के ज्ञान-वृद्धि नहीं होती, इसलिए सर्व प्रथम वाचना रखा गया है। दूसरे में पठित विषयों में शंकाओं का समाधान करने और ज्ञातव्य विषय को समझने हेतु पृच्छा होती है, यह स्वाध्याय का दूसरा भेद हैं। तीसरे में ज्ञात विषय को स्थिर करने हेतु परावर्तन-रूप स्वाध्याय होता है। परावर्तन उपयोग पूर्वक हो और स्वाध्यायी उसमें आनन्दानुभूति प्राप्त कर सके। एतदर्थ चौथे में अनुप्रेक्षा-चिंतन रूप स्वाध्याय बतलाया है । शास्त्रवाणी से प्राप्त ज्ञान के नवनीत को जनता में वितरण करने को धर्मकथा-रूप पाँचवाँ स्वाध्याय है । स्वाध्याय की व्याख्या में प्राचार्यों ने इस प्रकार विवेचन किया है
__ अध्ययन' को अध्याय कहा है, सुन्दर उत्तम अध्याय ही स्वाध्याय है। अच्छी तरह मर्यादा-पूर्वक पढ़ना भी स्वाध्याय है। अच्छी तरह मर्यादा के साथअकाल को छोड़कर अथवा पौरुषी की अपेक्षा काल-अकाल का ध्यान रखकर पढ़ना स्वाध्याय कहलाता है।
उपरोक्त वचन के अनुसार जिन प्ररूपित द्वादशांग-सूत्रवाणी को विद्वानों ने स्वाध्याय कहा है । इसी को 'सुयनारणं-सुज्झानो' पद से श्रुतज्ञान को स्वाध्याय से अभिन्न कहा है।
१. अध्ययन अध्यायः शोभनोऽध्यायः स्वाध्यायः ।प्रा०। अथवा सुष्ठु आ मर्यादया अधयिते इति स्वाध्यायः । स्थ. २।। सुष्ठु प्रा-मर्यादया-कालवेला परिहरिण पौरुष्य पक्षेयावा अध्यायः-अध्ययनं स्वाध्यायः ।घ.३ अधि.।
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