Book Title: Jinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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• प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
• २६१
धर्मकथा से कर्मों की निर्जरा होती और प्रभावशाली कथा से शासन की प्रभावना होती है । शासन की प्रभावना करने वाला भविष्य के लिए निरन्तर भद्ररूप शुभानुबन्धी कर्म का संचय करता है। श्रमण चर्या में स्वाध्याय :
जिस प्रकार प्रतिलेखन, प्रमार्जन, प्रतिक्रमण, वैयावृत्यकरण और ध्यान नियत कर्म है, ऐसे स्वाध्याय भी श्रमण वर्ग का नियत कर्म है। सदाचारी अध्याय में कहा गया है कि प्रातःकाल प्रतिलेखन करके साधुगुरु से विनयपूर्वक यह पृच्छा करे- 'भगवन्' मुझे अब क्या करना चाहिये, वैयावच्च या स्वाध्याय जो करना हो उसके लिए आज्ञा चाहता हूँ । २६९
गुरुसेवा में नियुक्त करें तो बिना ग्लानि के सेवा करें जौर स्वाध्याय की अनुमति प्रदान करें तो सर्वदुःख मोचन स्वाध्याय करे ।उ०।२६।६-१०॥
आगे कहते हैं—“पढ़मं पोरिसि सज्जायं, बीयंझाणं झियायइ।"
प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करना और दूसरे में ध्यान अर्थात् अर्थ का चिन्तन करना, तीसरे प्रहर भिक्षा और चौथे पहर में फिर स्वाध्याय करना । ऐसा रात्रि के प्रथम, द्वितीय एवं चतुर्थ पहर के लिए समझना । केवल नियत कर्म बता के ही नहीं छोड़ा, किन्तु स्वाध्याय के समय स्वाध्याय नहीं करने के लिए प्रतिक्रमण में आयोजन भी किया गया है । जैस
“पडिक्कमायि चाउक्कालं सज्झायस्स अकरण्याए।" आव०॥
चारों काल स्वाध्याय नहीं किया हो उसका प्रतिक्रमण करता हूँ। स्वाध्याय की विधि :
साधुओं का अपना निराबाध स्वाध्याय होता रहे, इसके लिए स्वतन्त्र रूप से स्वाध्याय भूमि की गवेषणा करते और वहाँ विधिपूर्वक स्वाध्याय किया करते थे। शास्त्र-पाठ मंगल और देवाधिष्ठित माना गया है। इसके लिए उसका अध्ययन करने के पूर्व यह देख लेना आवश्यक है कि आस-पास कहीं अस्थि या कलेवर आदि तो नहीं है । यदि अस्वाध्याय की कोई वस्तु हो, तो उसे मर्यादित भूमि से बाहर डालकर गुरु को निवेदन कर देना चाहिए और फिर गुरुजी की आज्ञा पाकर उपयोगपूर्वक अध्ययन करना-यह सामान्य विधि है।
प्राचीन समय में प्रथम पहर में सूत्र का स्वाध्याय और द्वितीय पहर में अर्थ का चिन्तन किया जाता था, इसलिए प्रथम सूत्र पौरुषी और दूसरी अर्थपौरुषी कही जाती थी। जैसा कि कहा है-“उत्सग्गेणं पढ़मा, दृग्घड़िया सुत्त पोरिसी भणिया। विइयाय अत्थ विसया, निद्दिट्ठा दिट्ठसमएहि" ।१। विधि
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