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• प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
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(३२) सेवा धर्म की महिमा
( तर्ज-सेवो सिद्ध सदा जयकार ) सेवा-धर्म बड़ा गंभीर, पार कोई बिरला पाते हैं । बिरले पाते हैं, बंधुता भाव बढ़ाते हैं ।
___ जगत का खार मिटाते हैं । तन-धन-औषध-वस्त्रादिक से-सेवा करते हैं । स्वार्थ-मोह-भय-कीर्ति हेतु-कई कष्ट उठाते हैं ॥१॥ सेवा से हिंसक प्राणी भी, वश में आते हैं । सेवा के चलते सेवक-अधिकार मिलाते हैं ॥२॥ नंदिषेण मुनि ने सेवा की, देव परखते हैं । क्रोध-खेद से बचकर-मन अहंकार न लाते हैं ।।३।। धर्मराज की देखो सेवा, कृष्ण बताते हैं । कोड़ों व्यय कर अहंभाव से, अफल बनाते हैं ॥४॥ द्रव्य-भाव दो सेवा होती, मुनि जन गाते हैं । रोग और दुर्व्यसन छुड़ाया-जग सुख पाते हैं ।।५।। जीव-जीव का उपयोगी हो-दुःख न देते हैं । जगहित में उपयोगी होना, विरला चाहते हैं ।
'गजमुनि' चाहते हैं ।।६।।
(३३) यह पर्व पर्युषण पाया
( तर्ज-वीरा रमक झमक हुई आइजो ) यह पर्व पर्युषण प्राया, सब जग में प्रानन्द छाया रे ।। टेर ।। यह विषय कषाय घटाने, यह आतम गुण विकसाने ।
जिनवाणी का बल लाया रे ।। पर्व० ॥ १ ॥ ये जीव रूले चह गति में, ये पाप करण की रति में ।
निज गुण सम्पद को खोया रे ॥ पर्व ।। २ ।। तुम छोड़ प्रमाद मनायो, नित धर्म ध्यान रम जाम्रो ।
___लो भव-भव दु-ख मिटाया रे ।। पर्व० ।। ३ ।।
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