Book Title: Jinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
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से सम्पूर्ण हिंसा, सत्य, प्रदत्त ग्रहण, कुशील और परिग्रह आदि पापों का त्याग होता है । स्वयं किसी प्रकार के पाप का सेवन करना नहीं, अन्य से नहीं करवाना और हिंसादि पाप करने वाले का अनुमोदन भी करना नहीं, यह मुनि जीवन की पूर्ण साधना है । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति जैसे सूक्ष्म जीवों की भी जिसमें हिंसा हो, वैसे कार्य वह त्रिकरण त्रियोग से नहीं करता । गृहस्थ अपने लिए आग जला कर तप रहे हैं, यह कह कर वह कड़ी सर्दी में भी वहाँ तपने को नहीं बैठता । गृहस्थ के लिए सहज चलने वाली गाड़ी का भी वह उपयोग नहीं करता और जहाँ रात भर दीपक या अग्नि जलती हो, वहाँ नहीं ठहरता । उसकी अहिंसा पूर्ण कोटि की साधना है । वह सर्वथा पाप कर्म का त्यागी होता है ।
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फिर भी जब तक रागदशा है, साधना की ज्योति टिमटिमाते दीपक की तरह अस्थिर होती है। जरा से झोंके में उसके गुल होने का खतरा है । हवादार मैदान के दीपक की तरह उसे विषय कषाय एवं प्रमाद के तेज झटके का भय रहता है । एतदर्थ सुरक्षा हेतु प्रहार-विहार- संसर्ग और संयमपूर्ण दिनचर्या की कांचभित्ति में साधना के दीपक को मर्यादित रखा जाता है ।
साधक को अपनी मर्यादा में सतत जागरूक तथा आत्म निरीक्षक होकर चलने की आवश्यकता है । वह परिमित एवं निर्दोष आहार ग्रहण करे और अपने से हीन गुणी की संगति नहीं करे । साध्वी का पुरुष मण्डल से और साधु का स्त्री जनों से एकान्त तथा अमर्यादित संग न हो, क्योंकि अतिपरिचय साधना में विक्षेपका कारण होता है । सर्व विरति साधकों के लिए शास्त्र में कहा है" मिहि संथव न कुन्जा, कुज्जा साहुहि संथवं ।" साधनाशील पुरुष संसारी जनों का अधिक संग परिचय न करे, वह साधक जनों का ही संग करे । इससे साधक को साधना में बल मिलेगा और संसार काम, क्रोध, मोह के वातावरण से वह बचा रह सकेगा । साधना में आगे बढ़ने के लिए यह आवश्यक है कि साधक महिमा, व्यक्ति पूजा और अहंकार से दूर रहे |
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साधना के सहायक - जैनाचार्यों ने साधना के दो कारण माने हैंअन्तरंग और बहिरंग । देव, गुरु, सत्संग, शास्त्र और स्वरूप शरीर एवं शान्त, एकान्त स्थान आदि को बहिरंग साधन माना है, जिसको निमित्त कहते हैं । बहिरंग साधन बदलते रहते हैं । प्रशान्त मन और ज्ञानावरण का क्षयोपशम अन्तर साधन है । इसे अनिवार्य माना गया है। शुभ वातावरण में प्रान्तरिक साधन अनायस जागृत होता और क्रियाशील रहता है, पर बिना मन की अनुकूलता के वे कार्यकारी नहीं होते । भगवान् महावीर का उपदेश पाकर भी कूणिक अपनी बढ़ी हुई लालसा को शान्त नहीं कर सका, कारण अन्तर साधन
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