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________________ • प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. · से सम्पूर्ण हिंसा, सत्य, प्रदत्त ग्रहण, कुशील और परिग्रह आदि पापों का त्याग होता है । स्वयं किसी प्रकार के पाप का सेवन करना नहीं, अन्य से नहीं करवाना और हिंसादि पाप करने वाले का अनुमोदन भी करना नहीं, यह मुनि जीवन की पूर्ण साधना है । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति जैसे सूक्ष्म जीवों की भी जिसमें हिंसा हो, वैसे कार्य वह त्रिकरण त्रियोग से नहीं करता । गृहस्थ अपने लिए आग जला कर तप रहे हैं, यह कह कर वह कड़ी सर्दी में भी वहाँ तपने को नहीं बैठता । गृहस्थ के लिए सहज चलने वाली गाड़ी का भी वह उपयोग नहीं करता और जहाँ रात भर दीपक या अग्नि जलती हो, वहाँ नहीं ठहरता । उसकी अहिंसा पूर्ण कोटि की साधना है । वह सर्वथा पाप कर्म का त्यागी होता है । २७७ फिर भी जब तक रागदशा है, साधना की ज्योति टिमटिमाते दीपक की तरह अस्थिर होती है। जरा से झोंके में उसके गुल होने का खतरा है । हवादार मैदान के दीपक की तरह उसे विषय कषाय एवं प्रमाद के तेज झटके का भय रहता है । एतदर्थ सुरक्षा हेतु प्रहार-विहार- संसर्ग और संयमपूर्ण दिनचर्या की कांचभित्ति में साधना के दीपक को मर्यादित रखा जाता है । साधक को अपनी मर्यादा में सतत जागरूक तथा आत्म निरीक्षक होकर चलने की आवश्यकता है । वह परिमित एवं निर्दोष आहार ग्रहण करे और अपने से हीन गुणी की संगति नहीं करे । साध्वी का पुरुष मण्डल से और साधु का स्त्री जनों से एकान्त तथा अमर्यादित संग न हो, क्योंकि अतिपरिचय साधना में विक्षेपका कारण होता है । सर्व विरति साधकों के लिए शास्त्र में कहा है" मिहि संथव न कुन्जा, कुज्जा साहुहि संथवं ।" साधनाशील पुरुष संसारी जनों का अधिक संग परिचय न करे, वह साधक जनों का ही संग करे । इससे साधक को साधना में बल मिलेगा और संसार काम, क्रोध, मोह के वातावरण से वह बचा रह सकेगा । साधना में आगे बढ़ने के लिए यह आवश्यक है कि साधक महिमा, व्यक्ति पूजा और अहंकार से दूर रहे | Jain Educationa International साधना के सहायक - जैनाचार्यों ने साधना के दो कारण माने हैंअन्तरंग और बहिरंग । देव, गुरु, सत्संग, शास्त्र और स्वरूप शरीर एवं शान्त, एकान्त स्थान आदि को बहिरंग साधन माना है, जिसको निमित्त कहते हैं । बहिरंग साधन बदलते रहते हैं । प्रशान्त मन और ज्ञानावरण का क्षयोपशम अन्तर साधन है । इसे अनिवार्य माना गया है। शुभ वातावरण में प्रान्तरिक साधन अनायस जागृत होता और क्रियाशील रहता है, पर बिना मन की अनुकूलता के वे कार्यकारी नहीं होते । भगवान् महावीर का उपदेश पाकर भी कूणिक अपनी बढ़ी हुई लालसा को शान्त नहीं कर सका, कारण अन्तर साधन For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003843
Book TitleJinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1992
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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