Book Title: Jinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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• प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
• १८७
पू० आचार्यश्री ने जैन दर्शन के अनुसार दमन के स्थान पर शमन को महत्त्व दिया है। उनका विचार रहा कि 'धर्मनीति शमन पर अधिक विश्वास करती है। शमन में वृत्तियाँ जड़ से सुधारी जाती हैं । रोग के बजाय उसके कारणों पर ध्यान दिया जाता है। इसलिए उसका असर स्थायी होता है, फिर भी तत्काल की आवश्यकता से कहीं दमन भी अपेक्षित रहता है जैसे उपवास आदि का प्रायश्चित्त । यद्यपि इसमें भी उद्देश्य सशिक्षा से साधक की वृत्तियों को सुधारने का ही रहता है।' साधना प्रवृत्ति की उनकी कतिपय मौलिक विशेषताएं :
प्राचार्यश्री की साधना सम्बन्धी कुछ विशेषताएँ इस प्रकार हैं
१. समग्रता-प्राचार्यश्री द्वारा साधना-पद्धति का जो मार्गदर्शन समयसमय पर दिया गया, उससे ज्ञात होता है कि वे साधना में समग्रता के हामी थे। उन्होंने केवल मन या केवल काया की साधना पर बल न देकर तीनों योगों की साधना को समग्र रूप प्रदान किया। उनका विचार था मन, वाणी और काया की साधना करने से सहज ही आत्मा की शक्ति बढ़ेगी, यश प्राप्त होगा, समाज में सम्मान और सुख प्राप्त होगा । आज भी साधक संघ के सदस्य मन की साधना ध्यान द्वारा, वाणी की साधना मौन द्वारा और काया की साधना तप के द्वारा कर रहे हैं । ज्ञान, दर्शन, चारित्र की समन्वित साधना पर ही आचार्यश्री का विशेष बल था। स्वाध्याय प्रवृत्ति पर विशेष बल देते हुए भी उनकी दृष्टि में ज्ञान-क्रिया दोनों का समान महत्त्व था। साधक संघ में क्रिया के साथ ज्ञान या स्वाध्याय पर भी उतना ही बल दिया गया है। प्राचार्य प्रवर का मत था "सम्यग्ज्ञानादि त्रय से ही व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व का कल्याण सम्भव है।"
२. संघपरकता या समाजपरकता-आचार्यश्री ने साधना को एक क्रांतिकारी नूतन आयाम देने का भी विचार रखा । उनका विचार था कि साधना व्यष्टि परक ही न होकर संघपरक या समाजपरक भी हो । एतदर्थ उन्होंने सामाजिक या संघधर्म के रूप में स्वाध्याय-साधनादि की ओर समाज का ध्यान प्राकृष्ट किया । आचार्यश्री का विचार था कि "व्यक्तिगत प्राप्त प्रेरणा ढीली हो जाती है । यदि कुल का वातावरण गन्दा हो, पारिवारिक लोग धर्मशून्य विचार के हों तो मन में विक्षेप होने के कारण व्यक्ति का श्रुतधर्म और चारित्र धर्म ठीक नहीं चल सकेगा। यदि कुलधर्म में अच्छी परम्पराएँ होंगी तो आत्म
१. आध्यात्मिक आलोक, पृ. १३० २. प्राध्यात्मिक आलोक, पृ. १३०
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