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• व्यक्तित्व एवं कृतित्व
मूल रूप में साधक की साधना आत्म-साधना है । इसके मुख्य दो रूप हैं-अंतरंग व बहिरंग।
अंतरंग साधना-साधक सच्चे देव, गुरु, शास्त्र, धर्म का यथार्थ स्वरूप समझ कर यथार्थ श्रद्धान करे, उन्हें मन, वचन, काया व आत्मा से अर्पण होकर उनकी आज्ञा का निःशंकता से प्राराधन करे । जीवादि तत्त्वों का, सत्यासत्य का, मोक्ष मार्ग व संसार मार्ग का यथातथ्य निर्णय कर, हेय, ज्ञेय, उपादेय स्वरूप से उनके गुण धर्मों के आधार पर सत्यार्थ बोध कर मोक्ष मार्ग की आराधना करे अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप शुद्ध धर्म की आराधना करे तो ही साधना है, उसी से साध्य की प्राप्ति सम्भव है । साध्य आत्मा की विशुद्ध दशा है तो साधना भी आत्मा ही के द्वारा उसके अपने ज्ञानादि गुणों की आराधना करना है। विभाव दशा में पर का संयोग है जबकि स्वभाव दशा की साधना में निज का ही पालम्बन है । निज वैभव में ही सुख, आनन्द, ज्ञान, दर्शन का खजाना भरा पड़ा है । अतः शुद्ध रत्नत्रय धर्म की आराधना निज में ही निज के आलम्बन से होती है।
जैसे पानी अग्नि के संयोग से शीतल स्वभावी होने पर भी उष्णता को प्राप्त हो जाता है और संयोग से हटने पर संयोग का कारण अग्नि नहीं होने से स्वतः अपने मूल शीतल स्वभाव में आ जाता है। उष्ण होने में अग्नि की तथा अन्य के सहयोग की आवश्यकता थी जबकि अपने स्वभाव में आने के लिए संयोग के अभाव में स्व-आलम्बन ही मुख्य है, अन्य का आलम्बन अपेक्षित नहीं । इसी तरह अनादि से पर संयोग से प्रात्मा संसारी विभाव दशा में है, उसके साधन पर द्रव्य का निमित्त व स्वयं का अज्ञान मोहादि भाव है। इन संयोगी भावों से व संयोगी पदार्थों से हटकर स्वयं के ज्ञान पूर्वक स्व में लीन होकर स्वभाव में आ सकती है चूंकि स्व में स्वाभाविक शक्ति है । स्वाधीनता ही सुख संतोषमय है और पराधीनता ही दुःख है. पाकुलता रूप है।
बहिरंग साधना-चूंकि प्रात्मा के साथ कमों का बंधन है, देहादि का संबंध है । इनके रहते हुए ही साधना सम्भव है । इनके अभाव में साधना का कोई अर्थ नहीं रह जाता।
बाह्य साधना में मनुष्यत्व, उत्तम कुल, धर्म मत, सच्चे देवादि का निमित्त, भव्यत्व, मुक्त होने की तीव्र अभिलाषा, ज्ञानी के आश्रय में दृढ़ निष्ठापूर्वक तत्त्वादि का बोध, सम्यक् श्रद्धा-ज्ञान के बल पर मिथ्यात्व से सम्यक्त्व में, अव्रत से व्रत में, प्रमाद से अप्रमाद में, कषाय से अकषाय भावों में, अशुभ योग से शुभ योग में आना, कुसंग से सत्संग में, असत्य प्रसंगों से, स्वच्छंदता से,
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