Book Title: Jinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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भौतिकता की प्रबल प्राँधी में जैन संस्कृति के संरक्षक की दृष्टि से साधक संघ का दीप प्रदीप्त किया। साधक संघ से आचार्यश्री का अभिप्राय श्रमण और गृहस्थ के बीच के वर्ग से था, ऐसे साधक जो गृहस्थ जीवन के प्रपंचों से ऊपर उठे हुए हों । वे निर्व्यसनी जीवन बिताते हुए, श्रावक धर्म का पालन करते हुए, जीवनदानी बनकर समाजोत्थान एवं धर्म प्रचार के कार्य में लग सकें । स्वयं के जीवन को साधकर देश-विदेश में प्रभु महावीर के सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार कर सकें । इस संघ के निर्माण के पीछे उनका उद्देश्य था कि ज्ञान और क्रिया दोनों का साधक वर्ग में समावेश हो, सामंजस्य हो । क्रिया के अभाव में ज्ञान
पूर्ण है, अतः ज्ञान के साथ क्रिया का समन्वय, सामंजस्य हो साधक वर्ग में । वे ज्ञान-क्रिया की आराधना करते हुए जीवन में अग्रसर हों और प्रभु महावीर के सिद्धान्तों के प्रचार-प्रसार में अपना योगदान कर सकें ।
व्यक्तित्व एवं कृतित्व
संवत् २०३४ में आचार्य प्रवर के ब्यावर चातुर्मास में प्राचार्यश्री की साधना संघ की प्रेरणा को समाज में सादर क्रियान्वित करने की योजना बनी । लेखक को यह दायित्व सौंपा गया । आचार्य प्रवर की सद्प्रेरणा से अनेक साधक तैयार हुए जो साधक संघ की योजनानुरूप कार्य करने को इच्छुक थे । स्वाध्यायी तो ये थे ही। साधना मार्ग पर आगे बढ़ने को ये तत्पर थे । कुछ समय बाद साधक संघ का विधिवत् गठन हुआ । संक्षेप में साधक संघ के तीन उद्देश्य रखे गये थे
१. साधक वर्ग में स्वाध्याय, साधना एवं समाज सेवा की प्रवृत्ति को विकसित करने के लिए समुचित व्यवस्था करना ।
२. पू० साधु-साध्वीजी एवं गृहस्थ समुदाय के बीच का एक साधक वर्ग गठित करना जो सामान्य गृहस्थ से अधिक त्यागमय जीवन बिताते हुए देशविदेश में जैन धर्म का प्रचार-प्रसार कर सके ।
३. समाज एवं धर्म के लिए साधक वर्ग की सेवाएँ उपलब्ध कराना ।
साधक संघ का गठन - इस प्रवृत्ति को साधना विभाग के नाम से सम्यज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर के तत्त्वावधान में कार्यरत स्वाध्याय संघ के अन्तर्गत रखा गया, परन्तु व्यवस्था की दृष्टि से इसे अलग से रखा गया है जिससे स्वाध्याय संघ के बढ़ते हुए कार्यक्रम के संचालन में असुविधा न हो ।
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साधकों की श्राचार-संहिता - यह आचार संहिता प्रत्येक श्रेणी के साधक के लिए अनिवार्य है । इसमें (i) देव अरिहंत, गुरु निर्ग्रन्थ एवं केवली प्ररूपित धर्म में आस्था / श्रद्धा रखना, (ii) सप्त कुव्यसनों का त्याग, (iii) प्रतिदिन नियमित सामायिक साधना करना, (iv) जीवन में प्रामाणिकता, (v) परदार
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