Book Title: Jinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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आचार्य श्री प्राकृत- संस्कृत भाषा और साहित्य के प्रकाण्ड पण्डित थे । न्याय, व्याकरण, दर्शन व इतिहास में उनकी गहरी पैठ थी । वे शास्त्रीयता के संरक्षक माने जाते थे पर उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की यह विशेषता थी कि वे मन, वचन, कर्म में सहज-सरल थे, एकरूप थे । लोकधर्म, लोकसंस्कृति और लोकजीवन से वे कटकर नहीं चले । इस सबसे उनका गहरा जुड़ाव था । अपने शास्त्रीय ज्ञान को उन्होंने कभी अपने प्रवचनों में आरोपित नहीं किया । वे सहृदय कवि थे । उनकी कविताओं में आत्मानुभूति के साथ-साथ लोकजीवन और लोकधर्म की गहरी पकड़ थी । छंद शास्त्रीय न होकर लोकव्यवहार में व्यवहृत विभिन्न राग-रागिनियाँ हैं ।
व्यक्तित्व और कृतित्व
आचार्य श्री के प्रवचन आत्म-धर्म और आत्म जागृति की गुरु गंभीर बात लिए हुए होते थे, पर होते थे सहज-सरल । तत्त्वज्ञान की बात वे लोकधर्म और लोकजीवन से जुड़कर / जोड़कर समझाते थे । प्रवचनों के बीच-बीच स्वतः साधना में पकी हुई सूक्तियाँ अवतरित होती चलती थीं। सूक्तियों का निर्माण वे शास्त्र के आधार पर न कर लोकानुभव के आधार पर करते थे । यहाँ हम उनकी सूक्तियों में निहित लोकधर्मी तत्त्वों पर संक्षेप में विचार करेंगे ।
दार्शनिक स्तर पर संतों ने यह अनुभव व्यक्त किया है कि जो पिण्ड में है वही ब्रह्माण्ड में है और जो ब्रह्माण्ड में है वही पिण्ड में है । जैसा हम भीतर सोचते हैं वैसा बाहर प्रकट होता है और जैसा बाहर है वैसा भीतर घटित होता है । इस संदर्भ में विचार करें तो सृष्टि में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश आदि जो पंचतत्त्व हैं, वही पंचतत्त्व हमारे भीतर भी हैं । प्राचार्य श्री ने बाहर और भीतर के इन पंचतत्त्वों को समन्वित करते हुए उपमान के रूप में इन्हें प्रस्तुत करते हुए जीवन-आदर्शों और सांस्कृतिक मूल्यों को निरूपित किया है। विचार की नींव पर ही आचार का महल खड़ा होता है । इस संदर्भ में आचार्य श्री का कथन है - ' विचार की नींव कच्ची होने पर आचार के भव्य प्रासाद को धराशायी होते देर नहीं लगती ।'
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विचार तभी परिपक्व बनते हैं जब उनमें साधना का बल हो । साधना के अभाव में जीवन का कोई महत्त्व नहीं । साधना रहित जीवन विषय-वासना में उलझ जाता है, अधर्म का रास्ता अपना लेता है, स्वार्थ केन्द्रित हो जाता है | आचार्य श्री के शब्दों में 'उसको दूसरों का अभ्युदय कांटा सा कलेजे में चुभेगा, तरह-तरह की तदबीर लगाकर वह दूसरों का नुकसान करेगा और निष्प्रयोजन निकाचित कर्म बांधेगा ।'
जल तत्त्व, करुणा, सरसता और सहृदयता का प्रतीक है । जिसका यह
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