________________
• १४८
• व्यक्तित्व एवं कृतित्व
३. ज्ञान का प्रकाश अभय बना देता है-अपने स्वाधीन स्वरूप को जानना आवश्यक है । आचार्य श्री भेड़ों के बच्चों के बीच पलने वाले सिंहशावक का दृष्टांत देकर यह स्पष्ट करते थे कि बोध करो । 'सूत्रकृतांग' की प्रथम गाथा का उद्धरण आचार्य श्री की इस दार्शनिक मान्यता का मूल था कि ज्ञान बिना नहीं भान ।
बुज्झज्ज तिउहेज्जा बंधणं परिजाणिया । किमाह बंधणं वीरो ? किं वा जारणं तिउट्टइ ।।
(ग० व्या० मा० ३/७)
बंधन को जानो, बंधन को काटो । स्व-पर विवेक-ज्ञान का प्रभाव होने से ही मानव भोगोपभोग सामग्री के बिछोह-भय से भयभीत रहता है । प्राचार्य श्री ने समझाया कि जिस सामग्री में स्वभाव से ही सुख विद्यमान नहीं है वह प्राप्त हो अथवा छूट जाय, साधक इससे प्रभावित नहीं होता, भय का तो अवकाश ही नहीं । 'मेरे अन्तर भया प्रकाश, मुझे अब नहीं की आश ।' ज्ञान का प्रकाश मोह का नाश करता है । मोह शब्द के मूल में 'मुह' धातु है । 'मुह' धातु से 'क्त' प्रत्यय लगकर शब्द बनता है 'मूढ़' । 'मूढ़' का अर्थ है मिथ्यात्वी. अज्ञानी, मूर्ख, अविवेकी । जीब को अजीव जानना किसी और अजीव को जीव जानना मिथ्या-ज्ञान है । क्या हम इसी मिथ्या-ज्ञान में जीकर तो मोह नहीं बढ़ा रहे हैं ? मुझे शरीर से मोह है, पुत्र-परिवार, मित्र-सम्पत्ति-सत्ता से मोह है, इसका तात्पर्य है कि शरीरादि समस्त परपदार्थ मेरे नहीं हैं, मैं इन सबसे भिन्न हूँ यह बोध-ज्ञान मुझे नहीं है । यह मोह तभी छूटेगा जब यह ज्ञान दृढ़ हो जावे कि-'जो मेरो है सो जावे नहीं, जो जावे है सो मेरो नहीं।' वस्तु के स्वभाव को जान लेना ही ज्ञान है और इसी से अभय प्राप्त होता है। जो क्षणिक है वह तो छूटता ही है, इसमें भय कैसा ? यही अभय अहिंसा का जनक है । इसी से मोहविजय संभव है।
४. जो क्रियावान है वही विद्वान है-प्राचार्य श्री का समस्त चिंतन आत्मपरक था । उनकी दार्शनिक मान्यता थी कि शुष्क तर्क के बल पर बुद्धि के प्रयोगों से सभा को विस्मित कर देने वाला विद्वान् नहीं है, शास्त्रों का वक्ता, श्रोता या पाठक विद्वान् नहीं है, शास्त्रों का संचय कर पुस्तकालय निर्माण करने वाला विद्वान् नहीं है, अनेकानेक डिग्रियों से स्वयं को मण्डित करने वाला विद्वान् नहीं है, शोध के क्षेत्र में वर्षों प्रयोगशालाओं में जीवन खपा देने वाला भी विद्वान् नहीं है, यदि इनके जीवन में स्वयं की पहचान
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org