Book Title: Jinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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• १५२
• व्यक्तित्व एवं कृतित्व
कितना मार्मिक विश्लेषण किया है आचार्य श्री ने-मा हटी तो बेड़ी कटी । जो धन तुमने जुटाया है उसे यह समझो कि वह मेरी निश्रा में है । वस्तु मेरी नहीं, मेरी निश्रा में है, यह कहने, सोचने, समझने से ममत्व विसर्जन होता है। जहां ममत्व नहीं, वहां दुःख नहीं।
संचय से लवणाम्बुज का अथाह जल भी अनुपयोगी और खारा हो जाता है, संचित लक्ष्मी भी स्वामी के कलंक का कारण बन जाती है । आचार्य श्री ने कितना सुन्दर कहा-'धन-सम्पत्ति के गुलाम मत बनो, सम्पत्ति के स्वामी बनो । संचित सम्पत्ति की सुरक्षा में चितित स्वामी सचमुच उस सम्पत्ति का दास है और ममत्व हटाकर सम्पत्ति का शुभोपयोग में विसर्जन करने वाला ही सम्पत्ति का स्वामी।'
सम्पत्ति के सदुपयोग से सेवा का अमृत फल भी उपलब्ध होता है । सेवा के क्षेत्र का जितना-जितना विस्तार होता है, राग-द्वेष विजय होती है। प्राणिमात्र के प्रति करुणा विसर्जित होना ही तो वीतरागी होना है क्योंकि सेवा के विस्तार से राग पतला होकर टूट जाता है। राग का घेरा टूटा और वीतरागता प्रकट हुई।
परिग्रह को उपकरण बना कर ही यह सम्भव है, अधिकरण मान कर नहीं।
७. अप्रमत्त रह कर ही धर्माचरण सम्भव-आचार्य श्री का सम्पूर्ण जीवन अप्रमत्त भाव में रहने की सीख देता है। 'समयं गोयम मा पमायए' का संदेश आचार्य श्री के जीवन में पैठ गया था । आचार्य श्री अप्रमत्त रह कर ही धर्माचरण को सम्भव मानते थे । समय का दुरुपयोग आपके लिये हिंसा के समान त्याज्य था । मौन-साधना में रत, काल की सूक्ष्मतम इकाई समय भर भी प्रमाद न करने में कुशल, जीवन की हर क्रिया को धर्म-सूत्र में पिरोकर बहुमूल्य बनाने में सिद्धहस्त आचार्य श्री की यह मान्यता थी कि गृहस्थ संसारी के अर्थ और काम पुरुषार्थ यदि धर्म-सम्मत हों तभी वह श्रावक की भूमिका का निर्वाह कर सकता है। नीति पूर्वक अर्जन श्रावक के लिये परम आवश्यक है । असंयम को रोक कर ही धर्म सम्भव है। अपने जीवनकाल में आचार्य श्री ने सैकड़ों मनुष्यों को संयम-पथ पर अग्रसर किया । सामूहिक चेतना में संयम फूंकने वाले साधक को कोटिशः वन्दन।..
साधना हेतु दु:ख सहन का अभ्यास आवश्यक'मायावयाही चय सोग मल्लं । कामे कमाही कमियं खु दुक्खं ।'
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