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• प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
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समसत्तुबंधुवम्गो, समसुहदुक्खो पसंसरिणदसमो।
सम लोकंचणो पुण, जीविद मरणे समो समणो ॥ समत्व ही धर्म है और समत्व की साधना करने वाला ही धार्मिक । यह थी प्राचार्य श्री की दार्शनिक मान्यता ।
६. परिग्रह उपकरण बने अधिकरण नहीं - अपरिग्रही मोह विजय करें प्रात्म-लाभ करता है इस उद्देश्य से प्राचार्य श्री ने अपरिग्रही बनने हेतु सार्थक सन्देश प्रदान किया। अपरिग्रह की जैसी व्याख्या प्राचार्य श्री ने प्रस्तुत की वह मागम-सम्मत तत्त्व-निरूपण की अनूठी शैली का निदर्शन है।
भगवान् महावीर ने परिग्रह को बंध का कारण कहा अतः न तो परिग्रह करना चाहिये और न ही करने वाले का अनुमोदन करना चाहिये । अन्यथा 'दुःख मुक्ति सम्भव नहीं। आचार्य श्री ‘सूत्रकृतांग' की साक्षी प्रस्तुत करते हैं
चित्तमंतमचित्तं वा, परिगिझ कि साम वि।
अण्णं वा अणु जाणाइ, एवं दुक्खा न मुच्चइ ।। विचारणीय है कि मूर्छा अर्थात् आसक्ति को परिग्रह कहा गया है । प्रस्तुत उद्धरण में मूर्छा-परिग्रह न करने तथा करते हुए का अनुमोदन नहीं करने का उपदेश है, यह उचित ही है क्योंकि अन्य को पदार्थ दिये जा सकते हैं पर मूर्छा नहीं दी जा सकती। मूर्छा तो स्वयं ही कोई करता है या मूच्छित परिग्रही का अनुमोदन कर सकता है। परिग्रह के दो योग ही कहना इसीलिये सार्थक प्रतीत होता है।
आचार्यश्री ने स्पष्ट कहा कि आरम्भ और परिग्रह को जाने बिना धर्म-श्रवण लाभ भी नहीं होता । परिग्रह आत्मा को जकड़ने वाला है। 'सूत्रकृतांग' में परिग्रह के सचित्त, अचित्त और मिश्र त्रिविध भेदः किये हैं तथा 'स्थानांग' में कर्म-परिग्रह, शरीर-परिग्रह और भाण्डोपकरण परिग्रह यह विविध विभाजन है । प्राचार्य श्री ने स्पष्ट किया कि परिग्रह-उपधि या उपकरण भी होते हैं यदि परिग्रह साधना हेतु उपयोगी बन जाय । जो सामग्री या साधन काम में लिए जाते हैं, संग्रह नहीं किए जाते वे अपरिग्रह ही हो जाते हैं क्योंकि वे उपकरण बन जाते हैं । आचार्य श्री का उद्घोष था कि परिग्रह उपकरण बने, अधिकरण नहीं । अधिकरण बैंध का कारण होता है, शुभ कार्य में उपयोगी उपधि-उपकरण बन्ध कारण नहीं, इसीलिए साधु १४ उपकरण रखने पर भी अपरिग्रही होते हैं।
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