Book Title: Jinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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• ७४
• व्यक्तित्व एवं कृतित्व
गया, उनको गूंथा गया तो वह एक अनमोल रत्न-जड़ित हार बना । उस हार को नाम दिया गया-रत्न जड़ित हार, स्वाध्याय, स्वयं के कणों का समीकरण । एक ऐसा समीकरण, जिसमें स्वयं के द्वारा, स्वयं की खोज, अन्तरात्मा की खोज ।
प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में अध्ययन का असीम महत्त्व है। बिना अध्ययन के मनुष्य का जीवन शून्य है। इस सिद्धान्त के परिप्रेक्ष्य में आचार्य श्री ने जैन धर्म की गूढ़ता, प्राकृत की गाथाओं के भावों को अत्यन्त ही साधारण शब्दों में जन-सुलभ कराया । वे सोचते थे कि इसका मर्म समझाने का प्रयास यदि नहीं किया गया तो युवा पीढ़ी धर्म से अनजान बनी रहेगी एवं अभी वह जितनी दूर है, इससे और अधिक दूरी बढ़ जायेगी। इस दूरी को पाटने के लिए उनके द्वारा सर्वप्रथम युवा-पीढ़ी एवं युवा से भी पहले, किशोर एवं बालकों को समझाने हेतु बाल-सुलभ शैली का मार्ग अख्तियार किया गया। उनका सोचना था कि जो परिपक्व हो चुके हैं, यानी कि मटकी चिकनी हो चुकी है, उस पर तो कोई असर होने वाला नहीं है, अत: वे कच्चे मटके पर रंग-रोगन की अधिक बात करते थे, उन पर अधिक ध्यान देने का बीड़ा उन्होंने उठाया । शनैः शनैः अध्ययन एवं स्वाध्याय की परम्परा से युवकों को जोड़ने की उन्होंने ठानी, क्योंकि स्वाध्याय से जुड़ा हुआ साधक, श्रावक, (श्रावक किसी भी उम्र का हो सकता है, उसकी कोई सीमा नहीं है, बालक भी श्रावक हो सकता है) शास्त्र, जिनवाणी के अध्ययन की दिशा में अपने छोटे-छोटे पग बढ़ायेगा तो मंजिल की ओर कुछ ले चलेगा हो । सही दिशा में उसके चलने की यही शुरूपात उसे आगम के मर्म को सुझायेगी। इस तरह स्वाध्याय के पथ पर अग्रसर हुआ. साधक, श्रावक, स्वाध्यायी अपने गंतव्य, जन्म-मरण से रहित, सूख-दु:ख रहित अवस्था की ओर उद्यत होता जायेगा, वह अपने आपको सामायिक अवस्था में पायेगा । प्राचार्य श्री का मिशन, पथिक को गंतव्य तक पहुँचाने वाला है।
आडम्बर एवं अन्य बाह्य उपादान रहित, स्थानकवासी जैन धर्म के पास अपने सन्तों के अलावा एक मात्र माध्यम बचा रहता है आगम, ग्रन्थ, शास्त्र । लेकिन जब तक यह सब स्थानक की आलमारी में बंद है, इसके कपाट खुले नहीं हैं, तब तक इनकी उपयोगिता मानव जीवन के लिए शून्यप्राय है । आचार्य श्री ने स्वाध्याय की पुनीत परम्परा से, ग्रन्थों को कपाट से नियमित रूप से बाहर लाने का एक सरल सा मार्ग सुझाया । नियमित स्वाध्याय ही जीवन को एक नई दिशा देता है । जैसे बूंद-बूंद से घट भर जाता है, वैसे ही नित्य कुछ-कुछ समय अध्ययन को देने से, स्वाध्याय की दिशा में प्रकाश की नई किरण प्रगट होती है एवं प्रकाश की एक किरण, दूर-दूर तक फैले तम को दूर करने में सक्षम होती है। स्वाध्याय की बेला में, स्वाध्याय की धारा में, पढ़ा गया हर शब्द समझा
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