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"युग प्रधान संतों की जीवन गाथा, उनके अनुगामी को न्हायें माथा । राग- अंध हो, भूला जन निज गुण को,
धर्म गाथा जागृत करती जन-मन को । सुनो ध्यान से सत्य कथा हितकारी ।। "
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और सचमुच आचार्य श्री ने २१० छन्दों में भगवान् महाबीर के प्रथम पट्टधर सुधर्मा से लेकर आज तक के जैन आचार्यों का इतिहास "जैन आचार्य चरितावली" में निबद्ध कर दिया है । इसमें किसी एक आचार्य के चरित्र का आख्यान न होकर भगवान् महावीर के बाद होने वाले प्रमुख जैन आचार्यों की जीवन - झांकी प्रस्तुत की गई है । इस कृति के अन्त में आचार्य श्री ने धर्म और सम्प्रदाय पर विचार करते हुए कहा है कि दोनों का सम्बन्ध ऐसा है जैसा जीव और काया का । धर्म को धारण करने के लिए सम्प्रदाय रूप शरीर की आवश्यकता होती है । धर्म की हानि करने वाला सम्प्रदाय, सम्प्रदाय नहीं, अपितु वह तो घातक होने के कारण माया है। बिना संभाले जैसे वस्त्र पर मैल जम जाता है, वैसे ही सम्प्रदाय में भी परिमार्जन चिन्तन नहीं होने से राग-द्वेषादि का बढ़ जाना संभव है । पर मैल होने से वस्त्र फेंका नहीं जाता, अपितु साफ किया जाता है, वैसे ही सम्प्रदाय में आये विकारों का निरन्तर शोधन करते रहना श्रेयस्कर है
"धर्म प्राण तो सम्प्रदाय काया है,
करे धर्म की हानि, वही माया है । बिना संभाले मैल वस्त्र पर आवे,
सम्प्रदाय में भी रागाधिक छावे ।
वाद हटाये, सम्प्रदाय सुखकारी ॥ "
व्यक्तित्व एवं कृतित्व
आवश्यकता इस बात की है कि दृष्टि राग को छोड़कर हम गुणों के भक्त बनें - " दृष्टि राग को छोड़, बनो गुणरागी ।"
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आचार्य श्री ने इतिहास जैसे नीरस विषय को राधेश्याम, लावणी, ख्याल, रास जैसी राग-रागिनियों में आबद्ध कर सरस बना दिया है । अपनी सांस्कृतिक एवं धार्मिक परम्पराओं को काव्य के धरातल पर उतार कर जन-जन तक पहुँचाने में यह 'चरितावली' सफल बन पड़ी है ।
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