Book Title: Jinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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था (पृ. ८७ ) यहाँ प्राचाय श्री ने यह मत भी स्थायित करने का प्रयत्न किया है। कि 'आचारांग' का द्वितीय श्रुत स्कन्ध 'आचारांग' का ही अभिन्न अंग है । वह न 'आचारांग' का परिशिष्ट है और न पश्चाद्वर्ती काल में जोड़ा गया भाग है
(पृ. ६२ ) । आगे उन्होंने कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि 'निशीथ' को 'श्राचारांग ' की पांचवीं चूला मानने और उसके पश्चात् उसे 'प्राचारांग' से पृथक् किया जाकर स्वतन्त्र छेदसूत्र के रूप में प्रतिष्ठापित किये जाने की मान्यता के कारण पदसंख्या विषयक मतभेद और उसके फलस्वरूप द्वितीय श्रुतस्कन्ध को 'आचारांग' से भिन्न उसका परिशिष्ट अथवा आचाराग्र मानने की कल्पना का प्रादुर्भाव हुआ (पृ. ६) । इस कथन को लेखक ने काफी गंभीरतापूर्वक सिद्ध किया है ।
व्यक्तित्व एवं कृतित्व
श्रुतकेवली काल :
श्वे. परंपरानुसार श्रुतकेवली काल वी. नि. सं. ६४ से वी.नि.सं. १७० तक माना गया है। इस १०६ वर्ष की अवधि में ५ श्रुतकेवली हुए - प्रभवस्वामी ( ११ वर्ष), शय्यंभव (२३ वर्ष), यशोभद्र (५० वर्ष), संभूतिविजय ( ८ वर्ष) और भद्रबाहु (१४ वर्ष ) । दि. परंपरा इनके स्थान पर क्रमश: विष्णुकुमार- नंदि ( १४ वर्ष ) नन्दिमित्र ( १६ वर्ष ), अपराजित ( २२ वर्ष), गोवर्धन ( १६ वर्ष) और भद्रबाहु ( २६ वर्ष ) । कुल काल १०० वर्ष था । विष्णुनन्दि के विषय में प्राचार्य श्री का कहना है कि दिगम्बर परम्परा में उनका विस्तार से कोई परिचय नहीं मिलता । श्वे. परम्परा में उनका नामोल्लेख भी नहीं है (पृ. ३१६ ) । शय्यंभव द्वारा रचित 'दशवैकालिक' सूत्र उपलब्ध है ।
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इन पाँचों श्रुतकेवलियों में भद्रबाहु ही ऐसे श्रुतकेवली हैं जो दोनों परम्पराओं द्वारा मान्य हैं । परन्तु उनकी जीवनी के विषय में मतभेद हैं । आचार्य श्री ने दोनों परंपराओं की विविध मान्यताओं का विस्तार से उल्लेख करते हुए कहा कि वी. नि. सं. १५६ से १७० तक आचार्य पद पर रहे हुए छेदसूत्रकार चतुर्दश पूर्वधर प्राचार्य भद्रबाहु को और वी. नि. सं. २०३२ ( शक सं. ४२७ ) के आसपास विद्यमान वराहमिहिर के सहोदर भद्रबाहु को एक ही व्यक्ति मानने का भ्रम रहा है जो सही नहीं है । इसी तरह श्रुतकेवली भद्रबाहु को नियुक्तिकार नहीं माना जा सकता (पृ. ३५६ ) । निर्युक्तिकार भद्रबाहु नैमित्तिक भद्रबाहु थे, वराहमिहिर के सहोदर ' तित्थोगालिपइन्ना' 'आवश्यक चूर्णि', 'आवश्यक हारिभद्रया वृत्ति' और प्राचार्य हेमचन्द्र का 'परिशिष्ट पर्व' इन प्राचीन श्वे. परंपरा के ग्रन्थों के आधार पर उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि तितली भद्रबाहु अन्तिम चतुर्दश पूर्वधर थे, उनके समय द्वादश वार्षिक काल पड़ा, वे लगभग १२ वर्ष तक नेपाल प्रदेश में रहे जहाँ उन्होंने महाप्राण
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