Book Title: Jinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
View full book text
________________
• प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
. • १४५
को जन्म दे, वह कैसा दर्शन ? जो दर्शन ज्ञाता के अहंकार को जगाकर अधोगति का कारण बने, वह कैसा दर्शन ? जो दर्शन हिंसा और छल को अवकाश दे, वह कैसा दर्शन ? आचार्य श्री ने उस दर्शन की प्ररूपणा की जो स्वयं के दर्शन करा दे 'दृश्यते अनेन इति दर्शनम् ।' जीवन इतना निर्मल हो कि जीवन नियन्ता प्रात्म तत्त्व का दर्शन सहज सुलभ हो जाय, यही तो दार्शनिक जीवन जीने की कला है और इसमें सिद्धहस्त थे हमारे प्राचार्य प्रवर । इसीलिये आचार्य प्रवर की दार्शनिक मान्यताएँ मिथ्या ज्ञान के आडम्बर बोझ से भारी नहीं हैं, काव्य-कला के परिधानों से सजी नहीं हैं, लवणाम्बुज की अपार निधिवत केवल सञ्चय-साधन नहीं हैं अपितु निर्मल जिनवाणी की वह सरिता है जिसका अजस्र पान कर मानव-मात्र की जन्म-जन्म की प्यास बुझी है, तापत्रय से शान्ति मिली है, स्वतंत्रता की श्वास सधी है।
जैन दर्शन के गूढ मंतव्यों को व्यवहार और क्रिया की मथनी-डोरी से मथकर जो स्निग्ध नवनीत गुरुदेव ने प्रस्तुत किया, वही आचार्य श्री की दार्शनिक मान्यताएँ हैं।
नव शीर्षकों के अन्तर्गत आचार्य श्री को दार्शनिक मान्यताओं का आकलन करने का प्रयास करूंगी(१) विज्ञान अधूरा, जिनवाणी पूर्ण है । (गजेन्द्र व्याख्यान माला भाग ६,
पृ० ३४६)। (२) प्रार्थना आत्म-शुद्धि की पद्धति है । (प्रार्थना प्रवचन, पृ० २) । (३) ज्ञान का प्रकाश अभय बना देता है। (४) जो क्रियावान् है वही विद्वान् है । स्वाध्याय से विचार-शुद्धि और
सामायिक से आचार-शुद्धि साधना-रथ के दो पहिये हैं। (५) आत्मशुद्धि हेतु प्रतिक्रमण नित्य आवश्यक अन्यथा संथारा कल्पना मात्र । (६) परिग्रह उपकरण बने, अधिकरण नहीं। (७) अप्रमत्त रह कर ही धर्माचरण सम्भव । (८) वीतरागता प्राप्त करने के लिये जीवन में पैठी हुई कुटेवों को बदलना
आवश्यक । साथ ही अंधविश्वासों से ऊपर उठना भी आवश्यक है । (प्रार्थना प्रवचन, पृ०७३)।
Jain Educationa international
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org