Book Title: Jinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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व्यक्तित्व एवं कृतित्व
और श्रद्धा को सुरक्षित रखने के लिए हिंसादिक कार्यों से दूर रहना चाहिये श्रौर आत्म-निरीक्षण करना चाहिये । ( जिनवाणी, फरवरी, ८४) ।
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धर्म का स्वरूप - प्राचार्य श्री ने धर्म को मांगलिक एवं उत्कृष्ट माना है - " धम्मो मंगल मुक्कट्ठ" " और यह धर्म है अहिंसा, संयम और तप । किसी भी प्राणी को किसी भी तरह न सताना ही अहिंसा है - 'सब्बे पाणा, सब्बे भूया, सब्बे जीवा, सब्बे सत्ता न हंतब्वा' ( आचारांग ) । इस अहिंसा का पालन संयम ही हो सकता है । रेशम, कुरुम, चमड़ा श्रादि हिंसा जन्य हैं अत: इनका उपयोग नहीं करना चाहिए । ( जिन, सितम्बर, ८१ ) । धर्म के स्वरूप का वर्णन करने के पूर्व प्राचार्य श्री ने विनय पर चिंतन किया और उसे ज्ञान-दर्शनचारित्र का आधारभूत तत्त्व बताया । ऐसा लगता है कि उनकी दृष्टि में विनय धर्म का एक अपरिहार्य अंग है । यह ठीक भी है। पंच परमेष्ठियों को हमारा नमन हमारी विनय का प्रतीक है । उनकी दृष्टि में धर्म की दूसरी विशेषता है समदृष्टित्व, जिसके अन्तर्गत उन्होंने निश्छल हृदय से अपनी भूल की स्वीकृति, मर्यादा, मधुकरी वृत्ति द्वारा यथोचित आदान-प्रदान को रखा है (जिन. जुलाई, ८३) । आचार्य श्री मर्यादा पर अधिक ध्यान देते थे । इसलिए धर्म पर विचार करते समय उन्होंने मर्यादा को अधिक स्पष्ट किया । उन्होंने कहा कि शक्ति के अनुसार हमारी क्रिया हो, पर प्राचरण प्रामाणिक हो ( जिन, अप्रेल, ८२ ) । यह धर्म इहभब और परभव में कल्याणकारी होता है । वह पैसे से नहीं खरीदा जा सकता । क्रोध से निवृत्ति पैसे से नहीं हो सकती । धर्म कभी किसी को दुःख नहीं देता । दुःख का अन्त धर्म से होता है, मृत्यु से नहीं । धर्म नहीं तो कुछ नहीं ( जिन. जुलाई, ८५ ) ।
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धर्मों की तीन श्रेणियाँ हैं - सम्यष्टि, देशव्रती और सर्वव्रती । इनमें सबसे मुख्य बात है आचरण में कदम रखना । सदाचरण को प्राचरण में लाने के दो रास्ते हैं - बुराई के अपथ्य को छोड़ देना और पथ्य को ग्रहण करना । आत्म-शान्ति के लिए धर्माचरण आवश्यक है । धर्माचरण के लिए कामनाओं का शांत होना आवश्यक है । दृढ़ता के बिना तपस्या हो ही नहीं सकती । उसमें न मत्सर होता है और न मन का कच्चापन । सेवा ही वस्तुतः सही तप है । सेवा ही धर्म है । धर्म वह है जो आत्मा को पतन से रोके । कुसंगति पतन का कारण है (जिनवाणी, जनवरी, ८२ ) ।
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मन के नियमन की बात करते हुए प्राचार्य श्री ने धर्म - साधना की बात कही है और उसे लोक-साधना से जोड़ दिया है। लोक-साधना भौतिकवादी प्रवृत्ति है पर उसका नियमन धर्म से होना चाहिए । आंतरिक परिष्कार के विना कोई भी साधना सफल नहीं हो सकती । श्रेणिक की साधना को लोक साधना
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