Book Title: Jinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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श्रात्मशुचि के उपाय - सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के परिपालन से आत्मा पवित्रता की ओर बढ़ती है । ऐसी पवित्रता की ओर बढ़ने के लिए पर्युषरण जैसे आध्यात्मिक पर्व अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होते हैं । प्राचार्य श्री इस पर्व पर यथासमय प्रवचन करते रहे हैं और तप त्यागादि के स्वरूप पर चिंतन करते रहे हैं। उनकी दृष्टि में तपश्चरण का सार है - कषाय- विजय और कषायविजय मानवता की निशानी है (जिन, अगस्त, ८० ) । अहिंसा और क्षमा सभी समस्याओं के समाधान के लिए अमोघ अस्त्र हैं । खमत - खामणा पर्व भी व्यक्तिगत विद्वेष की शांति के लिए मनाया जाता है (जिन, अगस्त, ८६ ) ।
व्यक्तित्व एवं कृतित्व
पर्युषण पर्व में तपोसाधना की जाती है । यह तप हिंसा नहीं, दया है, व्रतों की आराधना करने का उत्तम साधन है । तप ज्वाला भी है और दिव्य ज्योति भी । वह आत्मा के शत्रुओं-काम-क्रोधादि वृत्तियों को तपाता है । शरीर
प्रति ममत्व न रखने और अनासक्ति भाव होने से यह तप कर्मों की निर्जरा करने वाला होता है ( जिन, अक्टूबर, ८० ) । अकेला ज्ञान कार्यकारी नहीं होता, उसके साथ दर्शन और चारित्र भी होना चाहिए। यह तपस्या प्रदर्शन का मुद्दा न वने बल्कि आत्म-विशुद्धि और मोक्ष का साधक बनना चाहिए ।
दान आत्म- पवित्रता के साथ दिया जाना चाहिए। ऐसा दान स्व-पर कल्याणक होता है इसलिए वह गृहस्थ धर्म का प्रमुख अंग है जिसे आचार्य श्री ने द्रमक का उदाहरण देकर समझाया है । दान से ही वस्तुतः परिग्रह - त्याग की भावना की सार्थकता है । त्याग निरपेक्ष होता है पर दान में प्रतिलाभ की भावना सन्निहित होती है (जिन, मई, ८१ ) । त्याग ममत्वहीनता से पलता है, ममता- विसर्जन से पुष्पित होता है । इसके लिए वे ज्ञान-सरोवर में डुबकी लगाने के पक्ष में रहे हैं जिसे उन्होंने 'स्वाध्याय' की संज्ञा दी थी । प्रार्थना और भावभक्ति को आत्म-शोधन का मार्ग बताकर वे आत्म शुद्धि को और भी पुष्ट करने के पक्षधर थे (जिन., सितम्बर, ७४, दि. ८० ) ।
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भाषा-शैली - श्राचार्य श्री की भाषा संस्कृतनिष्ठ न होकर जन-साधारण के समझने लायक थी। उनकी भाषा में उर्दू शब्दों का भी प्रयोग मिलता है, पर अधिक नहीं । व्यास शैली में दिये गये उनके प्रवचनों में बड़ी प्रभावकता दिखाई देती है । आचारांग, सूत्रकृतांग, दशवैकालिक, ठाणांग आदि आगमों से उद्धरण देकर अपनी बात को कहने में वे सिद्धहस्त रहे हैं । भृगु पुरोहित, आनंद, अनाथीमुनि, भर्तृहरि, हरिकेशी, श्रेणिक, राजा वेणु, सुदर्शन आदि की कथाओं का उद्धरण देकर प्रवचन को सरस और सरल बना देते थे । 'ठकुर सुहाती', 'भाई का माना भाई', 'पठितव्यं तो भी मर्तव्यं, न हि पठितव्यं तो भी मर्तव्यं, तहिं वृथा दंद खटाखट किं कर्तव्यं' (जिन, अगस्त, ८७), 'भावी बिलाड़े का पट्टा
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