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________________ · १४२ • श्रात्मशुचि के उपाय - सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के परिपालन से आत्मा पवित्रता की ओर बढ़ती है । ऐसी पवित्रता की ओर बढ़ने के लिए पर्युषरण जैसे आध्यात्मिक पर्व अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होते हैं । प्राचार्य श्री इस पर्व पर यथासमय प्रवचन करते रहे हैं और तप त्यागादि के स्वरूप पर चिंतन करते रहे हैं। उनकी दृष्टि में तपश्चरण का सार है - कषाय- विजय और कषायविजय मानवता की निशानी है (जिन, अगस्त, ८० ) । अहिंसा और क्षमा सभी समस्याओं के समाधान के लिए अमोघ अस्त्र हैं । खमत - खामणा पर्व भी व्यक्तिगत विद्वेष की शांति के लिए मनाया जाता है (जिन, अगस्त, ८६ ) । व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर्युषण पर्व में तपोसाधना की जाती है । यह तप हिंसा नहीं, दया है, व्रतों की आराधना करने का उत्तम साधन है । तप ज्वाला भी है और दिव्य ज्योति भी । वह आत्मा के शत्रुओं-काम-क्रोधादि वृत्तियों को तपाता है । शरीर प्रति ममत्व न रखने और अनासक्ति भाव होने से यह तप कर्मों की निर्जरा करने वाला होता है ( जिन, अक्टूबर, ८० ) । अकेला ज्ञान कार्यकारी नहीं होता, उसके साथ दर्शन और चारित्र भी होना चाहिए। यह तपस्या प्रदर्शन का मुद्दा न वने बल्कि आत्म-विशुद्धि और मोक्ष का साधक बनना चाहिए । दान आत्म- पवित्रता के साथ दिया जाना चाहिए। ऐसा दान स्व-पर कल्याणक होता है इसलिए वह गृहस्थ धर्म का प्रमुख अंग है जिसे आचार्य श्री ने द्रमक का उदाहरण देकर समझाया है । दान से ही वस्तुतः परिग्रह - त्याग की भावना की सार्थकता है । त्याग निरपेक्ष होता है पर दान में प्रतिलाभ की भावना सन्निहित होती है (जिन, मई, ८१ ) । त्याग ममत्वहीनता से पलता है, ममता- विसर्जन से पुष्पित होता है । इसके लिए वे ज्ञान-सरोवर में डुबकी लगाने के पक्ष में रहे हैं जिसे उन्होंने 'स्वाध्याय' की संज्ञा दी थी । प्रार्थना और भावभक्ति को आत्म-शोधन का मार्ग बताकर वे आत्म शुद्धि को और भी पुष्ट करने के पक्षधर थे (जिन., सितम्बर, ७४, दि. ८० ) । Jain Educationa International भाषा-शैली - श्राचार्य श्री की भाषा संस्कृतनिष्ठ न होकर जन-साधारण के समझने लायक थी। उनकी भाषा में उर्दू शब्दों का भी प्रयोग मिलता है, पर अधिक नहीं । व्यास शैली में दिये गये उनके प्रवचनों में बड़ी प्रभावकता दिखाई देती है । आचारांग, सूत्रकृतांग, दशवैकालिक, ठाणांग आदि आगमों से उद्धरण देकर अपनी बात को कहने में वे सिद्धहस्त रहे हैं । भृगु पुरोहित, आनंद, अनाथीमुनि, भर्तृहरि, हरिकेशी, श्रेणिक, राजा वेणु, सुदर्शन आदि की कथाओं का उद्धरण देकर प्रवचन को सरस और सरल बना देते थे । 'ठकुर सुहाती', 'भाई का माना भाई', 'पठितव्यं तो भी मर्तव्यं, न हि पठितव्यं तो भी मर्तव्यं, तहिं वृथा दंद खटाखट किं कर्तव्यं' (जिन, अगस्त, ८७), 'भावी बिलाड़े का पट्टा For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003843
Book TitleJinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1992
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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