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________________ • प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. • १४१ में लाभ के रूप में पाँच कारण दिये हैं-ज्ञान-वद्धि, दर्शन-विशुद्धि, चारित्रविशुद्धि, कषाय-विशुद्धि तथा पदार्थ ज्ञान (जिन. सितम्बर, ८७) । 'भगवती सूत्र' (२५.७) और 'औपपातिक' में स्वाध्याय के ५ भेद बताये हैं-वाचना, प्रतिपृच्छा, अनुप्रेक्षा, परिवर्तना और धर्मकथा । प्राचार्य जी के सान्निध्य में स्वाध्याय शिक्षण का मनोहारी कार्यक्रम चलता रहा है । इस शिक्षण में विचार-गोष्ठी, प्रश्नोत्तर, कविता पाठ, स्तुति पाठ, विचार-विनिमय, स्वाध्याय, ध्यान, चिंतन, मनन आदि कार्यक्रम रखे जाते थे। इससे अध्येताओं और स्वाध्याय-प्रेमियों के लिए उसमें अभिरुचि जाग्रत हो जाती थी। इस सन्दर्भ में रायचूर में हिन्दी और जैन संस्कृति के विशेषज्ञ तथा कर्मठ कार्यकर्ता डॉ० नरेन्द्र भानावत के कुशल संयोजन में एक त्रिदिवसीय 'स्वाध्याय संगोष्ठी का आयोजन भी किया गया था जिसमें स्वाध्याय के विविध प्रआयामों पर विचार-विमर्श हुअा (जिन., नवम्बर, ८१)। अशांति का मूल क्रोध-लोभादि विकारी भाव हैं। विशाखभूति और विश्वभूति का उदाहरण हमारे सामने है । इनसे मुक्त होने के लिए आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रायश्चित्त जैसे साधन स्वाध्याय के साथ बहुत उपयोगी होते हैं और फिर सामायिक तो विशेष रूप से कषाय-भावों पर नियन्त्रण प्रस्थापित करने का अमोघ साधन है । 'भावी-विलोड़े का पट्टा आसानी से नहीं मिलता' वाली कहावत उसके साथ जुड़ी हुई है। बिना पुरुषार्थ के वह सम्भव नहीं होता (जिनवाणी, जनवरी, ८३) । आत्म स्नान ही प्रतिक्रमण है। __ज्ञान और सदाचरण-आत्म चिंतन और स्वाध्याय से मुमुक्षु भाव जाग्रत होता है, सम्यग्ज्ञान प्रकट होता है, पुरुषार्थ में प्रवृत्ति होती है, वृद्धमति के समान जड़मति भी अग्रगण्य बन जाता है। इसलिए प्राचार्य श्री ने कहा कि हमें शस्त्रधारी नहीं, शास्त्रधारी सैनिक बनना चाहिए जिससे स्व-पर का भेदविज्ञान हो जाये और आत्म-नियन्त्रण पूर्वक स्वतन्त्रता प्राप्त कर सकें । तभी परिज्ञा की उपलब्धि हो सकती है, संयम की सही साधना हो सकती है (जिन., अगस्त, ८२) । सम्यग्ज्ञान मुक्ति का सोपान है (बुज्झिज्ज त्ति उट्ठिज्जा, बंधणं परिजाणिया, सूय. प्रथम गाथा) । उसके साथ सम्यविक्रया शाश्वत सुख देने वाली होती है । ज्ञान शून्य चरित्र भव-भ्रमण का कारण है, असंयम का जनक है । भवम्रमण को दूर करने के लिए शारीरिक शक्ति की नहीं, आत्मशक्ति और शील की आवश्यकता होती है (जिन., अक्टूवर, ८३) । आत्मिक शक्ति बिना आहारशुद्धि प्राप्त नहीं हो सकती (आहार मिच्छं मियमेसजिज्जे, उत्तरा. ३२.४) । आहार शुद्धि ही जीवन शुद्धि हैं । उससे ज्ञान और क्रिया की ज्योति जगती है जो व्यक्तित्व के सही आभूषण हैं, (जिन., मार्च, ८६), मोक्षमार्ग के दो चरण हैं । (गजेन्द्र. भाग ६, पृ. १०) । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003843
Book TitleJinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1992
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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