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• व्यक्तित्व एवं कृतित्व
स्वाध्याय-कर्मादान की चर्चा करते हुए प्राचार्य श्री ने कहा कि मनुष्य जन्म पाकर भी यदि अभी कुछ नहीं किया तो कव करोगे ? (जिन. दिसम्बर, ८६)। मनुष्य अपने जीवन में चाहे जैसा काम करे, किन्तु यदि वह अपना अन्त समय सम्भाल लेता है तो सब कुछ सम्भल जाता है । चिलाती पुत्र की कथा का उदाहरण देकर उन्होंने अपने कथ्य को स्पष्ट किया। इसके लिए प्राचार्य श्री ने विशेष रूप से दो उपाय बताये-प्रथम प्रवृत्ति विवेकपूर्ण हो और द्वितीय स्वाध्याय-प्रवृत्ति हो । 'जयं चरे जयं चिट्ठ' का उद्घोष करके उन्होंने निष्काम सेवा पर अधिक बल दिया और ज्ञान-क्रिया पूर्वक साधना को सुख-शान्ति और आनन्द-प्राप्ति का उपाय बताया।
पर्यषण के षष्ठ दिवस को 'स्वाध्याय दिवस' मनाये जाने की संकल्पना के साथ प्राचार्य श्री ने 'अन्तगड सूत्र' का उदाहरण देकर सर्वप्रथम तो यह कहा कि जैन धर्म वर्ण, जाति आदि जैसी सीमाओं को बिल्कुल नहीं मानता । जो भी जिन-प्रभु को भजे, वही जैन है । तप, भक्ति, आचरण सभी साधनाओं का मूल आधार स्थल उन्होंने स्वाध्याय को माना । चूंकि वे आगम-परम्परा पर अधिक बल देते थे, इसलिए स्वाध्याय की परिभाषा “सुयधम्मो सज्झायो” (स्थानांग सूत्र) के रूप में स्वीकार की। यह स्वाध्याय धर्म का एक प्रकार है जिसमें स्वयं का अध्ययन और आत्म-निरीक्षण करना (स्वस्य अध्ययन स्वाध्याय) तथा साथ ही सद्ग्रन्थों का समीचीन रूप से पठन-पाठन करना । समीचीन का तात्पर्य है जिस ग्रंथ को पढ़ने से तप, क्षमा और अहिंसा की ज्योति जगे । 'दशवैकालिक' में ऐसे स्वाध्याय को समाधि की संज्ञा दी गई है। इसके चार लाभ हैं-सूत्र का ज्ञान, चित्त की एकाग्रता, धर्मध्यान तथा संत-समागम का लाभ (जिन. फरवरी, ८१) जिससे ग्रंथि भेद करने में सहायता मिलती है। इसे प्राचार्य श्री ने दैनिक क्रिया का अंग तथा समाज धर्म बनाने की प्रेरणा दी। इससे व्यक्ति या साधक का सर्वतोमुखी विकास हो सकेगा।
'स्वाध्याय' स्व-पर बोधक की एक महत्त्वपूर्ण क्रिया है। केवलज्ञान के बाद श्रुतज्ञान का क्रम आता है जो स्वाध्याय का आलम्बन है, चारित्र का मार्गदर्शक है और षडावश्यकों को पालने के लिए सोपान है (जिन. जून, ८२)। इसे आचार्य श्री ने जीवन-निर्माण की कला के रूप में प्रस्तुत किया है जिसमें विषमतायें विराम ले लेती हैं, आहार शुद्धि को आधार मिलता है, भ्रातृत्व भावना पनपती है, अनुशासन बढ़ता है। इसलिए उन्होंने इसका प्रशिक्षण देने की पेशकश की जिससे सामायिक, प्रतिक्रमण और शास्त्रीय स्वाध्याय की परम्परा को विकसित किया जा सके । 'स्थानांग सूत्र' के आधार पर उन्होंने पुनः स्वाध्याय के पाँच लाभ बताये-ज्ञान-संग्रह, परोपकार, कर्मनिर्जरा, शास्त्रीय ज्ञान की निर्मलता और शास्त्र-संरक्षण (जिनवाणी, अगस्त, ८७) । 'ठाणांग'
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