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• प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
इस संशोधित 'नन्दी सूत्र' संस्करण के अनेक परिशिष्ट हैं । प्रथम परिशिष्ट पारिभाषिक एवं विशिष्ट शब्दों की व्याख्या पर है । द्वितीय परिशिष्ट में 'समवायांग सूत्र' में वर्णित द्वादशांगों का परिचय है । तृतीय परिशिष्ट 'नन्दी सूत्र' के साथ शास्त्रान्तरों के पाठों की समानता पर है । चौथा परिशिष्ट श्वेताम्बर एवं दिगम्बर सम्प्रदायों की दृष्टि से ज्ञान की प्ररूपणा का निरूपण करता है तथा अन्तिम परिशिष्ट में 'नन्दी सूत्र' में प्रयुक्त शब्दों का कोश दिया गया है।
सूत्र के प्रकाशन-कार्य को साधु की दृष्टि से सदोष मान कर भी प्राचार्य प्रवर ने तीन उद्देश्यों से इस कार्य में सहभागिता स्वीकार की। स्वयं प्राचार्य श्री के शब्दों में-"पुस्तक मुद्रण के कार्य में स्थानान्तर से ग्रन्थ-संग्रह, सम्म्त्य र्थ पत्र-प्रेषण, प्रूफ-संशोधन व सम्मति प्रदान करना आदि कार्य करने या कराने पड़ते हैं। इस बात को जानते हुए भी मैंने जो आगम-सेवा के लिए उस अंशत: सदोष कार्य को अपवाद रूप से किया, इसका उद्देश्य निम्न प्रकार है
१. साधुमार्गीय समाज में विशिष्टतर साहित्य का निर्माण हो ।
२. मूल आगमों के अन्वेषणपूर्ण शुद्ध संस्करण की पूर्ति हो और समाज को अन्य विद्वान् मुनिवर भी इस दिशा में आगे लावें।
३. सूत्रार्थ का शुद्ध पाठ पढ़कर जनता ज्ञानातिचार से बचे।
इन तीनों में से यदि एक भी उद्देश्य पूर्ण हुया तो मैं अपने दोषों का प्रायश्चित्त पूर्ण हुआ समझूगा ।"
प्राचार्य प्रवर कृत यह उल्लेख उनकी प्रागम-ज्ञान-प्रसार निष्ठा को उजागर करता है। बृहत्कल्प सूत्र :
'श्री बृहत्कल्प सूत्र' पर प्राचार्य प्रवर ने एक अज्ञात संस्कृत टीका का संशोधन एवं सम्पादन किया था जो प्राक्कथन एवं बृहत्कल्प-परिचय के साथ पांच परिशिष्टों से भी अलंकृत है। इस सत्र का प्रकाशन सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल के पुरातन कार्यालय त्रिपोलिया बाजार, जोधपुर द्वारा कब कराया गया, इसका ग्रन्थ पर कहीं निर्देश नहीं है किन्तु यह सुनिश्चित है कि इस सूत्र का प्रकाशन 'प्रश्न व्याकरण' को व्याख्या के पूर्व अर्थात् सन् १९५० ई० के पूर्व हो चुका था।
आचार्य प्रवर हस्ती को 'बृहत्कल्प' की यह संस्कृत टीका अजमेर के सुश्रावक श्री सौभाग्यमलजी ढढ्ढा के ज्ञान-भण्डार से प्राप्त हुई जो संरक्षण के अभाव में बड़ी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में थी। प्राचार्य प्रवर जब दक्षिण की
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