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• प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
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मार्ग-दर्शन में पं० शशिकान्त झा ने यह कार्य प्राचार्य श्री की सन्निधि में बैठकर सम्पन्न किया । स्वयं प्राचार्य प्रवर ने हिन्दी पद्यानुवाद किया था, ऐसे संकेत भी मिलते हैं किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि उन्होंने इन दोनों आगमों के हिन्दी पद्यानुवाद में अपनी लेखनी से संशोधन, परिवर्धन एवं परिवर्तन किया था। फिर भी प्राचार्य प्रवर श्रेय लेने की स्पृहा से दूर रहे और हिन्दी पद्यानुवाद-कर्ता के रूप में दोनों ग्रंथों पर पं० शशिकान्त झा का नाम छपा।
_ 'उत्तराध्ययन सूत्र' तीन भागों में सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर द्वारा प्रकाशित हुआ है । प्रथम भाग में १ से १० अध्ययनों, द्वितीय भाग में ११ से २३ अध्ययनों तथा तृतीय भाग में २४ से ३६ अध्ययनों का विवेचन है । ये तीनों भाग श्रीचन्द सुराना 'सरस' के सम्पादकत्व में क्रमशः सन् १९८३ ई०, सन् १९८५ ई० एवं सन् १९८६ ई० में प्रकाशित हुए । तीनों भागों के प्रारम्भ में सम्पादक की ओर से बृहद् प्रस्तावना है । प्रत्येक अध्ययन के प्रारम्भ में उस अध्ययन का सार दिया गया है जिससे पाठक पाठ्य विषय के प्रति पहले से जिज्ञासु एवं जागरूक हो जाता है । वह अध्ययन भी इस कारण सुगम बन जाता है । प्रथम भाग में मूल प्राकृत गाथा का हिन्दी पद्यानुवाद, अन्वयार्थ, भावार्थ एवं विवेचन देने के साथ प्रत्येक अध्ययन के अन्त में कथापरिशिष्ट दिया गया है, जिसमें उस अध्ययन से सम्बद्ध कथाओं का रोचक प्रस्तुतीकरण है।
प्राकृत-गाथाओं की संस्कृत छाया भी साथ में प्रस्तुत हो, इस पर प्राचार्य प्रवर का विद्वद् समाज की दृष्टि से ध्यान गया। विद्वत् समुदाय संस्कृत छाया के माध्यम से प्राकृत गाथाओं के वास्तविक अर्थ को सरलता पूर्वक ग्रहण कर लेता है । अतः 'उत्तराध्ययन सूत्र' के द्वितीय एवं तृतीय भाग में २१ से ३६ अध्ययनों की प्राकृत गाथाओं की संस्कृत छाया भी दी गई है।
... हिन्दी-पद्यानुवाद में यह विशेषता है कि जहां जो हिन्दी शब्द उपयुक्त हो सकता है वहां वह शब्द प्रयुक्त किया गया है । पद्यानुवाद सहज, सुगम, सरल एवं लययुक्त है। मात्र हिन्दी पद्यानुवाद को पढ़कर भी कोई स्वाध्यायी पाठक सम्पूर्ण ग्रंथ के हार्द को समझ सकता है। पद्यानुवाद के अतिरिक्त मूल गाथाओं में विद्यमान क्लिष्ट शब्दों का विवेचन, विश्लेषण एवं विशिष्टार्थ भी किया गया है । इस हेतु श्री शान्त्याचार्य कृत वृहद्वत्ति एवं प्राचार्य नेमिचन्द्र कृत चूणि का अवलम्बन लिया गया है । विवेचन में प्राचीन टीका-ग्रथों के साथ आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज कृत 'उत्तराध्ययन'
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