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• व्यक्तित्व एवं कृतित्व
किया, वह निश्चित ही जीवों के लिए ज्ञान, क्रिया, चरित्र, तप, ध्यान, स्वाध्याय एवं सामायिक आदि पर चिन्तन करने की प्रेरणा देता है । उनके व्याख्यानों के कुछ सूत्र इस प्रकार हैं :
१. चातुर्मास-दोष परिमार्जन करने का साधन है । पालोचना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान आवश्यक क्रियाएँ हैं। आलोचना में दोषों का स्मरण, प्रतिक्रमण में भूलों या गलतियों का स्वीकार करना, गलती को कबूल कर पुनः उसे नहीं दुहराना । इत्यादि (ग. व्या. भाग ६, पृ. ८-१२) उक्त के भेद-प्रभेद आगम के सूत्रों के आधार पर ही प्रस्तुत किये हैं
खवेत्ता पुव्व-कम्माइं संजमेण तवेण य । २. मोक्ष के दो चरण-(१) ज्ञान और (२) क्रिया
नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्दहे।
चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेणं परिसुज्जई ।। (उ. २८/३५) ३. बंधन-मुक्ति-ज्ञान वह है जो हमारे बन्धन को काटे । (ग.६, पृ.३२)
४. विनय-ज्ञान, दर्शन और चारित्र का कारण है। (पृ. ४०) विनय में विनय के सात भेद गिनाएँ हैं । विनय करने योग्य अरहंतादि हैं।
५. धर्म--कामना की पूर्ति का साधन अर्थ है और मोक्ष की पूर्ति का साधन धर्म है । 'दशवैकालिक' सूत्र के “धम्मो मंगलमुक्किट्ठ" का आधार बनाकर धर्म की व्याख्या की है । (ग. ६, पृ. ५६-११६)
६. जयं चरे, जयं चिट्ठ-प्राचार, बिचार एवं आहार की विशुद्धता है।
७. प्रात्मिक प्रावश्यक कर्म-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीतराग धर्म की आराधना, अहिंसा की साधना, दान, संयम आदि (पृ. १३४-१४७)
___८. प्रात्म-शान्ति के लिए धर्माचरण-कामना का क्षेत्र तन है, कामनाओं का उपशम धर्म से करें।
६. त्यागी कौन ? दीक्षा भी त्याग, संत-समागम भी त्याग, वैयावृत्य भी त्याग, इच्छाओं का निरोध भी त्याग।
१०. संस्कारों का जीवन पर प्रभाव११. किमाह-बंधणं वीरो (ग. भाग ३. पृ. ८) १२. परिग्रह कैसा ? सचित्त और अचित्त (पृ. २०)
मुच्छा परिग्गहो वुत्तो (पृ. १४)
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