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प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
१. श्री कुशल पूज्य का कीजे जाप, मिट जावे सब शोक संताप |
२.
जय बोलो रत्न मुनिश्वर की, धन कुशल वंश के पट्टधर की । ३. सुमरो शोभाचन्द मुनीन्द्र, भो जिन धर्म दीपाने वाले ।
२. उपदेश काव्य – जैन संतों का मुख्य लक्ष्य आत्म-कल्याण के साथसाथ लोक-कल्याण की प्रेरणा देना है । व्यक्ति का जीवन शुद्ध, सात्विक, प्रामाणिक और नैतिक बने तथा समाज में समता, भाईचारा, शांति एवं परस्पर सहयोग - सहिष्णुता की वृद्धि हो, इस उद्द ेश्य से जैन संत ग्रामानुग्राम पद - विहार करते हुए लोक हितार्थ उपदेश / प्रवचन देते हैं । उनका उपदेश शास्त्रीय ज्ञान एवं लोक अनुभव से संपृक्त रहता है । अपने उपदेश को जनता के हृदय तक संप्रेषित करने के लिए वे उसे सहज-सरल और सरस बनाकर प्रस्तुत करते हैं । यही नहीं शास्त्रीय ज्ञान को भावप्रवण और हृदय-संवेद्य बनाने के लिए वे काव्य और संगीत का सहारा लेते हैं । इसी उद्देश्य से जैन संतकाव्य की सृष्टि अविच्छिन्न रूप से आज तक होती चली आ रही है । आचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. के उपदेशात्मक काव्य की भी यही भावभूमि है ।
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आचार्य श्री के उपदेश - काव्य के तीन पक्ष हैं - १. आत्म-बोध, २ . समाजबोध और ३. पर्व-बोध । ये बोधत्रय प्राध्यात्मिकता से जुड़े हुए हैं । प्राचार्य श्री सुषुप्त आत्म-शक्ति को जागृत करने के लिए सतत साधना और साहित्य सृजनरत रहे । मानव-जीवन की दुर्लभता को दृष्टि में रखकर आपने बार-बार आत्म-स्वरूप को समझने और पहचानने की जनमानस को प्रेरणा दी है
समझो चेतन जीव अपना रूप, यो अवसर मत हारो,
ज्ञान दरसमय रूप तिहारो, अस्थि मांसमय देह न थारो । दूर करो ज्ञान, होवे घट उजियारो ||
आचार्य श्री ने चेतना के ऊर्ध्वकरण पर बल देते हुए कहा है कि शरीर और आत्मा भिन्न हैं । शरीर के विभिन्न अंग और आँख, नाक, कान, जीभ आदि दिखाई देने वाली इन्द्रियाँ क्षणिक हैं, नश्वर हैं। पर इन्हें संचालित करने वाला जो शक्ति तत्त्व है, वह अजर-अमर है
हाथ, पैर नहीं, सिर भी न तुम हो, गर्दन, भुजा, उदर नहीं तुम हो । नेत्रादिक इन्द्रिय नहीं तुम हो, पर सबके संचालक तुम हो । पृथ्वी, जल, अग्नि, नहीं तुम हो, गगन, अनिल में भी नहीं तुम हो । मन, वाणी, बुद्धि नहीं तुम हो, पर सबके संयोजक तुम हो ।
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