Book Title: Jinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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• ३४
• व्यक्तित्व एवं कृतित्व
का धन से या रिवाज से कोई वास्ता नहीं है। धर्म तो भावना से जुड़ा है, कई गरीब केवल इसलिए धर्म साधना से वंचित रह जाते हैं कि उनके पास 'रिवाज' पूर्ति की व्यवस्था नहीं होती या उस हेतु बजट नहीं होता। इस तरह हम धर्म को 'रिवाज' से बांधकर, एक प्रकार की कुसेवा ही करते हैं। अतः धर्म साधना से 'रिवाज' को मत जोड़ो-यह बात महाराज साहब ने काफी भारपूर्वक कही, जो मुझे अन्यत्र सुनने को नहीं मिली।
दूसरी बात वे उस श्रावक को, भाविक को यह भी पूछते थे कि व्यवसाय के सिवाय भी कोई काम करते हो? उनका मतलब होता सेवा से । वे उन्हें इस हेतु प्रेरणा भी देते-देखो! मनुष्य तो अपनी जरूरत किसी न किसी रूप में पूरी कर लेगा । मनुष्य अगर भूखा है, कष्ट में है तो अपनी वाणी द्वारा शोरशराबे या प्रचार द्वारा भी अपने लिए अपनी गुहार समाज या सरकार तक । पहुँचा देगा-परन्तु ऐसे जीव जो सृष्टि की, मनुष्य की सेवा करते हैं, उनके कष्ट तो वे मूकभाव से सहते रहते हैं, अत: उनकी सेवा के लिए कोई न कोई उद्यम/प्रयास करो।
मुझे याद है-मैं भी एक बार महाराज साहब के दर्शनों के लिए गया था तो किसी ने प्रशंसायुक्त शब्दों में वर्णन किया, 'बाबजी, हमने स्कूल बनाई है. हॉस्पिटल बनाया है, उसे लगा कि कोई शाबाशी मिलेगी-आचार्यश्री ने केवल इतना ही कहा-अच्छा किया है, मगर पशु-पक्षी के लिए भी तो कोई सेवा करो-इतना भीषण दुष्काल पड़ा है, जहाँ आदमी की फिकर में तो सभी लगे हैं, आदमी का वोट होता है, इसलिए उसकी परवाह होगी, मगर उनका क्या जो मूक हैं, जिनका वोट भी नहीं है । गाय, कबूतर आदि के लिए भी कोई सेवा शुरू करो। उनकी इस प्रेरणा को लेकर कइयों ने अपने-अपने ढंग से गऊशालाएँ, पक्षीविहार आदि का निर्माण किया, कराया। मतलब कि महाराज साहब ने केवल धर्मसाधना को ही मार्गदर्शन का विषय नहीं माना बल्कि ऐसी दूसरी उपेक्षित सेवाओं को भी अपना लक्ष्य बनाया।
तीसरी महत्त्वपूर्ण देन प्राचार्य श्री की थी 'स्वाध्याय' । मुझे अनेक महात्माओं के सम्पर्क में आने का सौभाग्य मिला, उनकी विद्वता ने भी प्रभावित किया, परन्तु उनका मार्गदर्शन या दिशाबोध या तो अपने पंथ-सम्प्रदाय की सेवा का होता या उसी के संपूरक किसो इमारत, मन्दिर, आश्रम या प्रवृत्ति के लिए होता। थोड़ी गहराई से देखें तो यह सब धर्म की स्थूलता का ही आकार है । परन्तु धर्म के सूक्ष्मभाव का दर्शन तो स्वाध्याय में ही निहित है। उन्होंने केवल स्वाध्याय का आग्रह किया। अगर कोई मेरे इस कथन को विवादास्पद नहीं माने तो यह कहते हुए भी संकोच नहीं होगा कि केवल 'स्वाध्याय' को ही
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