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जयन्त
[अंक १ वीर०-वह निकल गया-अब न बोलेगा ।
भीम०-क्यों ? विशालाक्ष, तुम्हारा चेहरा पीला क्यों पड़ गया ? और तुम कांप क्यों रहे हो ? यह तो निरा भ्रम ही था त ? या और भी कुछ है ? कहो, क्या सोच रहे हो ?
विशा०-प्रत्यक्ष ब्रह्माके कहनेपर भी बिना अपनी आँखो देखे ऐसी ऐसी बातोपर मैं कभी नहीं विश्वास करताः ।
वीर०-क्या वह महाराज जैसा नहीं था ?
विशा०-ठीक वैसा ही जैसे तुम तुम्हारे जैसे हो । हमारे महाराज शाकद्वीपके राजासे द्वन्द्व-युद्ध करते समय जो बख्तर पहिने हुए थे, वह बिलकुल ऐसा ही था । और उन्होंने एक बार गुस्सेमें आ कर जिस समय पोलोमके महारथियोंको काट धूलमें मिला दिया था उस समय भी उन्होंने ऐसीही डरावनी सूरत बना ली थी । आश्चर्य है !
वीर०-कल और परसों रातके ऐसे ही भयानक समय, जब हम लोग पहरा दे रहे थे, इसी तरह फौजी कदम उठाता हुआ वह हमारे पाससे निकल गया ।
वीशा०-समझमें नहीं आता कि यह क्या माजरा है ; पर मेरी मोटी बुद्धिसे यही जान पड़ता है कि हमारे राज्यपर कोई भयानक विपद आया चाहती है।
वीर०--आओ बैठो; और अगर कोई जानते हो तो मेरे प्रश्नका उत्तर दो। यह कैसा पहरा है जो देशकी प्रजाको इस रातमें कहीं फट. कने भी नहीं देता ? रोज़ रोज़ जो तोपें ढाली जा रही हैं और विदेशी जङ्गी सामानोंका बाजार गरम हो रहा है ; इसका क्या मतलब है ? कारीगरोंसे जबरदस्ती बेतातीलकी मिहनत ले इन जहाजोंके बनवानेकी
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