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जयन्त
[ अँक ३ और वे दोनों अभी आया ही चाहते हैं । जयन्त-तो फिर नाटकवालोंसे कह दीजिये कि जल्दी करें ।
(धूर्जटि जाता है।) (नय और विनयसे ) और ज़रा तुमलोग भी जाकर उन्हें जल्दी करो।
नय, विनय-जो आज्ञा । (नय और विनय जाते हैं । ) जयन्त-कौन ? विशालाक्ष ? ( विशालाक्ष प्रवेश करता है । ) विशा०-जी हाँ, महाराज ! वही है, आपका सेवक विशालाक्ष ।
जयन्त-विशालाक्ष ! सचमुच, तुम्हारे ऐसा सच्चा और ईमान्दार आदमी मैंने आजतक कहीं नहीं देखा ।
विशा०-महाराज ! इन बातोंमें क्या रक्खा है ?
जयन्त-तुम यह न समझना कि, मैं तुम्हारी झूठ मूठ ही प्रशंसा कर रहा हूँ। क्योंकि कोई बंधी आमदनी न रहनेपर भी नीतिसे अपना चरितार्थ चलानेवाले तुम्हारे ऐसे निर्धन मनुष्यकी प्रशंसा करके मेरा क्या लाभ होगा ? गरीब बिचारोंको पूछता ही कौन है ? हां, जो लोग चापलूसी करना जानते हैं उनकी अलबत्ता मूर्ख धनवानोंके यहां खूब चलती है । अमीरोंके घर चापलूसी करके टुकड़े तोडना चापलूसोंको ही सुखद हो । न मैं चापलूस हूँ और तुम धनवान हो; फिर भला मैं क्यों तुम्हारी चापलूसी करूंगा ? सुनते हो या नहीं ? मेरा मन मेरे अधीन है; और जबसे मैं भला बुरा पहिचानने लगा हूँ तभीसे तुम्हें प्यार. करता हूँ। क्योंकि तुम ऐसे पुरुष हो कि, तुमपर लाख विपत्तियाँ आनेपर भी तुम सुखपूर्वक और बड़ी गम्भीरतासे उनका सामना करते हो। और सच पूछे तो
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