Book Title: Jayant Balbhadra Desh ka Rajkumar
Author(s): Ganpati Krushna Gurjar
Publisher: Granth Prakashak Samiti

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Page 161
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १४२ www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त चन्द्रसेन- डब गई ? कहाँ कैसे ? राती० - मालेके किनारे जो बेतका पेड़ है वहाँ वह रंग बिरंगे फूलोंके गजरे लिये हुए गई; और नालेकी ओर झुकी हुई एक पेड़की डालीपर गजरा लटकानेके लिये चढ़ गई। उसके चढ़ने से मानों बुरा मानकर वह डाली तुरन्त ही टूट गई और उस बिचारीको लिये दिये उस नालेमें गिर पड़ी। उसके कपड़े पहिले तो गुब्बारे जैसे फूल उठे, जिसके सहारे कुछ देरतक वह पानीके ऊपर तैरती रही । ऐसी भयानक विपदके समय भी वह वही अपना पुराने घुमका गाना गाती थी । उसे अपने ऊपर आई हुई विपदका कुछभी ख्याल म या: - किसी जलचरके समान वह बेखटके तैरती थी; पर हाय ! जब उसके कपड़े भीगकर भारी हो गये तब उस बेचारीको बेवस हो अपना गाना बन्द करके पानी के तले में जाकर लेटना पड़ा । चन्द्र० - हा ! क्या वह सचमुच डूब गई ? रानी - ( रोनी सूरत बनाकर ) हाँ, डूब गई, डूब गई ! [ अंक चन्द्र · - प्यारी बहिन ! असहाय कमला ! तूने एकदम बहुतसा पानी ले लिया इसलिये अब मैं आँखोंसे एक भी आँसू न निकालूँगा ! पर, हाय ! बिना रोए मुझसे रहा नहीं जाता। कहते हैं, रोना पुरुषों के लिये शरमकी बात है; कहने दो, मैं उसकी पर्वाह नहीं करता । जय मैं अपनी आखों से एक बार मनभर आँसू निकाल डालूँगा, तब बस, मेरा एक ही काम रह जायगा --बदला | महाराज ! जाता हूँ, प्रणाम । आह ! इस समय मेरे कलेनेमें बदले की आग खूब धधक रही है; पर इन आँसुओंसे कहीं वह बुश न जाय । ( जाता है ) रा०-विषये ! चलो, हम लोग भी उसके पीछे पीछे चलें । For Private And Personal Use Only

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