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जयन्त
[अंक ५ हा ! अब बुढ़ापा आगया वह बात भाती है नहीं। . वा इस दशामें प्रेमकी बातें सुहाती हैं नहीं ॥
जयन्त-क्यों विशालाक्ष ! यह कैसा आदमी है ? कब्र खोदनेके समय भी इसे गाना सूझ रहा है ! अपने कामपर इसे बिल्कुल गम नहीं!
विशा.-अभ्याससे ऐसा हो जाता है । रोज रोज वही काम करनेसे मनुष्यकी प्रकृति भी उस कामके अनुकूल बन जाती है ।
जयन्त-ठीक है ; जिन्हें काम करनेका अभ्यास नहीं, उनके हाथोंपर बहुत जल्द फफोले पड़ते हैं ।
५०म०-( गाता है) वह बातें अब यों भूलती ज्यों प्रेम ही दरसा नहीं। वा प्रेममय बन प्रेमिकाके हेतु मैं तरसा नहीं ॥
(एक खोपड़ी ऊपर फेकता है) जयन्त-विशालाक्ष ! इस खोपड़ीमें किसी समय जीभ रही होगी; और वह गाती भी होगी ! इस दुष्टको उसे जमीनपर पटकनेमें कुछ भी संकोच न हुआ ! यह खोपड़ी किसी राजनीतिज्ञकी होगी, या किसी तत्वाविष्कारककी भी हो सकती है जो अब इस गदहे के पाले पड़ी है ! क्यों, नहीं ?
विशा०-क्यों नहीं हो सकती है।
जयन्त-या, किसी दरबारी पुरुषकी होगी; जो दरबारमें जाकर राजाको झुक झुक कर सलाम करता होगा और खूब चापलूसी भी करता होगा । और यह दरबारी पुरुष किसी दूसरे दरबारीका घोड़ा हड़पनेकी इच्छासे मुँहपर उसकी खूब तारीफ करता होगा । क्यों ?
विशा.–हाँ, महाराज, ठीक है ।
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