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जयन्त:
अंक.५ जयन्त-खूब अच्छी तरह जानता हूँ, महाराज। आपने कमजोर पक्षपर ही अधिक बोझ रक्खा है।
रा०-कोई चिन्ता नहीं; मैं तुम दोनोंका पटा देख चुका हूँ। पर सना है आजकल यह बहुत अच्छा पटा खेलता है; यही आजमाने के लिये मैंने ऐसा किया है।
चन्द्र०-ओफ ! यह तो बहुत भारी है, लाओ, दूसरी देखू ।
जयन्त-मेरे लिये यही ठीक है। क्या सब तलवारोंकी एक है। लम्बाई है ? (खेलनेके लिये दोनों खड़े हो जाते हैं)
हारीत--जी हाँ, महाराज ।
रा०-शर्बतके गिलास इस मेज़पर लगा दो । अगर जयन्तका पहिला या दूसरा वार खाली न गया, या चन्द्रसेनके किये हुए तीसरे वारसे वह बच गया तो फौरन् तोपोंकी आवाज़से उसका विजयघोष किया जाय । जयन्तके जीतनेसे चन्द्रसेनका हम लोगोंसे इतना घना सम्बन्ध हो जायगा जितना पिछले चार पुश्त में किसीसे न हुआ होगा। अच्छा, अब वाद्यों और तोपोंकी आवाज़से आकाश और पृथ्वीको गुँला हालो । अन खेल आरंभ कर दो । और तुम न्यायकांभो ! खूब सावधानीसे देखो।
जयन्त---( चन्द्रसेनसे ) अच्छा, आओ। चन्द्रसेन-आइये, महाराज । ( दोनों पटा खेलते हैं) जयन्त–एक । चन्द्र.--नहीं। जयन्त-न्याय । हारीत--हा, एक वार; वाह ! बहुत सफाईका. हाय था। चन्द्र०-अच्छा, फिर।
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