Book Title: Jayant Balbhadra Desh ka Rajkumar
Author(s): Ganpati Krushna Gurjar
Publisher: Granth Prakashak Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ।। ।। अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।। ।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।। ।। योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।। । चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।। आचार्य श्री कैलाससागरसूरिज्ञानमंदिर पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प ग्रंथांक :१ जैन आराधना न कन्द्र महावीर कोबा. ॥ अमर्त तु विद्या श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स : 23276249 Websiet : www.kobatirth.org Email : Kendra@kobatirth.org आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079)26582355 - - - For Private And Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir LES algoh Cr-4922 28-06 17 For Private And Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्ध-प्रकाशक समिति, प्राकल्या श) - - - - जयन्त बलभद्रदेशका राजकुमार। अथवा महाकवि शेक्सपियरकृत श्री लामहलरि ज्ञान मंदिर श्री महावीर जेन माराधना कन्द्र, कोषा . भाटकका अनुवाद । लेखक-गणपति कृष्ण गुर्जर। प्रकाशक-ग्रन्थ-प्रकाशक समिति, काशी। प्रथम संस्करण ] All rights reserved. [दिसम्बर १९१२. For Private And Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Printed by Sitaram Diukar Jatar Proprietor at the Shree Lakshmi Narayau Prees, Jatanbar Benares City, FOR G. K. Gurjar Secy, G. P. Samiti, Benares City. 175 Forel), $49-* PRICE 311) For Private And Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकाशकका निवेदन। ग्रन्थ-प्रकाशक समितिकी यह दूसरी पुस्तक है । पहिली पुस्तक • सरल गीता' और दूसरी यह । तीसरी तथा चौथी पुस्तकें भी छप चुकी हैं । उनमेंसे एकका नाम है ' महाराष्ट्र रहस्य ' और दूसरीका नाम ' महात्मा टालस्टायके तीन लेख '1' जयन्त ' तो पाठकोंके सामने ही है। वे स्वयं इस बातका निर्णय कर सकते हैं कि यह पुस्तक वास्तवमें उपयोगी है वा नहीं । हम नहीं चाहते कि इस पुस्तकके विषयमें यहाँ कुछ लिखकर अपने पाठकोंका समय नष्ट करें । रही बात दूसरी तीन पुस्तकोंकी; उनके विषय में संक्षिप्त, पर स्पष्ट सूचना हम नीचे दिये देते हैं। ___ हमें यह देख बड़ा आनन्द होता है-और साथ २ उत्साह भी बढ़ता है-कि हमारी समितिकी पुस्तकें प्रकाशित होनेसे पहिले ही उनके बहुतसे ग्राहक हो चुके हैं । पर खेदके साथ कहना पड़ता है कि हज़ार कोशिश करनेपर भी हम अपने ग्राहकों की सेवामें नियत समयपर पुस्तके न पहुंचा सके । इसका कारण 'पराधीनता' । समितिका कोई निजका प्रेस न रहनेसे हमें दूसरोंके प्रेसोंकी शरण लेनी पड़ी । पराधीनतामें अपना इच्छित कार्य साधन कर लेना कब सम्भव है ? अस्तु, अब हमने यह प्रण कर लिया है कि जबतक समितिके पास निजका प्रेस न होले तबतक हम ऐसी प्रतिज्ञा ही न करेंगे । ___इस नाटकमें कहीं कहीं छापेकी बड़ी भद्दी २ अशुद्धियाँ रह गई हैं । उदाहरणार्थ:--' मेरा ' की जगह ' मार ' छप गया है; हँसोड़पन की बातें' की जगह ' हँसोड़पर बातें'; 'चुभ ' और ' चन्द्रसेन ' की जगह 'चम' और 'चन्द्रसने' इत्यादि । एक दो अशुद्धियाँ ऐसी हैं जो For Private And Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याकरण की अशुद्धियाँ जान पड़ती हैं, पर वास्तवमें वे व्याकरणकी नहीं छापेकी ही हैं । उदाहरण:-तू पूछ रही हो। इस वाक्य में 'हो' की पाई निकाल देनेसे वाक्य शुद्ध है । यह प्रूफ़-रीडरकी भूल है । कई अशुद्धियाँ प्रेस-मैनकी असावधानीसे हो गई हैं । छापते समय स्याहीके रोलर के साथ २ पाई, मात्रा तथा अनुस्वार लिपट कर स्थान-भ्रष्ट हो गये हैं । ये सब अशुद्धियाँ इसी संस्करणमें शुद्ध करदेना तो असम्भव है; पर यदि हिन्दी-प्रेमियोंकी इस नाटकपर कृपा दृष्टि हुई तो निस्सन्देह इसके दूसरे संस्करणमें हमारे पाठक ऐसी भद्दी अशुद्धियाँ न देख सकेंगे। ___अब ऊपर लिखे अनुसार समितिकी प्रकाशित की हुई और और पुस्तकोंकी संक्षिप्त सूचना देकर हम अपना निवेदन समाप्त करेंगे । सरल गीता। इसके पांच भाग हैं, (१) प्रस्तावना, ( २ ) पूर्ववृत्तान्त, ( ३ ) सरल हिन्दी अनुवाद, ( ४ ) मूल श्लोक, और (५) उपसंहार । (१) वर्तमान समयमें 'गीता' का क्या उपयोग है ? किस प्रकार किस देशके लोग उससे लाभ उठा सकते हैं और भारतवर्षको इस समय गीतापाठकी क्या आवश्यकता है ? गीता पारलौकिक सुख देनेका वादा करती है या इहलोक भी बनानेकी उसमें सामर्थ्य है ? इत्यादि महत्वपूर्ण प्रश्नोपर प्रस्तावनामें विचार किया गया है। (२) पूर्व वृत्तान्तमें बहुत संक्षेपसे वह वृत्तान्त दिया गया है जो श्रीकृष्णमुखसे गीताकथन होनेके पूर्व हुआ है। For Private And Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ACH . (३) सरल हिन्दी अनुवाद पढ़कर मूल श्लोकोंका अर्थ भलीभांति समझमें आ जाता है। जहांतक संभव है । काठिन शब्दोंका प्रयोग नहीं किया गया है । स्थान स्थानपर टिप्पणियां देकर गीताका गूढ अर्थ समझानेकी चष्टा को गई है। (४) मूल श्लोक भी इसलिये छाप दिये हैं कि अमृतपूर्ण देववाणीका आस्वाद भी पाठक ले सकें और जो लोग नित्यप्रति भक्तिपूर्वक गीता पाठ करते हैं उनका भी काम इस पुस्तकसे चलसके । (५) उपसंहारमें गीताकारके १८ अध्यायोंका सारांश देकर, मुख्य २ बातोंपर विस्तारसे लेख लिखे गये हैं और गीताके आदर्शके समीप पहुँचनेके लिये मनुष्यको अपना अरोग्य बना रखने और धन, यश, विजय आदि लाभ करनेके लिये तथा परमात्माकी अद्भुत लीलासे तादात्म्य पानेके लिये क्या क्या तैयारियाँ करनी पड़ती हैं उनका मोताधारपर विचार किया गया है । सारांश, आबाल-वृद्ध वनिता सबकी उन्नतिका मार्ग दिखानेवाला यह गीतारूपी दोपक है । मूल्य ॥) महाराष्ट्र-रहस्य । धर्मसे भी बढ़कर कोई महान् शक्ति है ? संसारको चलानेवाला कौन है ? संसारका स्वामित्व किसके अधीन है ? बिजय वैजयन्ती किसकी फहरती है ! गंभीर विचारके बाद यही उत्तर आता है:-'धर्म ।' इसो धर्मबलके कारण इतिहासमें महाराष्ट्रका नाम अजर-अमर हो चुका है ! इसी धर्मसत्तामे आजभी भारतवर्षके किसी राज्यसे महाराष्ट्र राज्य-समूह किसी बातमें कम नहीं है ! इस पुस्तकके देखनेसे पता लगेगा कि शिवाजी या बाजीराव डॉक For Private And Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नहीं थे---रामदास या ब्रीद्र स्वामी गिरिकन्दराओं में निकम्मे पड़े रहने वाले 'साधु' नहीं थे । इन्होंने जो कार्य किया है वह सदा संसारके सुधारकी शिक्षा देनेवाला है । मूल्य =) महात्मा टालस्टायके तीन लेख । ( १ ) लोग नशा क्यों करते हैं ? इस लेखको पढ़िये । आपको विश्वास हो जायगा कि शराबखोरी, सिगरेट-बाड़ी, तमाखू, सुरती, गांजा भांग वगैरे जितने नशे हैं उनसे बढ़कर मनुष्यको हानि करनेवाली दूसरी चोज नहीं । इस खूबोके साथ समझाया है कि मन बदलता है और नशेसे तिरस्कार पैदा होता है । ( २ ) उद्योग और आलस्य । . मनुष्यका कर्तव्य क्या है; उसे कौन कौनसे उद्योग करना चाहिय; उनमें भी सबसे पहिले कौनसा उद्योग आवश्यक है; आलस्य ममुष्यका शत्रु क्यों है ; उसे अपनानेसे क्या क्या हानियाँ होप्तो है ; इत्यादि प्रत्येक मनुष्य के लिये उपयोगी बातें इस लेखमें योग्यताके साथ समझायो गई हैं। ( ३ ) शिक्षा संबंधी पत्र । यह पत्र क्या है इसके एक एक वाक्य एक एक स्वतंत्र लेखके शोषक बन सकते हैं। यदि आप अपनेको और अपनो सन्तानोंको जीवन संग्राममें डटकर युद्ध करने योग्य रणधीर बनाया चाहते हैं तो इस महात्माके पत्रको केवल पढ़कर मत छोड़िये; जबतक उसका अमल आप न करें तबतक उसका मनन करते जाइये । मूल्य |-) प्रन्थ-प्रकाशक समिति, ब्रीबीहटिया, काशी । ( Benares city.) For Private And Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्तावना। प्रायः सभी शिक्षा-संस्थाओंका उद्देश्य मनोरंजन द्वारा सदाचार और विद्याका प्रचार करना होता है ; परन्तु मनोरंजनकी जितनी सामर्थ्य नाटकमें है उतनी और किसीमें नहीं। यही कारण है कि पुस्तकके पढ़नेवालोंमें नाटक और उपन्यास पढ़नेवालोंकी सबसे अधिक संख्या होती है और शायद इसीलिये विश्वकल्याणकी कामना करनेवाले ज्ञानरवि महात्माओंने अपने उच्चतम विचार और पवित्रतम कल्पनाओंको नाटक अथवा उपन्यास द्वारा ही प्रायशः प्रकट किया है । परन्तु उपन्याससे नाटकमें ही अधिक आकर्षणशक्ति है ; क्योंकि उपन्यास केवल साक्षर मनुष्यों के हितार्थ और नाटक निरक्षरके भी उपयोगार्थ है । जो लोग शिक्षित नहीं हैं वे नाटक रंगमंचपर देख सकते हैं और उससे लाभ उठा सकते हैं। इस प्रकार साक्षर निरक्षर दोनोंका मनोरंजन कर अच्छे संस्कार फैलानेको यदि किसी वस्तुमें शक्ति है तो वह नाटक ही है। - आजकलकी नाटक-कंपनियोंके खेल देखकर बड़े दुःखके साथ कहना पड़ता है कि नाटकका बाह्यांग सजानेपर ही सूत्रधारोंका अधिक ध्यान होनेसे नाटकसे प्रेक्षकगण कोई लाभ नहीं उठा सकते । प्रत्येक वस्तुका एक खास उद्देश्य होता है--नाटकका भी उद्देश्य होना चाहिये । केवल मनोरंजन उस उद्देश्यकी पूर्तिका एक साधन मात्र है । परन्तु साधनको ही साध्य समझ कर जब नाटक लिखे अथवा खेले जाते हैं तब उनका लोगोंके आचार-विचारपर बुरा प्रभाव पड़ा.. For Private And Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तो आश्चर्य ही क्या है ? उत्तर भारतवर्षमें जो नाटक-कपिनियाँ घर्तमान हैं उनके बदले यदि सदुद्देश्यसे स्थापित कोई हिंदी नाटक कंपनी होती तो क्या ही अच्छा होता ! हमारे युक्तप्रदेशमें दो एक हिन्दी क्लब स्थापित हो चुके हैं जिनके, हिन्दी भाषामें नाटक करना, इस उद्देश्यसे मातृ सेवाका प्रेम प्रत्यक्ष होता है। ऐसे समय उन्हें यह सूचित करना अनुचितः न होगा कि हिंदी भाषाकी सेवा तभी उत्तम हो सकेगी जब हम हिन्दीमें ऐसे नाटक लिखें और खेलें जिनसे लोगोंके अचार विचार-सुधर जायें और उनमें सच्ची महत्वाकांक्षा उत्पन्न हो । . अभी हिन्दीमें नाटक बहुत ही कम हैं; और जो इने गिने हैं उनमें ऐसे तो एकाध ही होंगे जिनको स्टेजपर खेलनेकी योग्यता प्राप्त हुई हो । नाटक लिखनेवालोंको मुख्यत: तीन बातोंका विचार करना पड़ता है। लोगोंकी रुचि, उन्नतिका मार्ग, और स्टेज । इनके अतिरिक्त और भी कई सूक्ष्म बातोंका विचार करना ही पड़ता है परन्तु इन तीन बातोंका विचार छोड़कर जो नाटक लिखा जायगा उसका लोगोंपर कदापि अच्छा प्रभाव नहीं पड़ सकता । परन्तु महाकवियोंके कुछ ऐसे नाटक हैं जो हर समय और हर कालमें बड़ा अच्छा काम कर जाते हैं । इन्ही नाटकोंमें महाकवि शेक्सपियरका ' हेम्लेट ' प्रधानत: उलिखित होता है। उसी हैम्लेटका हिन्दी 'जयन्त' आज आप लोगोंकीसेवामें उपस्थित करते हैं। - हैम्लेट शोकपर्यवसायी (Tragedy) नाटक है । राज्य और स्त्रीके लोभसे मनुष्य अपने काबूके कैसा बाहर हो जाता है और अन्तमें किस दुर्गतिको प्राप्त होता है. इसका जैसा अच्छा, मनोरंजक और प्रभावशाली दृष्टान्त इस नाटकमें दिखायी देता है. वैसा अन्यत्र कदा For Private And Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चित् ही दृग्गोचर हो । उसो प्रकार चातुरीहीन सरलता, वेदान्तकी मोहिनी, कल्पनाओंका सम्राज्य, असहाय अबलाकी पितृभक्ति और मानसपतिप्रेम, नीच हृदय और मीठी बोली, विचारहीन वीर, आदिका कैसे सर्वनाश होता है उसके बड़े ही उत्तम उदाहरण इस नाटकमें हैं जिनका प्रभाव पाठक और प्रेक्षकपर पड़ता ही है । उसी प्रकार भगिनीप्रेम, पत्नीप्रेम और मित्रप्रेमके और अच्छे उदाहरण कहां मिल सकते हैं ? इन विविध पात्रोंकी नानाविध मनोरचना और कार्यकलापके अतिरिक्त महाकवि शेक्सपियरके जीवन-मृत्यू संबंधी बिकट प्रश्नोंपर विचार हैम्लेटके मुखसे वारंवार प्रकट होकर “साधारण पाठककों भी अपने संकुचित संसारसे ऊंची दुनियां में उठाले जाते हैं । इस प्रकार यह नाटक साक्षर, निरक्षर, विद्वान अविद्वान समीके प्रशंसापात्र हुआ है। नाटकमें गद्य और पद्य दोनों हैं । गद्यका अनुवाद गद्यमें किया ही गया है परन्तु शेक्सपियरकी पद्य-रचनाका हिन्दी पद्यानुवाद करना कोई साधारण बात नहीं है इसलिये प्रायः पद्योंका भी गद्यमैं ही अनुवाद किया गया है। कुछ पद्य अवश्य ही पद्यानुवादित हुए हैं और उनके लिये हम पं० रूपनारायण पाण्डेय और पं० गोविन्द शास्त्री दुगवेकर महाशयको सहृदय धन्यवाद देते हैं। अब अनुवादकी पद्धति और भाषाके विषयमें लिखकर प्रस्तावना पूरी करते हैं। किसी विदेशी भाषासे स्वकीय भाषामें अनुवाद करना कठिन काम है; क्योंकि विदेशी भाषा विदेशियोंके ही आचार, विचार, भाव और संस्कारोंसे पूर्ण होती है और ऐसे आचार, विचार, भाव अथवा संस्कार प्रायशः दूसरे किसी देशके साथ पूर्णरूपसे नहीं मिलते । हैम्लेट अंग्रेजी For Private And Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषामें लिखा गया है ; अंग्रेजोंके आचार, विचार, भाव और संस्कार हम हिन्दुओंसे बहुत भिन्न हैं । और इसलिये उन विचारों और भावसंस्कारोंको हिन्दीमें प्रकाश करनेमें बड़ी कठिनाई पड़ती है । कोई १ ऐसे शब्द आ पड़ते हैं जिनका अनुवाद करना असंभव हो जाता है । उसके लिये लाख ढूंढनेपर भी हिन्दी शब्द नहीं मिलते । इसलिये शब्दार्थकी ओर उतना ध्यान नहीं दिया जा सका जितना भावार्थकी ओर दिया है । परंतु जहांतक संभव है वहांतक शब्दार्थके साथ ही साथ भावार्थ लानेकी चेष्टा की गई है। जहां शब्दार्थ करके भाषा जोरदार नहीं बन सकी और भात्र भी स्पष्टतया नहीं प्रकट हो सका वहां शब्दार्थको बिलकुल ही छोड़ दिया है और प्रचलित भाषामें उस भावका ही अनुवाद कर दिया है । कहीं कहीं शब्दार्थ परित्याग करनेकी स्वातंत्र्यसोमा यहांतक बढ़ानी पड़ी है कि मुलके वाक्यसे इस अनुवादका वाक्य मिलाकर देखनेने पहिलो ही दृष्ठिमें अनुवादको यथार्थता एकाएक समझमें आना कठिन हो सकता है । उदाहरणार्थ, दरबारमें राजा जयन्तसे ( हैम्लेट ) कहता है:-“ऐ मेरे प्यारे पुत्र जयन्त, इ." इसपर जयन्त ( हैम्लेट ) अपने मनमें उत्तर देता है: A little more than kin but less than kind. इसका भावानुवाद इस प्रकार किया गया है: ... इसके ये प्यारके शब्द कांटोंसे चुभते हैं । ... वास्तवमें यह शब्दार्थ नहीं है । परन्तु भाव प्रकाश करनेके लिये इससे अधिक उपयुक्त शब्दयोजना दुर्लभ है। और तरहसे भी इसका भाव प्रकट हो सकता है; यथाः कहनेको तो चाचा और माका पति है पर है महानीच ! परन्तु इंडियन स्टेजपर नाटकके नायक द्वारा यह कहलाना For Private And Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कहाँतक युक्तिसंगत होगा, तथा राजाके उन शब्दोंसे जयन्तके (हेम्लेट)मनमें क्या भाव उत्पन्न हुआ और उसे साधारण बोलचाल में प्रकट करनेके लिये किन शब्दोंको नियुक्त करना उपयुक्त है इन बातोंपर विचार करनेसे उक्त अनुवाद ही ठीक प्रतीत होता है। परंतु ऐसे स्थान बहुत ही कम हैं जहां शब्दार्थसे इतनी दूर जाना पड़ा हो; और ऐसे स्थानों में उक्त दृष्टान्त ही टीकाकारकी दृष्टि में खटकनेकी विशेष संभावना जान उसका. यहां उल्लेख कर दिया है। हैम्लेटकी अंग्रेजी भाषामें कितना जोर है इसका पता जिन लोगोंको अंग्रेजोसे परिचय नहीं उन्हें अंग्रेजों के स्वभाव, उनकी शूरता, उद्योगप्रियता, स्वाभिमान और स्वातंत्र्यवृत्तिसे लग सकता है । भाषा उसी मालिकी ओजस्विनी होगी जिस जातिमें कुछ पराक्रम हो । अभी हम लोग अपनी अवस्था देख ही रहे हैं ! शेक्सपियरको उप्त भाषाको ओजस्विता यद्यपि हिन्दी. अनुवादमें उतने प्रखररूपसे प्रकाशमान नहीं होती लौभी शेक्सपियरके भाव लोगोंकी बोलचालको भाषामें भी अपनी झलक दिखाये बिना नहीं रह सकते । भाषा हिन्दी-सरल हिन्दी-सबके समझने योग्य लिखी गई है और इस चेष्टामें हमसे कई मित्र रुष्ट भी हो गये; क्योंकि ' उर्दू ' शब्दोंका हिन्दी नाटकमें प्रयोग करना उन्हें खटकता है । परंतु म ' उर्दू ' का बहिष्कार करना अनुचित समझते हैं । इसके दो प्रधान कारण हैं: (१) हिन्दी भारतवर्षकी सात्रिक ( National ) भाषा है ; और (२) जो शब्द हम रोज व्यवहारमें लाते हैं वे चाहे किसी भाषाके हों उन्हें हम अपने समझते हैं और ऐसे ही प्रचलित विदेशी शब्दोंसे हिन्दी कोष बढ़ाना हमारा कर्त्तव्य है ; परन्तु उर्दू शब्द विदेशी नहीं हैं-प्रायः संस्कृतके रुपान्तर मात्र हैं | हिन्दी यदि For Private And Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतवर्षकी भाषा है तो सब प्रान्तोंके समान शब्दोंको हिन्दीमें जोरोंके साथ प्रचारमें लाना चाहिये । बंगाली, गुजराती, मराठी, सिन्धी, और पंजाबीमें उर्दू शब्दोंकी भरमार है और उन्हें लोग काममें लाते हैं । वे शब्द हिन्दीमें भी प्रचलित हैं । उदाहरणार्थ, अदालत और अदालत संबंधी प्रायः सभी शब्द एकस अधिक भाषाओंमें उर्दूके है और प्रायः मिलते जुलते हैं । ऐसी अवस्थामें उर्दू शब्दोंका प्रयोग न कर रोज बोलनेकी भाषा छोड़ एक नयी भाषा तैयार करना सर्वथा अनुचित है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि प्रचलित संस्कृत शब्दोंके स्थानमें फारसीको घुसने देना बहुत ही बुरा है और यहां करनेका वह प्रश्न भी नहीं है । और जब हम इस बातका विचार करते हैं कि नाटक किन लोगोंके लिये लिखा जाता है, उन लोगोंके समझने योग्य और उनपर प्रभाव डालनेवाली कौनसी भाषा है तब तो हमको उर्दू शब्दोंका परहेज़ बिलकुल ही अनुचित मालम होता है । इसके अतिरिक्त उर्दू भाषा कोई स्वतंत्र भान ही नहीं है । उर्दू हिन्दीका ही एक नाम है। हिन्दीमें फारसी शब्द आ जानेसे लोग उसे उर्दू कहते हैं इतना ही हिन्दी और उर्दू अन्तर है । तात्पर्य, भाषा प्रेक्षकोंके बहुत जल्द समझमें आनेके लिये प्रचलित हिन्दी उर्दू शब्दोंका प्रयोग किया है। पुस्तकके अन्तर्गत युरोपियन रीति-ररम, उपमाएं, विशेष प्रसंग और ऐतिहासिक उल्लेख (Allusions) आदिका प्राय: भारतवर्षकी तत्सम प्रथाओं और संस्थाओं द्वारा अनुवाद किया है। परन्तु एक दृश्य जो युरोपियन देशोंमें ही देख सकते हैं और हिन्दू-भारतवर्षमें नहीं उसका अनुवाद यहांकी किसी संस्था द्वारा नहीं किया-ज्योंका त्यों रख छोड़ना ही उचित जान पड़ा । वह दृश्य कब्रस्तानका है जहां तार्किक कब्र खोद For Private And Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १३ ) नेवाले आते हैं और कब्र खोदते हुए अपनी विचित्र तार्किकता का परिचय देते हैं; हैम्लेट और उसका प्रतिस्पर्धी लारशस आता है- दोनों अपने अपने पत्नी प्रेम और भगिनीप्रेमका परिचय देते हैं । यदि कब्रस्तानको स्मशान बना देते तो उन कब्रखोदनेवालों को भी चांडाल बना देना पड़ता और फिर पाठकों और प्रेक्षकोंको उनकी बातोंका जो आनन्द मिलता है वह न मिलने पाता । उसी प्रकार भगिनीप्रेम और पत्नीप्रेम के एक दृश्यसे भी पाठक वंचित होते । इसलिये कस्ता - नका कब्रस्तान ही रख छोड़ा है । हैम्लेट नाटकको पढ़कर अंग्रेजीके पाठकोंको जो आनन्द और उपदेश मिलता है उसका अंशतः भी यदि इस पुस्तकसे हिन्दी पाठकोंको लाभ हुआ तो हमारे परिश्रम सफल हैं । हैम्लेट भारतवासियोंके लिये विशेष प्रकारसे उपयोगी हो सकता है। आज कई हजार बस भारतवर्ष जिस तत्वज्ञानकी शरण लेकर उसीमें मगन होता हुआ अपने कर्तव्य से कैसे अलग हुआ है इसका हूबहू दृष्टांत हैम्लेट या जयन्त है। तत्वज्ञानके अथाह समुद्र में गोते खाने वाला हैम्लेट भारतवर्षको तत्वज्ञानका प्रत्यक्ष उपयोग करना सिखा जा सकता है । हैम्लेटका तत्वज्ञान, पालोनियसकी चापलूसी और शुष्क ब्रह्मज्ञान, होशियो का मित्रप्रेम, और राजाकी कालिमामय करतूत सारे संसारके सुधारके लिये ज्वलन्त दृष्टान्त हैं । प्रत्येक पाठकके लिये प्रत्येक पृष्ठपर एक नयी बात- एक नया उपदेश इस हैम्लेट या जयन्त नाटक में है । हैम्लेट नाटकके कई संस्करण छपे हैं । बहुतेरोंमें एक दूसरे से कुछ न कुछ भिन्नता दिखाई देती है-किसीमें कुछ पद्य और वर्णन अधिक है और किसीमें कम । हमने डेटनके संस्करण ही इसका अनुवाद किया; For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १४ ) क्योंकि वही अधिक प्रचलित है । अब इस नाटकके टीकाकारोंम बात बातमें मतभेद है । जो लोग अंग्रेज़ी की रीतिपूर्वक शिक्षा पाते हैं उनके लिये ये टिप्पणियां बड़ी उपयोगी हैं । परन्तु जयन्तके पाठकों पर हम उन टिप्पणियोंका बोझ डालना नहीं चाहते । इतना सूचित कर देना आवश्यक समझते हैं कि टिप्पणियोंको पढ़कर हमारी जो सम्मति बनी है उसके अनुसार अनुवाद किया है । इसमें विशेष रूपसे सहायता स्वर्गवासी प्रो० आगरकर महाशय के " विकारविलासित " से मिली है जिसके लिये हम उनके प्रति सहृदय कृतज्ञता प्रकाश करते हैं । For Private And Personal Use Only ፡ अनुवादक' | Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त, बलभद्र देशका राजकुमार । For Private And Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra जय, विजय, " भुजंग, बलभद्र देशका राजा जयन्त, स्वर्गीय राजाका पुत्र तथा भुजंगका भतीजा धूर्जटि, मन्त्री विशालाक्ष, जयन्तका मित्र चन्द्रसेन धूर्जटिका पुत्र I > दरबारी नाटकके पात्रोंकी तालिका तय, विनय, हारीत, J वीरसेन, भीमसेन, *** www. kobatirth.org ... } अधिकारी गदाधर सिंह, सिपाही जम्बूक, घूर्जेटिका सेवक ... कमला, धूर्जटिकी लड़की सर्वजय, रोमकपनका राजा : : ... ... ... : Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir : ... ... 6.3 For Private And Personal Use Only *** ... ... Voltimand, Cornelius Rosencrantz Guildenstern युधाजित, शाकद्वीपका राजपुत्र नाटकवाले दो का खोदनेघाले, कप्तान, पुरोहित, एक भद्रपुरुष और श्वेतद्वीप वकील | विषया, बलभद्र देशकी रानी तथा जयन्तकी मा Osric { ... Claudius Hamlet Polonius Horatio Laertes ... ... ... Marcellus Barnardo Francisco Reynaldo Fortinbras Gertrude Ophelia Caesar सरदार, कुलीनस्त्रियाँ, अधिकारी, सिपाही, जासूस, मकाह और नौकर | जयन्तके पिताका भूत । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देश । बलभद्र ... ... ... ... ... ... सागरांत श्वेतद्वीप पोलोम दशार्ण शाकद्वीप ... ( Denmark) (France) ( Italy ) (England) ( Poland ) (Greece) ... (Norway) ... ... ... कुंजपुर हेमकुट रोमकपत्तन मंगलापुर ... (Elsinore) ... ( Paris ) (Rome) ...(Wittenberg) स्थान-कुंजपुर । For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * श्रीः * जयन्त, बलभद्रदेशका राजकुमार। पहिला अंक। पहिला दृश्य । स्थान--कुंजपुर, किलेके आगेका मैदान । गदाधरसिंह पहरेपर है । भीमसेन प्रवेश करता है। भीमसेन-कौन है ? गदाधर-ठहरो, पहले तुम ही बताओ-तुम कौन हो ? भी०-महाराज दीर्घायु हों ! गदा.-कौन, भीमसेन ? भी०-हाँ वही। गदा.-तुमतो ठीक अपने समयपर आगए ! भी०-बारह बज गए । गदाधरसिंह, अब जाओ, आराम करो । गदा०-इस कृपाके लिये तुम्हें धन्यवाद हैं । ओफ़ ! कैसी भयानक भर्दी है ! सर्दीके मारे तो बदन ठिठुरा जाता है ! भी०-पहरेपर रहते कुछ गड़बड़ तो नहीं हुई ? गदा०-नहीं, पेंड़की पत्ती भी नहीं हिली ।। भी०-अच्छा रामराम । मेरे बाद विशालाक्षे और वीरसेनका पहरा है। अगर कहीं मिले तो उन्हें जल्द भेज देना । For Private And Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त [अंक गदा-मालूम होता है, वे ही लोग आ रहे हैं। ठहरो, ठहरो, तुम लोग कौन हो ? (विशालाक्ष और वीरसेनका प्रवेश) विशालाक्ष-देशके हितैषीवीरसेन और राजाकी प्रजा। गदा०-रामराम भाई रामराम । वीर०-ऐ ईमान्दार सिपाही, ईश्वर तुम्हारा भला करे । अब पहरेपर कौन है ? गदा.-मेरी जगह भीमसेन है । अच्छा रामराम । (जाता है) वीर०-भीमसेन, भीमसेन ! भीम-कौन, विशालाक्ष ? विशा.-शायद, वही है। भीम-विशालाक्ष, आ गए ! वीरसेन, तुम भी आ गए ! बहुत अच्छा हुआ। वीर०-क्यौं जी, आज रातको वह फिर दिखाई पड़ा था ? भीम०-मैंने तो कुछ भी नहीं देखा। वीर०-विशालाक्षका कहना है कि वह असलमें कुछ भी नहीं-निरा भूम है । मैंने तो उस डरावनी सूरतको दो बार देखा; पर इसे विश्वास ही नहीं होता । इसीलिये आज इसे मैं अपने साथ ले आया हूं; जिसमें आजरातकी घटना यह अपनी आँखो देखे, और अगर वह सूरत फिर दिखाई पड़ी तो हमारी बातोंमें विश्वास कर उस सूरतसे दो दो बातें भी करले । विशाल-अजी जाओ, वह नहीं दिखाई देती। For Private And Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रस्य १] बलभद्रदेशका राजकुमार । भीम० - हमलोगोंने दो रात जो देखा क्या वह एकदम झूठ है ? अच्छा, ज़रा नीचे बैठ जाओ, और अपने कानोंके परदे खोल दो । विशा० - चलो बैठ जायँ । भीमसने, कहो, क्या कहते हो ? भीम ० ० -- कल रातकी घटना यों हुई कि पश्चिम ओरका वह - तारा आकाशमें प्रकाश करने क्षितिजसे इतना ही ऊपर उठा था, जहां अब वह चमक रहा है । और एकका घण्टा बजा; इतने में मैं और वीरसेन.. ..... 1 वीर० - सावधान, सावधान ! देखो, वह फिर आ रहा है भीम० — ठीक उसी वेशमें, जिसमें हमारे स्वर्गवासी महाराज रहा करते थे । w वीर० - विशालाक्ष, तुम तो बड़े पण्डित हो; अब उससे बोलो न । भीम ० – क्या महाराजकी सी सूरत नहीं है ? विशालाक्ष, देखो, पहिचानो । विशा० - हां, ठीक वही सूरत है ! मारे डर और अचम्भे मेरा शरीर कांप रहा है | भीम 91 वीर० - विशालाक्ष, उससे बोलो । विशा० - अरे, तू कौन है ? इस रातमें हमारे स्वर्गवासी महाराजके सुन्दर और सिपाहियाने बानेमें यहां घूमनेवाला तू कौन है ? मुझे परमात्माकी सौगन्ध है, बोल, तू कौन है ? वीर० - अजी, वह नाराज हो गया । भीम० – देखो, वह चला । विशा० - अरे ठहर, तुझे मेरी सौगन्ध है, बोल बोल। (भूत जाता है) -उससे कुछ बोलना चाहिये । For Private And Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त [अंक १ वीर०-वह निकल गया-अब न बोलेगा । भीम०-क्यों ? विशालाक्ष, तुम्हारा चेहरा पीला क्यों पड़ गया ? और तुम कांप क्यों रहे हो ? यह तो निरा भ्रम ही था त ? या और भी कुछ है ? कहो, क्या सोच रहे हो ? विशा०-प्रत्यक्ष ब्रह्माके कहनेपर भी बिना अपनी आँखो देखे ऐसी ऐसी बातोपर मैं कभी नहीं विश्वास करताः । वीर०-क्या वह महाराज जैसा नहीं था ? विशा०-ठीक वैसा ही जैसे तुम तुम्हारे जैसे हो । हमारे महाराज शाकद्वीपके राजासे द्वन्द्व-युद्ध करते समय जो बख्तर पहिने हुए थे, वह बिलकुल ऐसा ही था । और उन्होंने एक बार गुस्सेमें आ कर जिस समय पोलोमके महारथियोंको काट धूलमें मिला दिया था उस समय भी उन्होंने ऐसीही डरावनी सूरत बना ली थी । आश्चर्य है ! वीर०-कल और परसों रातके ऐसे ही भयानक समय, जब हम लोग पहरा दे रहे थे, इसी तरह फौजी कदम उठाता हुआ वह हमारे पाससे निकल गया । वीशा०-समझमें नहीं आता कि यह क्या माजरा है ; पर मेरी मोटी बुद्धिसे यही जान पड़ता है कि हमारे राज्यपर कोई भयानक विपद आया चाहती है। वीर०--आओ बैठो; और अगर कोई जानते हो तो मेरे प्रश्नका उत्तर दो। यह कैसा पहरा है जो देशकी प्रजाको इस रातमें कहीं फट. कने भी नहीं देता ? रोज़ रोज़ जो तोपें ढाली जा रही हैं और विदेशी जङ्गी सामानोंका बाजार गरम हो रहा है ; इसका क्या मतलब है ? कारीगरोंसे जबरदस्ती बेतातीलकी मिहनत ले इन जहाजोंके बनवानेकी For Private And Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य १] बलभद्रदेशका राजकुमार। क्या ज़रूरत है ? इसतरह दिन रात पसीना बहाकर क्या होनेवाला है,इसका रहस्य कोई बतला सकता है ? विशा०–हां, मैं कुछ कुछ जानता हूं । हो न हो, अफ़वाह ऐसी है। तुम जानते हो कि हमारे स्वर्गवासी महाराज, जिनकी सूरतकी नक़ल अभी नज़र आई. थी, और शाकद्वीपके महाराज युधाजितके बीच अभिमानवश द्वन्द्वयुद्ध हुआ था जिसमें हमारे महाराजने, जिनकी वीरताकी सारी दुनिया प्रशंसा करती है, उन युधाजितको मार डाला । द्वन्द्वयुद्धके पहिले यह निश्चय हो चुका था कि यदि युधाजित हारे तो उनकी सारी ज़मीन हमारे महाराज ले लें ; और अगर हमारे महाराज हारे तो उनकी आधी ज़मीनके वे अधिकारी हो । इसतरह द्वन्द्वयुद्धके नियमानुसार युधाजितकी सारी जमीन हमारे महाराजके हाथ आई । अब, महाराज यधाजितके एक नौजवान लड़का है, जो बड़ा ही हठी और क्रोधी है। उसने शाकद्वीपकी सीमापर वहांके लुटेरोंको रोज़की खूराकपर इकट्ठा किया है ; और वह चाहता है कि बेबस करके हमलोगोंसे अपने पिताकी हारी हुई ज़मीन छीन ले । इसी विपदको दूर करनेके लिये ये सब तैयारियाँ हैं । मेरी समझमें तो हमारे इस पहरे, जङ्गी बन्दोबस्त और देशमें एकाएक हलचल फैल जानेका यही कारण है। भीम०-मुझे भी और दूसरा कोई कारण नहीं दिखाई देता । ऐसे अवसरपर हमलोगोंके पहरा देते हुए हमोर स्वर्गवासी महाराजकी शकलका सिपाहियाने बानेमें हमारे पाससे निकल जाना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है । क्योंकि बलभद्रदेश और शाकद्वीपके बीच आजतक जेि युद्ध हुए, उनकी जड़ वे ही थे और अब हानेवालेकी भी वे ही हैं। For Private And Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त [अंक १ विशा०-जरासी बात भी मनको बेचैन कर देती है । गौरवगरिमाके शिखरपर चढ़े रोमकपत्तनमें महापराक्रमी सर्वञ्जयकी क्रूर हत्यासे पहिले गड़े मुर्दे अपनी अपनी कन छोड़कर भाग गए । और कमनबन्द मुर्दे वहांकी गलियोंमें चीख मारते हुए इधर उधर भटकने लगे थे। इसीतरह पुच्छलतारोंका जलता हुआ सिलसिला आकाशमें दिखाई देने लगा था। रक्तकी ओस गिरती थी । सूर्य में भयङ्कर कालिमा नज़र आने लगी थी । सुधा बरसानेवाले और समुद्रपर हुकूमत करनेवाले चन्द्रमाको ग्रहणने इसतरह ग्रस लिया था, मानो चन्द्रमा सदाके लिये अस्त ही हुआ चाहता है । हमारे देशमें भी इसी तरह अमंगलकी सूचनाएं हो रही हैं । और हालमें भकाश और पृथ्वीपर जो जो घटनाएं हुई हैं, उनसे यही सन्देह होता है कि हमारे देश और प्रजापर कोई बड़ा भारी संकट आने वाला है। पर ठहरो, देखो बह सूरत फिर आ रही है। - (भूतका प्रवेश) चाहे जो हो मैं उसे अवश्य रोकूगा । ठहर रे पिशाच ! अगर तू किसी तरहकी आवाज़ निकाल सकता है या बोली बोल सकता है, तो बोल । अगर तू कोई अच्छा काम किया चाहता है, जिससे तेरा लाभ और मेरा गौरव हो, तो बता । अगर तू अपने देशकी भावी विपद जानता है, जो पहले मालूम होनेसे टल सकती हो, तो कह दे । या अगर तूने जीते जी अन्याय अत्याचार कर धन बटोर जमीनमें गाड़ रक्खा हो, जिसके लिये लोग कहते हैं कि तुम लोग यहां भटका करते हो, तो बता । ठहर और बताकर.........। वीरसेन, पकड़ो उसे । (मुर्गा बांग देता है।) For Private And Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य १] बलभद्रदेशका राजकुमार। वीर०-क्या बी भोंक दूं ? विशा.- हां, भोंक दो,अगर न खड़ा रहे । भीम-पर वह है कहाँ ? विशा०---अजी यह आया । वीर०-नहीं, निकल गया । (भूत जाता है । ) ऐसी भव्य आकृतिके साथ मारपीटके लिये तैयार हो जाना हमारे लिये बिलकुल अनुचित था । क्योंकि, यह तो वायुके समान अभेद्य है । हमारे वारोंसे उसका क्या बिगड़ता ?-उल्टी हमारी ही हसी होती। भीम-वह कुछ बोला ही चाहता था कि इतनेमें मुर्गा बांग देने लगा। विशा०-और उसे सुनते ही किसी अपराधीकी तरह वह भाग गया । मैंने सुना था कि सबेरा होते ही मुर्गे गला फाड़ फाड़ कर चिल्लाते हैं; जिसे सुनते ही इधर उधर भटकनेवाले भूत प्रेत अपनी अपनी खोहमें जा छिपते हैं । वही बात आज अपनी आँखों देखी। वीर०-मुर्गके बांग देते ही वह गायब हो गया ! लोग कहते हैं कि निरभ्र और प्रशान्त पौष मासके शुक्ल पक्षमें मुर्गे रातभर बांग दिया करते हैं । इसलिये उन दिनों भूतप्रेतोंकी बाहर निकलनेकी हिम्मत नहीं पड़ती। तारे नहीं टूटते । परियोंकी मोहिनी काम नहीं करती। और जादूगरनीका जादूटोना भी नहीं चलता।। विशा.-मैंने भी ऐसा ही सुना है। और इसमें मेरा कुछ विश्वास भी है। परन्तु, देखो, सबेरा होगया । पूर्वकी ओर भगवान् सूर्यनारायणका उदय होकर उनके किरणोंसे ओससे भीगे हुए. पर्वत For Private And Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त अंक.१ शिखर सुनहरे हो रहे हैं तो चलो, अब पहरा समाप्त करें । और अगर मेरी सलाह पूछो तो रातका सारा हाल चलकर अपने तरुण जयन्तको सुनावें । वह पिशाच उनसे बोलेगा । प्रेमके लिये समझो या कर्तव्यके ही लिये, यह बात हमें उनसे कह देनी चाहिये। .. वीर०-हां अवश्य कहनी चाहिये । चलो, मैं जानता हूं इस समय उनसे कहां भेंट होगी। दूसरा दृश्य। दरबार । राजा, रानी, जयन्त, धूर्जटि, चन्द्रसेन, जय, विजय, दरबारी लोग और सेवकोंका प्रवेश । राजा--प्यारे सरदारो ! मेरे प्रिय भाईके मरनकी याद हृदयमें अभीतक बनी रहनेसे मैं ही नहीं किन्तु मेरी सारी प्रजा दुःखसागरमें डूब रही है । परन्तु जो उत्पन्न होता है वह अवश्य ही मरता है; यह सोचकर दुःख भूल जानेका यत्न करना चाहिये । इसीलिये मैंने अपनी भौजाई-इस प्रबल राष्ट्रकी अर्धस्वामिनी तथा आपलोगोंकी वर्तमान महारानीसे विवाह किया है । इस विवाहके कारण हृदयमें आनन्द और दुःखकी मात्रा बराबर हो जानेसे मनकी कुछ ऐसी विचित्र दशा हो रही है जो कही नहीं जा सकती । भ्रातृ-वियोगके कारण एक नेत्रसे दुःखाश्रु और पत्नीपाणिग्रहणके कारण दूसरेसे आनन्दाभु ! एक ओर श्राद्धक्रिया तो दूसरी ओर विवाहोत्सव ! यह सुख दुःखका संमि• श्रण मैंने केवल अपनी ही बुद्धिसे नहीं किया है, किन्तु इसमें अपा For Private And Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य.२] बलभद्रदेशका राजकुमार ।। लोग जैसे बुद्धिचन और विचारशील पण्डितोंकी भी सम्मति थी। जिसके लिये आपलोगोंको भनेक धन्यवाद हैं । अस्तु, आपलोग जानते हैं कि तरुण युधाजित मेरे प्रिय भाईकी मृत्यु होनेसे यह सोच रहा है कि हमारे राज्यमें फूट हो गई है और अब इसमें कुछ भी शक्ति नहीं रही । इस विचारसे उन्मत्त हो उसने हमारे पास कई बार कहला भेजा है कि 'तुम्हारे भाईने मेरे पितासे जो ज़मीन ली थी वह मुझे लौटा दो। आप जानते हैं कि मेरे परलोकवासी वीर भाईने उसके पिताको द्वन्द्वयुद्ध में परास्तकर उसकी ज़मीन अपने अधीन करली थी। इसलिये द्वन्द्वयुद्धके नियमानुसार उसका अब उसपर किसी तरहका अधिकार नहीं रहा । यह बात तो उसके विषयमें हुई। अब केवल यहां हमारे एकत्रित होनेका कारण बतलाना है । वह यह है कि तरुण युधाजितका चचा बुढ़ापेके कारण बहुत शक्तिहीन हो कर मृत्युशैयापर पड़ा है। उसके भतीजेकी यह कार्रवाई उसके कानोंतक भी नहीं पहुंचने पाती । परन्तु युधाजितकी ये सब बातें उसके चचाके ही धन और फौजकी सहायतासे हो रही हैं । इसीलिये मैंने उसके चचाको इस पत्रमें लिखा है कि वह शीघ्र ही अपने भतीजेकी इस चालको रोक दे । तो, जय और विजय ! तुम दोनों इस पत्रको लेकर शाकद्वीप चले जाओ । राजासे इस विषयमें आवश्यक बातोंको छोड़ और कुछ भी कहनेका तुम्हें अधिकार नहीं है। शीघ्र जाओ, और अपना काम पूरा करके बिना विलम्ब किये वापस चले आओ। जय । विजय इ-महाराजकी आशा पालन करनेके लिये हमलोग सदा तैयार हैं। For Private And Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त [अंक १ राजा-मुझे इसमें बिलकुल सन्देह नहीं है । अच्छा तो जाओ। (जय और विजय जाते है।) कहो, चन्द्रसेन, क्या खबर है ? अभी तुम क्या कहते थे ? अब कहो क्या चाहते हो ? मुझसे तुम जो चाहो मांग सकते हो। तुम्हारी बात कभी व्यर्थ न होगी । कहो कहो, ऐसी कौनसो वस्तु है जो तुम चाहते हो पर मैं दे नहीं सकता और तुम मांग भी नहीं सकते ! तुम्हारे पिताने इस राजगद्दीके अनेक उपकार किये हैं । इस राजगद्दीसे उनका वही सम्बन्ध है जो हृदयका मस्तिष्कसे और मुंहका हाथसे है । जो इच्छा हो मांगो। चन्द्र०-हे पृथ्वीनाथ ! दास केवल उत्तालको लौट जानेकी आज्ञा चाहता है । महाराजके राज्याभिषेकके समय अपना कर्तव्य पालन करनेके लिये मैं बड़े आनन्दसे यहां आया था । उस कामसे अब निपट चुका हूं। और अब मेरा चित्त भी उत्तालको ओर लग रहा है । इस लिये उधर लौट जानेकी आज्ञा पानेके लिये मैं स्वामिचरणों में प्रार्थना करता हूं। राजा-क्या तुमने अपने पिताको आशा ले ली है ? उनकी क्या राय है ? धू०-जानेके लिये बार बार कहकर इसने नाकों दम कर दिया इससे बेबस हो मैंने उसे जानेकी आज्ञा दे दी है । मेरी भी सविनय यही प्राथना है कि महाराज भी इसे जानेको आशा दे दें। राजा-ठीक है। चन्द्रसेन, अपना सुभीता देखकर तुम जा सकते हो । अब, मेरे प्यारे भतीजे, मेरे पुत्र जयन्त...... जयन्व-(एक ओर) इसके ये प्यारके शन्द मुझे काटोंसे चुभ रहे हैं। For Private And Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य २] बलभद्रदेशका राजकुमार । राजा-तुम्हारा मुख अबतक मलीन क्यों है ? जयन्त-नहीं, महाराज । मैं तो बड़े आनन्दमें हूं।। रानी-प्यारे जयन्त, अब दुःख करना छोड़ दो और बलभद्रकी ओर मित्रताकी दृष्टिसे देखो । ऐसा दुःख करनेसे क्या तुम्हारे पिता स्वर्गसे लौट सकते हैं ? क्या तुम्हारा अश्रुप्रवाह उन्हें फिर नीवित कर सकता है ? कभी नहीं । मृत्यु तो हर एकके पीछे लगी रहती है । जहां जन्म है वहीं मृत्यु है । यह जन्म-मृत्युका चरखा बराबर चलता ही रहता है। जयन्त-सच है, माता जी, आपका कहना बहुत सच है । रानी-अगर सच है तो तुम ऐसे उदास क्यों देख पड़ते हो ? जयन्त-हा, देख तो पड़ता हूं । पर इसका कारण क्या है ? सचमुच मैं उदास हूँ। मा, जहाँ अपना कोई सम्बन्धी मरा तहाँ उसका सूतक मानना, पगड़ी न पहिनना, मुँहपर चादर लपेट लम्बी २ बाँसें लेना, आँखोंसे आँसू बहाना, पुरानी बातें याद करके रोना, मृत मनुष्यके गुण बखानना, अर्थात् अंगव्यापार, शब्द और मुद्रा, इन तीनोंसे जहांतक हो सके बहुत दुःखी होनेका स्वांग लेना तो इस संसारकी रीति ही है । पर मुझमें इन सब बनावटी बातोंका लेश भी नहीं है। इसलिये मेरे दुःखकी ठीक ठीक कल्पना कैसे हो सकती है ? मनमें खेदका लेश न रहते मनुष्य ऐसे स्वांग ले सकता है ; परन्तु मेरे हृदयमें जो खलबली मची हुई है वह स्वयके परे है । इसलिये उसकी दूसरोंसे कल्पना होना सर्वथा असम्भव है । राजा-जयन्त, पिताके लिये तुम्हें दुःख होना तुम्हारे कोमलहृदयके लिये बहुत स्वाभाविक और योग्य है । परन्तु विचार करो, के. For Private And Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त [ अंक १ वल तुम्हारे ही पिताकी मृत्यु नहीं हुई किन्तु तुम्हारे पिताके पिताकी मृत्यु हुई थी और उनके पिताकी भी यही गति हुई थी। किसीकी मृत्यु होती है तो उसके सम्बन्धी कुछ काल तक उसके लिये शोक करते ही हैं । परन्तु किसीके लिये बराबर दुःख करते रहना मूर्खता और हठ है। ऐसा करना शूर वीर मनुष्यके लिये सर्वथा अनुचित है । जीवमात्र परमात्माकी आज्ञासे मरते हैं ; इसलिये उनकी मृत्युपर दुःख करना मानों परमात्माकी योजनाको दोष लगाना है । इस मृत्युलोकमें जिसका जन्म होगा उसकी मृत्यु अवश्य ही होगी ; इस बातकी सत्यता का अनुभव हर घड़ी होनेपर भी ऐसी ज़रा ज़रा सी बातोपर दुःख करनेसे दुःख करनेवाले मनुष्यके हृदयकी अधीरता, मनकी कोमलता और बुद्धिकी अपक्वता तथा संकीर्णता सिद्ध होती है । आज पिताकी मृत्यु हुई, कल चचाकी होगी और परसों भाईकी होने वाली है, तात्पर्य इस मृत्युलोकमें जो आता है वह अवश्य ही लौट जाता है ; इस बातको भली भांति जानकर भी रोते बैठना मानो अपनी मूर्खतासे गत आत्माका उपहास करना, परमात्माका अपराध करना तथा प्रकृतिका अपमान करना है । इसलिये मेरा यह कहना है कि अब तुम दुःख करना छोड़ दो और मुझे अपने पिताकी जगह समझो । तुम्हें किसी बातकी कमी न रहेगी । मेरे सारे राज्य तथा सम्पत्तिके तुम ही एक मात्र अधिकारी हो; यह बात मैं अपनी सारी प्रजा तथा सरदारोंको विदित कर देता हूँ । मेरे भी अब दूसरा पुत्र है कहां ? भतीजा, पुत्र जो कुछ हो तुम ही हो । मंगलापुरकी पाठशालाको लौट जानेका तुम्हारा विचार हमलोगोंकी इच्छाके विलकल विरुद्ध है । हमारा बारबार तुमसे यही कहना है कि यहाँ रहकर For Private And Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य २] बलभद्रदेशका राजकुमार । हमारे नेत्रोंको संतुष्ट रखो और राज्य शासनमें हमें सहायता दो। रानी-प्यारे जयन्त, अपनी माँकी बात खाली न जाने दो। मंगलापुर जानेका विचार छोड़ हमारे साथ रहो ; यही तुमसे मेरी प्रार्थना है । - जयन्त-माँ, जहाँतक हो सकेगा, आपकी आशाका उल्लंघन मैं कभी नहीं करूंगा। राजा-वाह ! बहुत योग्य उत्तर दिया । अब हम सब बलभद्रमें बड़े आनन्दसे रहेंगे । प्रिये, चलो, अब चलें । जयन्तने आपही आप यहां रहना स्वीकार कर लिया, यह सुन मेरे आनन्दकी सीमा नहीं रही। अच्छा तो, आओ चलें। (जयन्तके अतिरिक्त सब पाते हैं।) जयन्त-आह ! यह कठोर मांस आप ही आप जल जाता या पिघलकर इसका पानी पानी हो जाता तो बहुत अच्छा था । या शास्त्रकारोंने आत्महत्याका निषेध न किया होता तो भी बहुत अच्छा होता । हे जगन्नायक ! जगतके पिता ! मुझे इस संसारकी वस्तुमात्रस घृणा हो गई है । सारा संसार मुझे निस्सार और तुच्छ प्रतीत हो रहा है। धिक्कार है ! धिक्कार है इस संसार को !! सारा संसार मुझे किसी उजाड़ बागकी तरह मालूम हो रहा है । संसारकी सारी वस्तुएं मुझे भद्दी और तुच्छ मालूम होती हैं । हाय हाय ! उसकी यह दशा !! उसकी मृत्युको अभी केवल दो महीने हुए होंगे नहीं, अभी पूरे दो भी नहीं हुए । हा ! कैसा आदर्श राजा ! कहां वह सूर्य और कहां यह जुगनू ! मेरी माँ पर भी उसका कैसा प्रेम मा ! प्रेमसे पागल होकर कभी कभी वह यह कह बैठता था कि, For Private And Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra विशा www. kobatirth.org १४ जयन्त [ अंक १ -- हे वायुदेव ! अपनी तीव्र गति मन्द करो; क्योंकि मेरी प्राणप्रिया - के होठ और कोमलांगके फटनेसे उसे कष्ट होंगे । ओफ़ ! कैसा यह प्रेम ! ऐसे योग्य पतिको छोड़ इस कौएको इसने आलिंगन दिया ! आह ! कैसी प्रबल कामवासना !! पतिकी मुत्युसे वह शान्त होनी चाहिये या और भी प्रज्वलित होनी चाहिये ? और यह सब काम एक ही महीनेके भीतर ! छोड़ दो, जाने दो, जाने दो इन विचारों को । स्त्री मात्र अधीर होती है ! एक महीना भी नहीं हुआ कि यही - हां, यही साड़ी पहन कर मेरे पिताके मृत शरीरको यह स्मशानमें पहुचाने गई थी ! हां, हां, यही वह - ! हा ! परमेश्वर ! विचारहीन पशु भी इस काममें ऐसे अवसरपर इतनी जल्दी न करता ! मेरे चचाके साथ - मेरे पिताके सगे भाईके साथ विवाह करनेवाली - वही यह दुष्ठा ! हा ! हे भगवन् ! न जाने इसके कौनसे गुणोंपर यह मोहित हो गई ! एक महीने के भीतर इस दुष्टा चाण्डालिनके आखोंके कपटी आँसू भी अभीतक न सूखे होंगे कि इसने विवाह किया ! मेरे चचासे—अपने पतिके भाईसे जारकर्म करानेके लिये इतनी नीच शीघ्रता ! यह अच्छा नहीं है । और इसका परिणाम भी अच्छा होनेवाला नहीं । पर किया क्या जाय ? मन ही मन जल भुनकर मरना होगा । मुंहसे एक शब्द भी निकालने का अवसर नहीं है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( विशालाक्ष, बीरसेन और भीमसेन प्रवेश करते हैं । 1) 0 - महाराजका जयजयकार हो । जयन्त - तुम्हें देख कर मुझे बहुत आनन्द हुआ । विशालाक्ष, या मैं भूलता तो नहीं हूँ । For Private And Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्व२] बलभद्रदेशका राजकुमार। विशा०-नहीं महाराज, आप बहुत ठीक कहते हैं । यही है वह भाषका नम दास विशालाक्ष । जयन्त-मित्रवर, आजसे मैंने तुम्हारा नाम बदल दिया है; इसलिये अब तुम अपनेको सेवक न समझना । अच्छा, विशालाक्ष और · बीरसेन, मंगलापुरसे तुमलोग यहां किसलिये आए हो ? वीर०-महाराज जयन्त-वीरसन, तुम्हें देखकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ । परन्तु, मित्र, मंगलापुरसे तुमलोग यहां कैसे आए ? विशा०-ऐसे ही घूमते फिरते चले आए, महाराज । जयन्त-यह बात यदि तुम्हारा शत्रु भी कहेगा तो मैं सच न मानूंगा; और यदि तुम स्वयं ही अपने विरुद्ध ऐसी बनावटी बातें कहोगे तो, भला मैं उसमें कैसे विश्वास करुंगा ? मैं खूब जानता हूं कि तुम लोग फ्रजूल इधर उधर भटकनेवाले नहीं हो । परन्तु यह तो कहो कि तुमलोग यहां किस लिये आए हो । मित्र, तुम्हारे जानेके पहले एक दिन तुम्हारी दावत होगी। विशा०-महाराज, मैं आपके पिताकी अन्तिम क्रिया देखने आया था। जयन्त-मित्र, ऐसी हंसी क्यों करते हो ? सच कहो-मेरी माताका विवाहोत्सव देखने आए थे न ? विशा.-सचमुच, महाराज, इसमें बहुत शीघ्ता हुई। जयन्त-अजी, शीघ्रता किस बातकी ? एक खर्चमें दोनों काम निपट गए । श्राद्धके पक्वान्न विवाहमें और विवाहके श्राद्धमें । सचमुच, विशालाक्ष, वह दिन इन आँखोंसे देखनेकी अपेक्षा मेरा जन्म ही न हुआ होता या उसके पहिलेही इस शरीरसे प्राण निकल For Private And Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६ जयन्त [बंक १ गए होते तो बहुत अच्छा होता । मेरे पिताजी पल भरके लिये भी मेरी आँखोंकी ओट नहीं होते। विशा०—किसकी ओट, महाराज ? जयन्त-अजी, हृदयकी ओट-ज्ञानचक्षूकी ओट । विशा. मैंने उन्हें एक बार देखा था। वाह ! कैसे नेक राजा थे। जयन्त-वे तो लाखों में एक ही थे । अब वैसा राजा होना दुर्लभ है। विशा०-महाराज, कल रातको मैंने उन्हें देखा था। जयन्त-देखा था ? किसको ? विशा०-महाराज, आपके पिताजीको । जयन्त-मेरे पिताको ? विशा.-महाराज, हमलोगोंने जो चमत्कार देखा है, वह मैं आपसे निवेदन करता हूं । थोड़ी देरके लिये आश्चर्य करना छोड़ ज़रा ध्यानसे सुनिये । ___ जयन्त-कहो कहो, शीघ्र कह डालो । ... विशा०-परसों और नरसों आधीरातके समय, जब वीरसेन और भीमसेन पहरा दे रहे थे उस समय यह घटना हुई कि आपके पिता जैसी एक सूरत सिरसे पैरतक सिपाहियाना पोशाक पहिनी हुई इनके बिलकुल पाससे धीरे धीरे निकल गई । उसे देखते ही मारे डर और अचम्भेके इनके होश उड़ गये; पैर लटपटाने लगे; शरीर पसीनेसे बिलकुल तर हो गया और मुंहसे एक शब्द भी न निकाल. सके । तीसरे दिन अर्थात् कल रातको इन्होंने एकान्तमें मुझसे यह बात For Private And Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रश्य २] बलभद्रदेशका राजकुमार। १७ कही । मैं तुरन्त उस सूरतको देखनेके लिये इनके साथ हो लिया । उस स्थानपर पहुँचनेपर देखा तो सचमुच इनके कहे अनुसार आपके पिताके ऐसी एक सूरत पास आती देख पड़ी। इन हाथोंमें भी कुछ फ़र्क होगा, पर उनमें...... जयन्त-पर, यह घटना किस स्थान पर हुई ? वीर०-महाराज, किलेके आगेवाले मैदानमें, जहाँ हमलोगोंका पहरा था। नयन्त-क्या तुमने उससे कुछ बातचीत नहीं की ? विशा०-महाराज, मैंने तो बोलनेकी चेष्टां की थी; पर उसने कुछ उत्तर ही नहीं दिया । हाँ, एक बार उसने सिर ऊँचा किया या; और ऐसे भाव बनाये मानों वह कुछ बोला चाहती हो ; पर इतनेमें मुर्गा बाँग देने लगा । उसकी आवाज़ सुनते ही, वह इतनी तेज़ चालसे चली कि देखते देखते गायब हो गई। जयन्त-बड़े आश्चर्यकी बात है ! विशा-महाराज, यह सब सच है । और इसीलिये हमलोग आपकी सेवामें यह घटना निवेदन करने तुरन्त चले आये । जयन्त०-महाशयो, निस्सन्देह तुम्हारी बात सच होगी। परन्तु इस बातके सुननेसे मेरे हृदयकी विचित्र दशा हो रही है.। क्या भान भी वहाँ तुम्हारा पहरा है ? वीर०, भीम-जी हाँ, आज भी है । जयन्त क्या कहा १. वह हथियारबन्द थी ! वीर०, भीम०-हाँ महाराज, हथियारबन्द थी। जयन्त-क्या नख-शिखान्त ! For Private And Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ૮ www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir wololital जयन्त वीर०, भीम० - हाँ, सिर से पैरतक । जयन्त - तो फिर तुमलोगोंने उसका चेहरा नहीं देखा ? विशा० – देखा था, महाराज ; उसने चेहरेसे नक़ाब हटा लिया था । जयन्त- - क्या वह क्रुद्ध दिखाई पड़ता था ? विशा० - क्रुद्धकी अपेक्षा उदास ही अधिक मालूम होता था । जयन्त पीला या लाल ? विशा नहीं, बहुत पीला ! - बिल्कुल फीका ! ! जयन्त — और क्या तुम्हारी ओर उसने टकटकी लगाई थी ? विशा० - जब तक वह वहाँ थी तब तक हमारी ही ओर देखती थी । [ अंक १ जयन्त - यदि मैं भी वहाँ रहता तो बहुत अच्छा होता । विशा० - आपको भी बड़ा आश्चर्य होता । जयन्त - हाँ हाँ, आश्चर्य तो अवश्य होता । क्या वह वहाँ बहुत देरतक ठहरी थी ? विशा० - करीब सौकी गिनती गिनने तक । वीर०, भीम० - नहीं नहीं, इससे अधिक । विशा० - नहीं, जब मैंने देखा था उस समय वह इससे अधिक नहीं ठहरी थी । जयन्त -- उसकी दाढ़ी भूरी थी, नहीं ? विशा० - हाँ, वैसी ही, कुछ काली कुछ सफ़ेद, जैसी आपके पिताजी की थी । जयन्त- - आज रातको मैं भी पहरेपर रहूँगा; कदाचित् आज फिर वह आवे | विशा० – मैं निश्चयपूर्वक कहता हूँ कि वह अवश्य आवेगी । For Private And Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य ३] बलभद्रदेशका राजकुमार। ... जयन्त-सचमुच, यदि वह मेरे पिताकी शकल हुई तो चाहे साक्षात् यमराज स्वयं आ कर उसके साथ बोलनेसे मुझे क्यों न रोकें, मैं उससे अवश्य बोलूँगा । अब तुमलोगेसि मेरी केवल यही प्रार्थना है कि यदि यह बात तुम लोगोंने अभीतक किसीपर प्रकट न की हो तो इसे इसीतरह छिपा रक्खो । और आज रातको जो कुछ घटना हो उसे चुपचाप देखलो-समझलो; पर उस विषयमें किसीसे कुछ भी मत कहो । इसके लिये मैं तुम लोगोंका अत्यन्त कृतज्ञ रहूँगा । अच्छा, अब जाओ । आज रातको ग्यारहसे बारह बजेतक मैं तुम लोगोंसे उसी . मैदानमें आकर मिलूंगा। सब लोग-महाराजकी सेवाके लिये हमलोग सदा तैयार हैं। जयन्त-यह तुमलोगोंकी मुझपर कृपा है । अच्छा, जाओ। . (जयन्तके सिवा सब जाते हैं।) . जयन्त-सिपाहियाने बानेमें मेरे पिताकी शकल ! ये सब लक्षण अच्छे नहीं हैं। क्या ? इसमें कुछ दगाबाज़ी तो न होगी ? यदि इसी समय रात होती तो क्या ही अच्छा होता ! हृदय ! अधीर मत बन, थोड़ी देरतक और धीरज धर । लाख छिपानपर भी दुष्टोंकी दुष्टता नहीं छिपने पाती। (जाता है।) तीसरा दृश्य। स्थान-धूर्जटिके घरका एक कमरा । चन्द्रसेन और कमलाका प्रवेश । चन्द्रसेन-मेरा असवाब जहाजपर लद चुका है । अब मैं बिदा For Private And Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त [अंक १ होता है । पर बाहन, जब कभी सुभिता हो, चिट्ठी भेजनेमें आलस भ करना। कमला-क्या इसमें भी तुम्हें कुछ सन्देह है ! .. चन्द्रसेन-बहिन, एक बात तुमसे कह रखता हूँ। तुम यह समझती हो कि जयन्त तुमपर बहुत प्रेम करता है; पर यह तुम्हारा निरा भूम है । युवकोंका युवतियों पर प्रेम दिखाना स्वाभाविक है; पर याद रखो, यह प्रेम स्थिर नहीं रहता । जैसे वसन्त ऋतुके आते ही वृक्षोंमें कोमल कोमल पत्तियाँ निकलकर अपनी सुन्दरतासे जीवमात्रको प्रसन्न करती हैं, परन्तु वह सुन्दरता केवल एक या दो मास तक रहती है; वैसेही युवावस्थामें पुरुषों में जहाँ कामवासना उसन हुई वहाँ जिस तरुण तथा सुन्दर स्त्रीको वे देखते हैं उसीको अपनी प्राणप्यारी समझते हैं । इस अवस्थामें उनका प्रेम अत्यन्त मधुर होता है; पर स्थिर नहीं रहता। इसलिये तुमसे कहता हूँ कि ऐसे क्षणिक प्रेमगन्धपर मोहित न हो जाना। कमला-बस, इतना ही न ! चन्द्र०-अब उसके प्रेमका विचार भी मत करो; क्योंकि मनुज्यका मन स्थिर नहीं रहता । जैसे २ उसके अनुभव बढ़ते जाते हैं वैसे वैसे उसके मनके भाव भी बदलते जाते हैं । हो सकता है कि वह तुमपर प्रेम करता हो; और यह भी सम्भव है कि उस प्रेममें किसी प्रकारका छलकपट भी न हो; परन्तु विचार करनेकी बात है कि वह कोई साधारण मनुष्य तो है नहीं जो अपनी ही इच्छासे कोई काम कर बैठे । वह एक दिन इस देशका राजा होगा; और उसीपर इस देशका मंगल निर्भर है; इसलिये उसकी इच्छा भी For Private And Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य ३ ] बलभद्रदेशका राजकुमार । २१ ऐसी ही होनी चाहिये जिसमें प्रजाकी सम्मति हो । और यदि वह कहे कि " कमले, मैं तुमपर प्रेम करता हूँ, " तो ऐसे प्रेमपर उतना ही विश्वास करना जितना प्रेम उसके किसी कार्यविशेषसे प्रजापर प्रकट हो । नहीं तो उसकी मीठी मीठी बातोंमें आकर अपने पिताके निष्कलंक कुलको कलंकित करोगी और अपने सतीधर्ममें धब्बा लगाओगी। इसलिये, मेरी प्यारी बहिन, वासनाधीन होकर अपने मनको इधर उघर न बहकने देना । तरुणी और रूपवती स्त्रियोंको बहुत बचकर चलना चाहिये । मित हास्य, मित भाषण, मित मेलजोल - अर्थात् उनका प्रत्येक व्यवहार मित ही होना चाहिये । महा पतिव्रता सीता जैसी साध्वी स्त्री भी जनापवादसे न बचने पाई । किसी किसी समय तो खिलनेसे पहिले ही कलीमें कीड़े लग जाते हैं, वैसे ही इस तारुण्यकुसुमको न जाने कौन कब दूषित करेगा ! इसीलिये कहता हूँ कि सावधान रहो । डरकर चलोगी तो बच जाओगी। चाह और कुछ हो या नहीं, पर तरुणावस्था बड़ी हीं दगाबाज होती है । कमला – भाई, मैं तो तुम्हारे इस सदुपदेशको कभी न भूलूँगी; पर तुम ही कहीं ऐसा न करना कि मुझे ब्रह्मज्ञानकी लम्बी चौड़ी बातें सुनाकर स्वयं मनमाना काम करो ! चन्द्र० - नहीं नहीं, मेरे विषयमें तुम बिल्कुल चिन्ता न करो । ओफ़ ! बहुत विलम्ब हो गया ! अब मैं बिदा होता हूँ । परन्तु पिताज इधर ही आरहे हैं । ( धूर्जटिका प्रवेश ) अच्छा हुआ, पिताजी आगये; क्योंकि दुबारा अशीर्वाद से आनन्द भी दूना मिलेगा। और जाते समय पिताका दर्शन होना भी एक शुभ सूचना है । For Private And Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त [अंक १ . धूर्जटि-अरे ! अबतक तुम यहीं खड़े हो ! तुम्हें क्या कहा जाय ? जाओ, जाओ जल्दी ! ऐसी अच्छी साइत छोड़ तुम यहाँ समय बिता रहे हो ; और वहाँ लोग तुम्हारी राह देख रहे हैं ! जाओ, तुम्हारा मङ्गल होगा । परन्तु मेरी इन दो बातोंका स्मरण रक्खोः -अपने विचार हर किसीसे मत कहो, और बिना विचारे कोई काम न करो । मेलजोल सबसे रक्खो, पर किसीको मुँह न लगाओ । जो तुम्हारे सच्चे मित्र हैं, और जिनकी मित्रताकी परीक्षा तुम कर चुके हो, उनके लिये समयपर जान देनेको भी तैयार रहो; पर साहब सलामत होते ही चाहे जिस नवीन मनुष्यको मित्र मानकर उसे दावतपर दावत मत देने लगो । पहिले तो किसीके झगड़ेमें ही न पड़ो, और यदि पड़ो तो शत्रुके दाँत खट्टे किये बिना न छोड़ो, जिसमें फिर कभी वह तुम्हारा सामना करनेका साहस न करे । बातें सबकी सुनो, पर अपनी बात इनगिने लोगोंसे कहो । सबकी राय सुनलो, पर किसी बातका एकाएक निश्चय न कर डालो । आय देखकर व्यय करो । पोशाक मूल्यवान् हो, पर भड़कीली न हो; क्योंकि पोशाकसे ही प्रायः मनुष्यकी चालचलनका पता लगता है । किसीसे कर्ज न लो, और न किसीको दो; क्योंकि कर्ज देनेका प्रायः यही नतीजा होता है कि, धनके साथ मित्रतासे भी हाथ धोना पड़ता है ; और कर्ज लेनेसे कमखर्चीका अभ्यास छूट जाता है । सौ बातकी एक बात यह है कि सदा सच्ची सीधी राहपर चलो ; इससे तुम्हारे हाथों किसीकी बुराई न होगी। जाओ, मेरे आशीर्वाद तुम्हारा कल्याण होगा। चन्द्र०-अच्छा, आज्ञा चाहता हूँ। (प्रणाम करता है।) धूर्ज-जाओ, इस समय अमृतसिद्धियोग है । बाहर नौकर For Private And Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य ३] बलभद्रदेशका राजकुमार । तुम्हारी राह देख रहे हैं। चन्द्र०-बहिन, अब बिदा होता हूँ | मेरी बातोंको भूल न जाना । कमला-मैं तो नहीं भूलूंगी, पर तुम ही सँभले रहना । चन्द्र०-अच्छा, जाता हूँ। (जाता है।) धूर्ज-कमले, तुमसे उसने कौन सी बात कही है ? कमला-कुछ नहीं,-जयन्तके विषयमें कुछ बातें कही हैं । धूर्ज०-हाँ, अच्छी याद दिलाई । सुना है कि आज कल वह नित्य तुम्हारे पास आया जाया करता है ; और तुम भी उससे मिलनेमें 'ना' नहीं करती । यदि यह सच है तो मैं तुमसे कह देता हूँ कि तुम मेरी लड़की हो कर नहीं समझतीं कि तुम्हें कैसा व्यवहार करना चाहिये। तुम दोनों आपसमें कौनसी बातें किया करते हो ; सच सच कह दो। ___ कमला-बाबूजी, मुझपर उसका प्रेम है; और आजकल वह मुझसे विवाहके विषयमें बातें किया करता है। धूर्ज०-क्या प्रेम ? और विवाह ! छी: ! अभी तुम विल्कुल नादान हो; इन सब बातोंका तुम्हें अनुभव नहीं । क्या तुम उसकी बातोंपर विश्वास करती हो ? . कमला-तब और क्या रुं ? धूर्जo-मैं बताता हूँ, क्या करो । याद रखो, अभी तुम लड़की हो । उसकी बातोंको तुमो सच मान लिया है; पर वे सच नहीं हैं। अबसे उसके साथ मिलना जुलना कम कर दो, नहीं तो किसी दिन मेरी फजीहत कराओगी। कमला-उसने बार बार कहकर मुझे अपने निर्मल प्रेमका विश्वास दिलाया है। For Private And Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त [अंक १ धूर्ज०-निर्मल प्रेम ! चल हट, मूर्ख ! कमला-उसने परमात्माकी सौगन्द खाकर अपने सच्चे प्रेमके विषयमें मेरे विश्वासको और भी दृढ़ किया है। धूर्ज०-अरी, यह सच्चा प्रेम नहीं है-तुम जैसी नादान लड़कियोंको फँसानेका जाल है । जब मनुष्यके मनमें कामवासना प्रबल हो उठती है, तब वह चाहे जिस स्त्रीपर प्रेम करने लगता है ; उससे मीठी मीठी बातें करता है; और अपने प्रेमका विश्वास दिलानेके लिये सौगन्द खानेमें भी संकोच नहीं करता । परन्तु कमले, इन मीठी मीठी बातोंमें रत्तिभर भी सचाई नहीं होती ; इस लिये उसकी बातोंपर बिल्कुल विश्वास न करो । अवसे उसके सामने बहुत आया जाया भी मत करो । अपनी मान-मर्यादाका विचार छोड़ जब तब उससे मिलना मुझे बिल्कुल पसन्द नहीं है । याद रक्खो, जयन्त अभी अज्ञान बालक है । आगे चलकर उसके विचार बदल सकते हैं। दूसरी बात यह है कि वह है पुरुष, और तुम हो स्त्री। और इस विषयमें स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषोंको अधिक स्वतन्त्रता होती है; इसलिये उसे तो कोई कुछ भी नहीं कहेगा--तुम्हारी नामधराई होगी। तात्पर्य, यह असली प्रेम नहींप्रेमका मुलम्मा है । कुछ दिनों बाद इसकी वही गति होगी जो सोनेके मुलम्मेकी हुआ करती है । इसपर भी यदि तुम उसपर विश्वास करोगी तो तुम्हारो दुर्गति हुए बिना न रहेगी । बस, मैं तुमसे साफ़ साफ़ कह देता हूँ कि अबसे तुम्हें ऐसा मौका ही न मिलने दूंगा कि तुम जयन्तसे मिल सको। देखमा, खवरदार ! फिर ऐसा काम न करना । कमला-आपकी आज्ञाके विरुद्ध मैं कोई काम न करूँगी । For Private And Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य ४] बलभद्रदेशका राजकुमार । चौथा दृश्य । स्थान-किलेके आगेवाला मैदान । जयन्त, विशालाक्ष और वीरसेन प्रवेश करते हैं । जयन्त-ओफ ! कैसी सर्दी है ! इस समय हवा क्या चल रही है मानों आकाशते तीर बरस रहे हैं ! विशा०-सचमुच, हवा तो बहुत तेज़ चल रही है ! ऐसी हवासे पेड़की पत्ती पत्ती झड़ जाना सम्भव है । जयन्त-अब समय क्या होगा ? विशा०—मैं समझता हूँ कि बारह बजनेमें अभी कुछ कसर होगी। बीर०-नहीं नहीं, बारह बज गए । बिशा०-सच, बारह बज गए ? मैंने नहीं सुना । तव तो उस भूतके आनेका समय हो गया। (पदेंमें वायों और तोपोंकी आवाज़ होती है।) विशा०-महाराज, यह सब क्या हो रहा है ? जयन्त-अजी, आज मेरे चचाकी दावत उड़ रही है; उसीकी यह सारी धूमधाम है । न जाने आज कितने ही पोप खाली होंगे । उधर वे शराबकी एक एक घुट ढकोसते जाते हैं; और इधर उसीके उपलक्ष्यमें वाद्योंकी ध्वनिसे उनका विजयघोष हो रहा है। विशा.----महाराज, क्या इस देशकी यही प्रथा है ! जयन्त-प्रथा ! हः हः, हो सकती है । मैं यहींका रहनेवाला हूँ; और यहाँकी प्रायः सभी रीतिरस्मोंसे परिचित भी हूँ ; पर आजतक For Private And Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त [अंक १ मैंने किसीके मुँह इस प्रथाकी कभी प्रशंसा नहीं सुनी; किन्तु मेरे ख्यालसे लोग इसे घृणाकी ही दृष्टिसे अधिक देखा करते हैं । इस शराबखोरीसे-और तो कुछ नहीं-चारों ओर हमारी बदनामी हो रही है। सब लोग हमें शराबी कहते हैं और घृणित शन्दोंसे हमारा अपमान करते हैं । वास्तवमें, आजतक हमारे पूर्व-पुरुषोंने बड़े बड़े वीरताके काम करके जो कुछ नाम पैदा किया है, उसे ये बेशरम लोग शराब पी पीकर कलंकित कर रहे हैं । और यह बात तो प्राय: देखने में आती है कि मनुष्यका एकाध स्वाभाविक दुर्गण या कुसंगसे लगा हुआ दुर्गुण सारे सद्गुणोपर पानी फेरकर उसकी थुक्कानजीती कराता है । दुर्गुण ! फिर वह कैसाही क्यों न हो, चाहे स्वाभाविक हो या आगन्तुक-एकबार जहाँ उसने मनुष्यपर अपना अधिकार जमाया वहाँ उससे मनुष्यका सारा विवेक भ्रष्ट हो जाता है। मनुष्य कैसाही गुणी और इजतदार क्यों न हो, एकबार जहाँ वह इन दुर्व्यसनोंके फेरमें पड़ा तहाँ उसका सर्वनाश हो जाता है। एक प्यालाभर शराबका ऐसा प्रताप है कि वह मनुष्यकी सारी इज्जत आबरूको क्षणमात्रमें नष्टकर उसे भ्रष्ट कर डालती है। विशाo-महाराज, देखिये देखिये ; वह आ रहा है ! (भूतका प्रवेश) __ जयन्त-जीवमात्र पर दया-दृष्टि रखनेवाले सारे देवताओ और देवदूतो, हमारी रक्षा करो ! रे पिशाच ! तू पिछले जन्ममें किये हुए पुण्य कार्योंसे उत्तम गतिको प्राप्त महात्मा हो, चाहे पापाचरणसे पिशाचयोनिको प्राप्त अधमात्मा हो ; मनुष्यमात्रका कल्याण करनेके लिये स्वर्गसे उतरा हुआ देवदूत हो, या उनपर दुःखका पहाड़ गिरानेके लिये For Private And Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रहा नहीं जाता सन्देहसे व्याकुळ आपके दृश्य ४] बलभद्रदेशका राजकुमार । पातालसे ऊपर आया हुआ यमदूत हो; तेरे विचार सुविचार हों, या कुविचार ; तूने ऐसा विचित्र वेश धारण किया है कि तुझसे बिना कुछ प्रश्नोत्तर किये मुझसे रहा नहीं जाता । तुझे मैं अपने पिताके नामसे पुकारता हूँ उसका उत्तर दे; और मेरे सन्देहसे व्याकुल हृदयको फटने नं दे । राजन् ! बलभद्रके स्वामिन् ! मेरे पिताजी ! आपके प्राण निकलनेपर आपकी हड्डियाँ शास्त्रोक्तविधिके अनुसार समाधिमें गड़ी रहनेपर भी उसपरकी प्रचण्ड शिलाको हटाकर आपके बाहर निकल आनेका क्या कारण है ? एकबार इस मृत्युलोकको छोड़कर फिर इस पृथ्वीपर सिपाहियाने बानेमें आप क्यों घूम रहे हैं ? इस आधी रातके समय, मेघाच्छादित चन्द्रमाके धुंधले प्रकाशमें इस मैदानमें आकर रातको आप और भी भयानक क्यों बना रहे हैं ? और मेरे ऐसे अज्ञान मनुष्योंके विचार एक जन्मसे आगे नहीं बढ़ते तो मुझे आप सन्देहमें क्यों डाल रहे हैं ? कहिये, कह दीजिये, इन सब बातोंका क्या कारण है ? मेरी समझमें नहीं आता कि मुझे क्या करना चाहिये । (भूत जयन्तको संकेत करता है।) विशा०–देखिये देखिये, अपने साथ चलनेके लिये वह आपको संकेत कर रहा है ; मानों एकान्तमें आपसे कुछ कहा चाहता है । वीर०-देखिये महाराज, किस नम्रतासे वह आपको एक ओर बुला रहा है ; पर आप उसके साथ हरगिज़ न जायें । विशा०-हाँ हाँ, उसके साथ आप भूलकर भी न जायें । जयन्त-अगर वह यहाँ न बोला, तो मैं उसके पीछे पीछे अवश्य जाऊँगा। विशा.-नहीं महाराज, ऐसा न करिये । For Private And Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २८ www. kobatirth.org जयन्त [ अंक १ जयन्त — क्यों ? इसमें डर ही क्या है ? अपने जीवनको तो मैं तिनकेके समान समझता हूँ। और आत्मा अविनाशी ही हैं। इस भूतके बिगाड़े भला उसका क्या बिगड़ सकता है ? देखो, वह फिर मुझे बुला रहा है। मैं उसके साथ जाता हूँ । विशा Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ● - महाराज, ऐसा पागलपन न करिये । भूत प्रेतकी बातोंआप क्यों आ रहे हैं ? देखिये यह कितना ऊँचा पहाड़ है ! इसके नीचेका हिस्सा समुद्रमें चला गया है । इसपर चढ़कर समुद्रकी ओर मुँह करके यदि कोई खड़ा रहे तो तुरन्त चक्कर आकर नीचे समुद्र में उसके गिरपड़नेकी सम्भावना है । देखिये - सुनिये, पहाड़से समुद्रकी लहरोंके टकरानेकी कैसी भयानक आवाज़ आ रही है ! अगर यह पिशाच आपको बहँकाकर वहाँ ले गया और वहां पहुँच कर उसने कोई भयानक रूप धारण कर लिया तो आपका सारा ज्ञान वहाँ भूल जायगा, और आपके मुँहसे एक शब्द भी न निकलेगा । इस बातको आफ पहिले सोच लें, —– जान बूझकर आगमें न कूद पड़े । जयन्त—देखो, वह अत्रतक मुझको बुला रहा है । अरे चल, तू आगे चल, मैं तेरे पीछे पीछे आता हूँ । विशा० - महाराज, हम लोग आपको नहीं जाने देंगे । जयन्त छोड़ो, मुझे छोड़ दो । विशा० - मान जाइये, महाराज, हम लोग आपको कभी नहीं जाने देंगे । जयन्त - मित्रो, मेरे कार्यमें बाधा मत डालो । क्रोधसे मेरा शरीर जल रहा है । भूत प्रेतोंसे मैं डरने वाला नहीं हूं । देखो देखो, वह अब तक मुझे बुला ही रहा है । भले आदमियो, छोड़ दो मुझे। For Private And Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य ५] बलभद्रदेशका राजकुमार २९ ( हाथ छुड़ा लेता है । ) अगर अब मुझे कोई रोकेगा तो याद रक्खो, यही तलवार उसका काम तमाम करेगी । बस, अब सीधी राहते तुम लोग यहाँ से चल दो । चल रे पिशाच, आगे आगे चल, मैं तेरे पीछे पीछे आता हूँ । (भूत और नयन्त जाते हैं। ) विशा० - इसका दिमाग बिगड़ गया है । वीर. - ऐसे अवसरपर इनकी आज्ञा पालन करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है । चलो चलो, हम भी उनके पीछे हो लें । विशा० - चलो चलें । न जाने इसका क्या परिणाम होगा । बीर०—- इस बलभद्र देशमें कोई खराबी अवश्य हुई है । विशा०—- परमात्मा सबका पार लगाने वाला है । बीर० -- चलो चलें, यह ठहरनेका अवसर नहीं है । ( जाते हैं । ) पाँचवाँ दृश्य । स्थान —— मैदानका दूसरा हिस्सा -:0: भूत और जयन्त प्रवेश करते हैं । जयन्त - तू मुझे कहाँ ले जायगा ? बोल, अब मैं आगे नहीं बहूँगा । भूत--अच्छा, सुन | जयन्त - हाँ, सुनता हूँ । भूत- - समय बहुत कम है । थोड़ी ही देर में मुझे दहकती हुई. गन्धककी भयानक ज्वाला में जाकर बैठना होगा | जयन्त - हाय ! हाय ! कैसी भयङ्कर दशा ! For Private And Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३० जयन्त [ अंक १ भूत - मेरे लिये दुःख करनेका यह अवसर नहीं है; किन्तु मैं तुझसे जो कुछ कहूँगा उसे ध्यानपूर्वक सुन । जयन्न — बोल, मैं सुननेके लिये तैय्यार हूँ । www. kobatirth.org भूत - मेरी बात सुन लेनेपर तुझे उसका बदला लेनेके लिये भी तैय्यार रहना होगा | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त क्या ? बदला ? भूत - हाँ, बदला – बदला | मैं तेरे पिताकी आत्मा हूँ। पिछले जन्ममें किये हुए पापोंके लिये मुझे यह दण्ड हुआ है कि जब तक मेरे घोर पाप जलकर भस्म न हो जाये तब तक मुझे दिनभर आगमें पैठकर रहना होगा, और रात में बाहर निकलना होगा । हम लोगोंको इस पिशाच योनिमें रहकर जो जो कष्ट उठाने पड़ते हैं उनमें से किसी साधारण कष्टका भी यदि तेरे सामने वर्णन करूँ तो दुःखसे तेरी छाती फट जाय; डरके मारे तेरा खून जम जाय, क्रोधके मारे तेरी आखें फूट जायँ, चीटीकी गाँठ टूटकर उसके रोम रोम स्याही के काटोंकी तरह खड़े हो जायँ । परन्तु हम लोगोंको इस बातकी सख्त मनाई है कि उस कारागारकी एक बातमी रक्त मांस वाले जीवोंके कानोंतक न पहुंचाई जावे । अस्तु, यदि तूने अपने पिताको कभी प्यार किया हो तो मेरी बातोंपर ध्यान दे । जयन्त - हा ! परमेश्वर ! L ले - - अत्यन्त भयङ्कर और अत्यन्त दुष्टतासे किये हुए उसके 4 भूतखूनका वदला जयन्त - क्या खून ! भूत-हाँ, खून ! खून ! चाहे वह कैसा ही क्यों न हो - खून For Private And Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य ५] बलभद्रदेशका राजकुमार । बुरा ही होता है । पर यह अत्यन्त घोर और कठोरतासे किया हुआ खून है । जयन्त-बोल बोल, जल्दी बोल । निस नरपिशाचने उनका खून किया हो उसका नाम बता दे । मैं अभी शेरको भाँति झपट कर उसके कलेजेका खून पाऊँगा। ___भूत-तेरी बातोंसे जान पड़ता है कि तेरे हाथों कुछ हो सकेगा। यदि यह काम तेरे हाथों न हुआ तो मैं तुझे अपने वार्यका न मानूंगा । अस्तु, जयन्त, सुन । मेरी मृत्युके विषयमें यह गप उड़ाई गई है कि जब मैं अपने वागमें सोया हुआ था तब एक काले सर्पने मुझे डस लिया; और उसीसे मेरी मृत्यु हुई । मेरी मृत्युके विषयमें इसी बनावटी बातसे बलभद्र देशकी सारी प्रजाके कान भरे गये हैं । परन्तु, जिस सर्पने तेरे पिताको डसा है वह सर्प इस समय बलभद्रकी राजगद्दीपर बिराजमान है। __ जयन्त-क्या ? मेरे चाचाजी ? हे भविष्यवादिनी आत्मा ! तू धन्य है ! भूत-हाँ, वही, वही तेरा व्यभिचारी चाचा ! वही जाराधम नरपशु ! उसीने मेरी नेक रानीको अपनी मीठी २ बातोंके जालमें 'फँसा लिया; और जारकर्म करानेमें प्रवृत्त किया । जयन्त, क्या यह नीचता और विश्वासघात नहीं है ? विवाहके समय तेरी माके पास जो मैंने सौगन्द खाई थी-प्रण किया था, उसका मैंने कभी भंग नहीं किया । तो भी उसने मुझे त्याग दिया । और त्याग भी किस लिये दिया ? उस दुराचारी नरपशुकी बातोपर मोहित हो उसके साथ व्याभिचार करनेके लिये । परन्तु जो स्त्री सच्ची पतिव्रता है उसके For Private And Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२ जयन्त [ अंक १ सतीधर्मको भंग करने यदि साक्षात् इन्द्रदेवभो स्वर्गसे नीचे उतरें तो भी उस स्त्रीका मन अपने पतिचरणोंसे जरा भी नहीं डिगता । और व्यभिचारिणी स्त्रीका विवाह स्वर्गमें साक्षात् कामदेवसे भी क्यों न हुआ हो, परन्तु उसका मन वहाँ भी बिना व्यभिचार किये नहीं मानता । पर ठहरो, ठहरो, देखो, प्रातःकालकी वायु महकने लगी । अब सारी बात मैं संक्षपसे कह देता हूँ । नित्यके अनुसार तीसरे पहर जब मैं अपने बागमें सोया था तब तेरा चाचा एक शीशीमें कुछ विषैली पत्तियोंका रस लेकर वहाँ आया और मुझे गहरी नींद में सोया देख उसने वह कालकूट रस मेरे कानोंमें टपका दिया । फिर क्या था ! थोड़ी ही देरमें वह मेरे शरीर में भिन गया । और जिस तरह दूधमें खटाई छोड़ते ही दूध फट जाता है उसी तरह मेरे शरीरमें उस विषैले रसके जातेही मेरा सारा खून फट गया; और मेरा कोमल चिकना शरीर चिड़चिड़ी लकड़ीके समान हो गया । इस तरह नींदमें रहते, अपने सगे भाईकी नीचता के कारण मुझे अपने जीवनसे, मुकुटसे और रानीसे हाथ धोना पड़ा । मरते समय पापक्षालनार्थ तीर्थोदकप्राशन करनेका भी उसने मुझे अवसर नहीं दिया । यहाँ अपनी सारी वस्तुओंको छोड़ वहां परमेश्वरके सामने अपने पापका उत्तर देनेके लिये मुझे यहांसे लौट जाना पड़ा । हाय ! हाय ! कैसी भयानक कठोरता ! कैसी घृणित इच्छा ! और कैसी भयङ्कर कामवासना ! बास्तवमें यदि तू मेरे ही बीजका होगा तो तुझसे यह कभी नहीं सहा जायगा; और बलभद्रकी राजशय्याको इन गोत्रगामियोंके घोर व्यभिचारसे तू कभी अपवित्र न होने देगा । मेरे प्यारे पुत्र ! इस घोर कर्मका तेरा जी चाहे वैसा बदला ले, mpet For Private And Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य ५ ] बलभद्रदेशका राजकुमार । ३३ परन्तु अपनी माताके ऊपर हाथ न उठा । उसे दण्ड देनेमें अपने हृदयको कष्ट न दे । किये हुए कामके लिये मन ही मन उसे जलने भुनने दे । ईश्वरके भरोसे उसे छोड़ दे । वही उसका उचित न्याय करेगा । अच्छा, अब मैं जाता हूँ । देखो, जुगनूकी चमक फीकी हो चली, इससे जान पड़ता है कि भगवान् सूर्यनारायण क्षितिजके समीप पहुँच गये हैं । परमात्मा तेरी रक्षा करे ! मुझे भूल मत जाना । अब मैं जाता हूँ । ( जाता है। ) जयन्त - हे स्वर्गस्थ देवदूतो ! हे भूतलस्थ अनन्त जीवो ! अनर्थ ! ! ! हृदय ! और हे पातालस्थ दैत्य दानवो ! हा ! ! कैसा धीरज धर ! नाड़ियो ! एक दमे ढीली न पड़ जाओ - थोड़ी देर मुझे सम्भाले रहो ! क्या ? तुझे न भुला दूँ ? रे अभागे पिशाच ! यह माथा जबतक ठिकानेपर है, तबतक क्या मैं तुझे भूल सकता हूं? तेरी याद रक्खूं ? बचपनसे परिश्रम करके इस माथेमें एकत्रित की हुई सारी बातें निकालकर तुझे स्थान दूंगा । फिर भूलना भुलाना कैसा ? अरी दुष्टे ! तुझसे यह घोर कर्म कैसे हुआ ? रे चाण्डाल ! तूने यह क्या किया ? 'पेट में छुरी मुहमें राम राम' वाले मनुष्य कैसे होते हैं, इसका मुझे आज अच्छी तरह परिचय हो गया । मुझे पूर्ण विश्वास है कि कमसे कम इस बलभद्र देशमें ऐसे नीचोंकी कमी नहीं है । चाचाजी ! याद रखिये, आपके किये हुए कामके इतिहासका अक्षर अक्षर मेरे अन्तःकरणमें खुदा हुआ है । क्या ? उसने क्या कहा था ? " परमात्मा तेरी रक्षा करे ! मुझे भूल मत जाना " । रे पिशाच ! मैं सौगन्छ खाता हूं - तुझे कभी न भूलूंगा । · वीर, विशा०- ( भीतरस ) महाराज ! महाराज ! For Private And Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३४ www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त बीर० - [ भीतरसे ] जयन्त कुमार ! विशा० - - ( भीतरसे ) परमात्मा उनकी रक्षा करे । [ अंक १ जयन्त तथास्तु | विशा० - ( भीतर से ) हो, हो, महाराज ! जयन्त - हो, हो, लो, लड़को ! आओ, पक्षियो, आओ, आओ । [ विशालाक्ष और वीरसेन प्रवेश करते है । ] वीर०. ० महाराज, सब कुशल तो है न ? विशा - क्या समाचार है, महाराज ! जयन्त-— बड़ा अद्भुत समाचार है ! विशा०- -क्या हम लोग भी उसे सुन सकते हैं ! जयन्त - नहीं, तुम लोग उसे फैला दोगे । विशा० – परमेश्वरकी सौगन्द, मैं किसीसे नहीं कहूँगा । वीर०- मैं भी नहीं कहूँगा, महाराज । जयन्त - तो क्या कही डालूँ ? अजी, यह बात तो कभी किसीने बिचारी भी न थी । पर तुम लोग इसे गुप्त तो रक्खोगे न ? विशा०, वीर० - हाँ हाँ, महाराज, परमेश्वरकी सौमन्द, हमलोग किसीसे नहीं कहेंगे । - जयन्त – मेरे चाचा के समान नीच मनुष्य सारे देशमें न होगा । विशा० - महाराज, यह बात कहने को कनसे प्रेतके निकल आनेकी कोई आवश्यकता नहीं थी । जयन्त - हाँ, ठीक है । तुम्हारा कहना बहुत ठीक है | बस तो अब हाथ मिला लो, जाता हूँ । अधिक बोलने की आश्वयकता ही नहीं रही । तुम लोग जिधर चीहो उधर जाकर अपना २ काम करो, For Private And Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ACH ३५ दृश्य ५] बलभद्रदेशका राजकुमार। और मैं भी अपनी इच्छानुसार कहीं तोभी जाकर अपना काम देखता हूँ। क्योंकि काम और इच्छा सब किसीको होती है । अच्छा, आज्ञा दो, अब मैं जाऊँगा। विशा०-महाराज, ये तो बेसिरपैरकी बातें हुई । जयन्त-मुझे बहुत दुःख है कि मेरी बातोंसे तुम्हारा अपमान हुआ। अच्छा, मैं हृदयसे क्षमा-प्रार्थना करता हूँ। विशा०-इसमें अपमानकी क्या बात है, महाराज ? जयन्तक्यों नहीं ? अवश्य है । सचमुच, विशालाक्ष, मैंने तुम्हारा भारी अपमान किया । अस्तु, इस भूतके विषयमें मैं तुमलोगोंसे इतनाही कहे देता हूँ कि, यह भूत ईमान्दार है । और अगर तुमलोग यह जानना चाहते हो कि मुझसे उससे क्या क्या बातें हुई तो इसकी तुमलोग जी चाहे जैसी कल्पना करलो । मेरे विद्वान, वीर और सच्चे मित्रो ! तुमलोगोंसे मेरी एक प्रार्थना है । विशा०-वह कौनसी, महाराज ? कहिये, आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। जयन्त-आज रातको जो कुछ तुमने देखा है उसे किसीपर प्रकट न करो। विशा०, वीर०-नहीं, महाराज, हमलोग कभी नहीं प्रकट करेंगे। जयन्त-नहीं, इस तरह काम न चलेगा; सौगन्द खाओ। विशा.-विश्वास रखिये, मैं किसीसे नहीं कहूँगा। बीर०-मैं भी नहीं कहूँगा, महाराज । जयन्त-मेरी तलवारकी सौगन्द ? वीर०-महाराज, हमलोग अभी सौगन्द खा चुके हैं । For Private And Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त [अंक १ जयन्त-सचमुच, मेरी तलवारकी सौगन्द, तुमलागे किसीसे नहीं कहोगे ? भूत-( नीचेसे ) सौगन्द खाओ। जयन्त-आः हा ! भूत, भूत ! २ पिशाच, तू यहां भी आ गया ? मित्रो, देखो, सुनो, इस मुंहारमेंसे उसी भूतकी आवाज़ आ रही है, तो फिर खाओ जल्दी सौगन्द । विशाल महाराज, आपही कह दीजिये, किसकी सौगन्द खायें। जयन्त-मेरी तलवारको सौगन्द खाकर कहो कि हमलोग आजकी देखी बात किससे न कहेंगे । भूत-(नीचेसे ) सौगन्द खाओ । जयन्त-अरे ! क्या तू यहां, वहां, हर जगह रहता है ? हमलोग अब यह स्थान ही बदल देंगे । आओ महाशयो, इधर चले आओ । मेरी तलवारपर हाथ रखकर सौगन्द खाओ कि हमलोग यह बाते किसीपर भी प्रकट नहीं करेंगे । भूत-(नीचेसे ) सौगन्द खाओ। जयन्त०-रे पिशाच ! बिल खोदनेमें तो तूने छछंदरपर मात कर दी । हमारे यहां आते ही तू भी नीचे नीचे यहां आ पहुँचा । आओ, मित्रो, एक बार और स्थान बदल डालें। विशा०-कैसा चमत्कार है ! जयन्त -इसी लिये कहता हूं कि इस चमत्कार दिखानेवाले पिशाचका स्वागत करो। विशालाक्ष, स्वर्ग और पृथ्वीमें इतनी विचित्र विचित्र वस्तुएँ हैं जिनका वर्णन तुम्हारे दर्शन शास्त्रमें ढूंढे भी न मिलेगा। मित्र, आजतक सुमनै मेरी जैसी सहायता की है वैसी ही For Private And Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य ५] बलभद्रदेशका राजकुमार । ३७ 66 सहायता आज भी मैं तुमसे चाहता हूँ । वह यह है कि कुछ दिनों के लिये मैं पागल बनूँगा । इस लिये यदि मुझे अपना रंग ढंग कभी बदलना पड़े या मनमाना बकना पड़े, तो ऐसे अवसरपर तुम लोग खूब सावधान रहना । मेरे विषय में कहीं ऐसी सन्देहजनक बातें न करना कि, हां हां, हम जानते हैं, वह क्यों पागल बना है । या अगर हम चाहें तो कह सकते हैं ; या किसी अमुक मनुष्यको पूछनेसे पता लग सकता है" या इसी तरह की गोलमोल बातें कहकर या सन्देह उत्पन्न करनेवाले हाथ या सिर हिलाकर मेरा सारा भेद खोल न देना । बस, तो खाओ सौगन्द कि, ' हमलोग ऐसा कभी न करेंगे ' । भूत - ( नीचेसे ) हां, सौगन्द खाओ । जयन्त-रे व्याकुल पिशाच, शान्त हो ! शान्त हो ! ( सौगन्द खाते हैं। ) महारायो, मुझपर दया रखना । परमात्मा चाहेगा तो यह अभागा जयन्त तुम्हारे प्रेमको कभी न भूलेगा । चलो, अब हम सब साथ ही साथ चलें । परन्तु एकबार मैं तुम लोगों से और भी प्रार्थना करता हूं कि कृपाकरके अपना मुँह सम्हाले रहना । हाय ! कैसा नीच विरोध ! और उसका बदला लेना विधाताने मेरे ही भाग्यमें लिखा है ! अस्तु, da आओ, चलें । पहिला अड्ड समाप्त । For Private And Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त-. [मंकर दूसरा अंक। पहिला दृश्य । स्थान-धूर्जटिके घरका एक कमरा । जटि और जम्बूक प्रवेश करते हैं। धूर्ज०-लो, यह रुपया और यह पत्र उसे दे देना । जम्बू०-जो भाज्ञा । धूर्ज०-जम्बूक, उससे भेंट करनेके पहिले यदि उसकी चाल. बलनका तुम पता लगा सको तो बहुत अच्छा होगा। जम्बू०-सरकार, यह तो मैंने पहिले ही सोच लिया था । धूर्ज०-हां, तुमने बहुत ठीक सोचा था । परन्तु, पहिले इस बातका पता लगा लेना कि यहांके कौन कौन लोग वहां रहते हैं ; कैसे रहते हैं ; कहाँ रहते हैं; क्या काम करते हैं ; किस समाजमें बैठते हैं; तथा कितना खर्च करते हैं । इस ऊपरी पूछताछसे जब उसके नामका पता लग जाय तब धीरे धीरे उसका सारा हाल जाननेकी चेष्टा करना । ऐसे अवसरपर लोगोंसे यह कहना चाहिये कि, “ हां, हां, मैंने उसका नाम सुना है । उसका मुझे इतना तो परिचय नहीं है, किन्तु उसके पिताको और मित्रोंको मैं खूब पहिचानता हूं; और उसे भी कुछ कुछ जानता हूँ।" क्यों ? मेरी बातको समझते हो न ? नम्बू०---हां, खूब समझता हूँ। धूर्ज-इतना ही कहना, “ कुछ कुछ जानता हूँ-अच्छी For Private And Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १] बलभद्रदेशका राजकुमार । ३९ तरह नहीं ।" इसके बाद यह कहना चाहिये:- "" परन्तु जिस मनुष्यके विषयमें मैं कह रहा हूं, अगर वास्तवमें नही हो तो वह बड़ा ही बदचलन है । " बस, इसी तरह गोल बातें करना, जिसमें उसकी चालचलनकी पूरी पूरी थाह लग जाय । पर ध्यान रहे, उसकी चाल चलनके विषय में ऐसी भद्दी बातें न बनाना जिसमें वह उम्भरके लिये बदनाम ही हो जाय । स्वतन्त्रतासे रहनेवाले युवकोंको साधारणतः जो जो बुरे व्यसन लग जाते हैं उन्हींमेंसे एकआध जड़ देना । जम्बू ० – उदाहरणार्थ – जुवा खेलना, सरकार | धूर्ज ० - हां, और क्या ? जुवा खेलना, शराब पीना, लड़ना, झगड़ना, झूठी सौगन्ध खाना या वेश्या - गमन करना —— यहांतक भी अगर बढ़ जाओ तो कोई हरज नहीं । जम्बू ०—–सरकार, यह कैसे कहूँ कि वे रण्डीबाज़ हैं । ऐसा कहने से तो उनके मुँहमें कालिख पुतेगी । धूर्ज • - हां, सच कहते हो । रण्डीबाज़ कहनेसे निस्सन्देह उसका अपमान होगा । अच्छा, रण्डीबाजीका नाम ही छोड़ दो; जैसा अवसर देखो वैसी बात बना दो । मेरे कहनेका यह तात्पर्य नहीं है कि उसे रण्डीबाज़ कहकर, व्यभिचारीके नामसे उसकी चारों ओर प्रसिद्धि हो ; किन्तु बचपन से स्वतंत्रता पूर्वक रहनेवाले युवकोंको जो अनेक दुर्व्यसन लग जाते हैं उनमें से एक आध अवसर पड़नेपर कह दो | जम्बू ० – पर,... सरकार । धूर्ज ० -- ऐसा किसलिये ? — यही न पूछते हो ? 0 जम्बू ० - जी हां ; मैं इसका कारण जानना चाहता हूं । धूर्ज० - अजी, इस द्राविडी प्राणायाममें और क्या धरा है ? For Private And Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त [अंक मनुष्यपर ऐसे ही कुछ छोटे मोटे दुर्गुण लादकर उसका सच्चा सच्चा हाल जान लेनेकी यह एक युक्ति है । जिससे तुम ऐसी बातें करोगे, उसने यदि कोई बुरा काम करते उसे देखा होगा तो वह फौरन् कह बैठेगा,-" महाशय, बाबूसाहब, या लालाजी, या सर्वसाधारणको मम्मानसे पुकारनेका जिस देशमें जैसा रिवाज हो वैसा पुकारकर... जम्बू:-हां, ठीक है। धुर्ज०-यह कहेगा,......हां, क्या कहेगा ? मैं अभी क्या कह रहा था ? देखोजी,...भूलता हूँ ; मैं कौनसी बात कह रहा था ? अपनी बातोंका सिलासला कहां टा ? जम्बू०-"वह फौरन् कह बैठेगा, महाशय, बाबूसाहब, इत्यादि" यहांसे । धूर्ज.-' वह फौरन् कह बैठेगा', यहींसे न ? हाँ, टीक है । वह यह कहेगा:-' हां हां, उस मनुष्यको तो मैं जानता हूं । मैंने उसे कल या परसों कहीं देखा था । ' अगर इसपर तुम कहोगे:--'फिर फिर ? ' तो वह यही जवाब देखा, 'फिर फिर क्या ?-शराब पीकर जएके फड़पर वह जुवा खेल रहा था; और वहीं गन्दगीमें इधर उधर लोट भी रहा था।' समझते हो न ? चारा डालकर हाथीको पकड़नेकी ये सब युक्तियाँ हैं । थोड़ासा झूठ बोलकर दूसरेके पेटकी सारी थाह ले लेनेका यह एक ढंग है । हम लोगोंके सब काम प्रायः इन्ही युक्तियोंसे होते हैं । अनुभवके बिना मनुष्य चतुर नहीं होता । याद रक्खो, बिना काँटेके काँटा नहीं निकलता और बिना ऐठे ऐंठन नहीं छूटती । अस्तु, मेरे इस व्याख्यान और उपदेशसे लाभ उठा• बार कमसे कम मेरे पुत्र चन्द्रसेनकी चालचलनका तो पता लगा For Private And Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra दृश्य १ ] बलभद्रदेशका राजकुमार । ४१ लो; फिर देखा जायगा । मेरी बातोंका मतलब समझेते हो न ! नहीं तो फिर समझ लो । जम्बू धूर्ज O www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नहीं नहीं, सरकार, मैं खूब समझता हूँ । -अच्छा, जाओ । परमात्मा तुम्हारी रक्षा करेगा } जम्बू ० जो आज्ञा । धूर्ज० – एक बात और सुन लो । मौका देखकर काम करना । जम्बू ० - हाँ, हुजूर, ऐसा ही करूँगा । धूर्ज ० - उसके गाने बजाने में बाधा मत डालना | ● जम्बू ० - जो आज्ञा । धूर्ज० - अच्छा, अब जाओ । ( जम्बुक जाता है । कमला प्रवेश करती है । ) धू० - कहो, कमला, क्या खबर है ? कमला - ( लम्बी सांस लेकर ) पिताजी ! मुझे तो बढ़ा डर लगता है ! घ. - डर लगता है ? किसका डर लगता है ! कम०- - पिताजी, जब मैं अपने कमरे में बैठकर कसीदा काढ़ रहा थी तब जयन्त ऐसे विचित्र ढंगसे वहां आकर मेरे सामने खड़ा हो गया कि – बापरे बाप ! मैं कुछ कही नहीं सकती । न तो उसके कोटके बटन लगे थे; न माथेपर टोपी थी; और न पायता में पट्टी ही लगी थी । पायताने खिसक खिसक कर बेड़ी जैसे ठेहुनीके बिल्कुल पास चले आये थे; और कीचड़से भर गये थे । चेहरेपर सफ़ेदी छा गई थी; और चलते समय दोनों घुटने एक दूसरे से टकराते थे । तात्पर्य, उसने ऐसा दया उत्पन्न करने वाला वेश बनाया For Private And Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२ जयन्त था, मानों उसके पीछे कोई भूत लगा हो और उस भूतसे अपनी जान बचाने वह मेरे पास आया हो । धू.-क्योरी कमला; तुम्हारे लिये तो वह पागल नहीं हो गया ? कम-ये सब मैं क्या जाने ? पर, होगा-यह भी हो सकता है । कौन कहे कि यह बात झूठी है ? धू०-उसने कुछ कहा भी था ? कम०-कहना सुनना कैसा ? एकाएक आकर उसने मेरी कलाई पकड़ ली और मुझसे एक हाथ दूर पीछे हट गया; और अपना दूसरा हाथ भीसे लगा मेरी ओर इस तरह निहारने लगा मानों मेरी फोटो ही उतारा चाहता था। बस, इसी तरह मेरी भोर टकटकी लगाए कुछ देरतक खड़ा था । फिर मेरे हाथको एक हलकासा झटका देकर तीन बार सिरसे पैरतक मुझे खूब निहार एक ऐसी लन्त्री साँस ली कि मानों उसके कलेजेमें कोई गहरी चोट लगी हो । फिर उसने मेरा हाथ छोड़ दिया; और गर्दनको कन्धेपर लटका मेरी ओर देखता हुआ वह दरवाजेके बाहर हो गया। धूल-चलो, मेरे साथ साथ चलो; मैं अभी महाराजके पास जाता हूं । इसीका नाम है 'प्रेमातिरेक' । कामातुर मनुष्योंको इस कामवासनाके पीछे न जाने कौन कौन दुःख उठाने पड़ते हैं ! मनुप्यको जर्जर करने वाले जो छः शत्रु माने गये हैं उनमें अत्यन्त भयकर शत्रु यही 'काम' है । हा ! मुझे उसके लिये बहुत दुःख हो रहा है। क्योंरी ! तुमने उसे कोई कड़ी बात तो नहीं कही ! कम०-नहीं, पिताजी, मैं तो कुछ भी नहीं बोली। पर हां, आपकी आज्ञानुसार उसकी चिठियाँ मैंने अवश्य लौटा दी थीं; और मिलनेसे भी For Private And Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रव २] बलभद्रदेशका राजकुमार । इन्कार कर दिया था। धू०-ठीक है । इसीसे वह पागल हो गया है । हाय हाय ! मैंने बड़ी भूल की जो उसे अच्छी तरह नहीं परख लिया और पहिले ही तुमको उसके साथ मिलनेको मना कर दिया । मुझे इस बातका डर था कि वह तुम्हें अपनी मीठी मीठी बातोंके जालमें फँसाकर अन्तमें मुँहके बल न गिरा दे । पर, यह तो और ही कुछ हो गया । धिक्कार है ऐसी शंकाको ! हम जैसे बुढोंसे हर काममें बिना सन्देह किये रहा नहीं जाता । जैसे युवकोंसे विचारपूर्वक काम नहीं होता, वैसे बुड्ढोंसे भी बिना सन्देह किये साहसका काम नहीं होता। खैर, जो हो गया सो हो गया। अब चलो, महाराजके पास चलें; और यह सारी कथा एक बार उनके कानोंतक पहुँचा दें। क्योंकि, अगर यह बात उनसे छिपाई नाय तो सम्भव है कि उनकी नाराज़गीसे आज हम बच जाय; पर फिर कभी अगर यह बात खुल जायगी तो न जाने हमपर कैसी बीतेगी ! (जाते हैं।) दूसरा दृश्य। स्थान-किलेका एक कमरा । ( राजा, रानी, नय, विनय तथा नौकरचाकरोंका प्रवेश ।) रा०-प्यारे नय और विनय ! तुमलोगोंने यहां आकर मेरी बहुत दिनोंकी इच्छा पूरी की; यह देख आज मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है । कुछ आवश्यक कार्य के ही लिये तुम्हें यहांसे इतनी जल्दीका बुलावा भेजा गया था । यह तुमने सुना ही होगा की जयन्त की चित्तवृत्तिमें इधर थोड़े दिनोंसे बहुत कुछ फेर बदल हो गया है। For Private And Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४ जयन्त [ अंक २ " उसका मन, उसकी शकल उसकी सूरत सब कुछ बदल गया है । इसका कारण जाननेके लिये मैंने बहुत माथापच्ची की ; पर उसके पिताकी मृत्युके सिवा इसका और कोई कारण मेरी समझमें नहीं आता । तुम दोनों बचपन से उसके साथ रहे हो और उसके स्वभावको अच्छी तरह जानते भी हो; इसलिये तुमसे प्रार्थना है कि कुछ दिनोंतक तुम दोनों इसी राज-भवनमें आकर रहो । सम्भव है कि तुम्हारे संग सोहबतसे उसका दिल बहले और उसके मनकी अस्थिरताका कारण भी मालूम करनेका तुम्हें मौक़ा मिले। क्योंकि उसके दु:खका कारण मालूम हो जाने से हमलोग उसको कुछ दवा भी कर सकेंगे । रानी - देखो, महाशयो ! वह बार बार तुम दोनोंकी याद किया करता है ; और तुम्हारे बारेमें उसने मुझसे बहुत कुछ कहा भी है ; जिससे मेरा विश्वास हो गया है कि इस पृथ्वीपर ऐसा और कोई मनुष्य नहीं है जो उसे तुम दोनोंसे अधिक प्रिय हो । इसलिये मेरी यह बिनती है कि हमपर दया करके तुम दोनों कुछ दिनोंके लिये इसी · राज-भवनमें आकर हमारे साथ रहो ; और जयन्तके सुधरने की हमारी आशा पूरी करो । तुम्हारी इस दयाके बदले तुम्हारा उचित सम्मान किया जायगा । नय० - महाराज और रानी साहब ! हम लोग तो आपके चरणोंके दास हैं । आपकी आज्ञाको हम कब टाल सकते हैं ? आपको बिनती करना छोड़ आज्ञा करनी चाहिये । I विन० - रानी साहब ! आपके चरणोंकी सेवा करनेके लिये हम लोग जी जानसे तैयार हैं। रा० - महाशयो, इस स्वामि-भक्तिके लिये तुम्हें अनेक धन्यवाद हैं। O For Private And Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य २] बलभद्रदेशका राजकुमार । रानी-महाशयो, तुम्हारी इस नम्रताको देख मैं भी तुम्हें धन्यवाद देती हूं; और साथ ही साथ प्रार्थना भी करती हूं कि तुम लोग अभी जाकर मेरे जयन्तसे मिल लो। ( नौकरोंकी ओर देखकर) जाओ, तुममेंसे कोई इन महाशयोंको जयन्तके पास ले जाओ। विन-परमात्मा करे हमारा यहां आना और हमारे उपाय जयन्तके लिये सुखकर तथा उसके सुधारनेमें सफल हों ! रानी-तथास्तु ! (नय, विनय और कुछ नौकर चले जाते हैं।) धूर्जीट प्रवेश करता है। धू.-महाराज ! शाकद्वीप गये हुए वकील कुशलपूर्वक लौट आए हैं। रा०-सचमुच, आप सदा सुवार्ता ही सुनाते हैं । धूल-मैं ? महाराज, मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि राजसेवा और ईश्वरसेवामें मैं कुछ भी भेद नहीं समझता । जिस प्रकार. आत्माको ईश्वरकी सेवामें लगाना मैं अपना कर्तव्य कर्म समझता हूँ उसी प्रकार शरीरको राजसेवामें लगाना भी अपना मुख्य कर्तव्य मानता हूँ । महाराज जानते ही हैं कि कैसी ही गुप्त बात ढूंढ निकालनेमें इस बुढेकी बुद्धि कैसी निपुण है । अस्तु, अब महाराजको एक और भी सुर्वाता सुनानी है । वह यह है कि जयन्तके पागल. पनका कारण इस सेवकने ढूंढ निकाला है । रा०-कहिये, जल्दी कहिये,-क्या कारण है ? उसे सुननेके लिये मैं बहुत उतावला हो रहा हूं। धू०-महाराज ! पहिले वकीलोंको बुलवाकर उनकी बातें सुन For Private And Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त [ अंक २ लीजिये । फिर मैं भी अपनी बात कह दूंगा। रा०-अच्छा, आप ही जाकर उनको लिबा लाइये । (धूर्जटी जाता है । ) प्रिये ! सुना, अभी वह क्या कह रहा था ? वह कहता था कि मैंनें जयन्तके पागलपनका कारण ढूँढ निकाला है। रानी-पिताकी मृत्यु और अपना जल्दी २ विवाह कर लेना, इसके सिवा और क्या कारण होगा ? रा०-अच्छा, देखें, वह क्या कहता है । (धूर्जटीके साथ जय और विजय प्रवेश करते हैं।) रा०-मित्रो, आओ, बैठो । कहो, अच्छे तो हो न ! जय, शाकद्वीपसे क्या खबर लाये हो ? ज०-महाराजकी इच्छानुसार सब काम ठीक हो गया । मेरी पहली ही भेटमें शाकद्वीपके महाराजने अपने भतीजेको लुटेरे जमा करनेसे रोक दिया । वे समझते थे कि उनका भतीजा पोलोमसे युद्ध करनेकी तय्यारीमें लगा है ; परन्तु जब उन्होंने उसके विषयमें खूब जांच कर ली तब उन्हें हमारी बातोपर विश्वास हो गया कि सचमुच वह बलभद्रदेशके विरुद्ध ही उठ खड़े होनेकी तय्यारी कर रहा है। उन्हें इस बातपर बड़ा दुःख हुआ कि उनका भतीजा उनकी बीमारी, बुढ़ौती और दुर्बलताकी वजहसे ये सब कुचालें कर रहा है । उन्होंने फौरन् उसे ऐसा करनेसे मना कर दिया । चचाकी आशा पाते ही युधाजितने हम लोगोंपर चढ़ाई करनेका इरादा एकदम छोड़ दिया; और चचाके सामने सौगन्द खाई कि बलभद्रदेशके विरुद्ध मैं अपने हाथमें शस्त्र कभी न उठाऊँगा । इसपर उसके बुढे चचाको बहुत आनन्द For Private And Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य २ ] बलभद्रदेशका राजकुमार । ४७ हुआ । उन्होंने अपने भतीजेके नाम वार्षिक तीन लाख रुपयेका पारितोषिक लिख दिया; और बलभद्रदेशपर चढ़ाई करनेके लिये जो सेना इकट्ठी की गई थी उसे लेकर पोलोमपर चढ़ाई करनेकी उसे आज्ञा दी । और इस चढ़ाईपर सेना सहित महाराजके राज्यसे होकर जानेकी आशा पानेके लिये उन्होंने यह पत्र दिया है । इसीमें सब शर्तें भी लिखी हुई हैं । रा०-- -शाबाश ! तुम्हारे कामसे हमलोग बहुत प्रसन्न हुए । कभी शान्तिके समयमें इस पत्रको पढ़ लूंगा; और विचार करके फिर इसका उत्तर दिया जायगा । तुम लोगोंने बहुत अच्छी तरह अपना काम किया ; इस लिये हम लोग तुम्हें धन्यवाद देते हैं । जाओ, अब कुछ दिन तुमलोग विश्राम करो । आज रातको हम सब साथ ही भोजन करेंगे । जाओ, ज़रा आराम करो । ( जय और विजय जाते हैं । ) धू० - यह काम अच्छा निपटा । अस्तु, महाराज और महारानी साइब ! राजा क्या है, कर्त्तव्य क्या है, दिन दिन है, रात रात है, और समय समय है; इन बातोंपर बहस करना मानो दिन, रात और समयको नष्ट करना है । संक्षेप में बोलना बुद्धिमानी है; और अलंकार युक्त भाषण करना अपना पाण्डित्य दरसाना है । इसलिये मैं अपनी बात संक्षेपमें ही कहूँगा । आपका पुत्र पागल है; कमसे कम मैं उसे पागल कहता हूँ ; क्योंकि सच्चे पागलपनकी व्याख्या करना और पागलको पागल कहना एक ही बात है । खैर, इस बातको जाने दीजिये । रानी - इन अलंकारोंकी ज़रूरत नहीं है । जो कहना हो संक्षेपमें कहिये । For Private And Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त [अंक २ __धू०--रानी साहब ! मैं कसम खा सकता हूं कि अलंकारकी भाषामें मैं कभी बोलता ही नहीं। वह पागल है ; यह बात सच है। वह सच है, यह दुःखकी बात है । और शोक है कि यह सच है । यह अलंकार भद्दा है । खैर, जाने दीजिये, क्योंकि मैं अलंकारयुक्त बोलना नहीं चाहता । मान लीजिये, वह पागल है । इसका सबब क्या है ? या या कहिये, उसके पागलपनका क्या कारण है । बस, अब यही बात रह गई; और वह यह है । अच्छा, अब ध्यानसे सुनिये । मेरी एक कन्या है । ' मेरी ' मैं इस लिये कहता हूँ कि जबतक वह मेरे अधीन है तबतक वह मेरी ही है । उसने अपना कर्तव्य जान मेरी आज्ञानुसार यह पत्र मेरे हवाले किया । मैं पढ़ता हूँ ; आप सुनिये । और सुनकर अनुमान कर लीजिये । (पढ़ता है।) ___“ स्वर्गाङ्गने, मदात्मार्चिते, लावण्य-लतिके, प्रिय कमले, "छिः छिः, कैसा भद्दा समास है ? ' लावण्य लतिके,'-राम राम, बहुत ही भद्दा समास है । खैर, आगे सुनियेः- (पढ़ता है।) " अपने निर्मल तथा कोमल अन्त:करणमें "रानी-क्या यह कमलाके नाम मेरे जयन्तको भेजी चिट्ठी है ? धू-रानी साहब ! ज़रा धीरज रखिये । जो कुछ मुझे ज्ञात है वह सब मैं आपसे निवेदन करूँगा । (पढ़ता है। ) " नक्षत्रगणके तेजमें संदेह चाहे तुम करो ; हाँ, सूर्यके भी घूमनेमें शक भले ही तुम करो; तुम सत्यकी भी सत्यतामें कर सको सन्देहको, पर न समझो झूठ मेरे आन्तरिक इस नेहको।" " प्यारी कमला, क्षमा करना, मैं कविता करना नहीं जानता । For Private And Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य २ ] बलभद्रदेशका राजकुमार । मुझमें इतनी योग्यता नहीं कि, मैं अपने भावोंको कवितामें तुमपर प्रकट कर सकूँ; पर विश्वास रखना, मैं तुम्हें अपने प्राणोंसे भी अधिक चाहता हूँ । तुम्हारा निरन्तर प्रेमी जयन्त । 37. मेरी आज्ञाधारी लड़कीने यह पत्र मुझे दिखला दिया । और भी जो जो बातें जयन्तने अवसर पाकर उससे कही थीं वे सब उसने मुझसे कह दी हैं । रा०—पर उसके प्रेमको वह किस दृष्टिसे देखती है ? धू० - आप मुझे किस दृष्टिसे देखते हैं ? रा० - मैं आपको आज्ञाधारी और विश्वसनीय पुरुष समझता हूँ । धू० बस, मैं भी यही चाहता हूँ कि महाराजको इस बातका प्रत्यक्ष प्रमाण मिल जाय । कमलाके मुँह सुननेके पहिले ही मैं ताड़ गया था कि जयन्तका दिल उसपर लगा है; और यह बात मालूम होनेपर भी मैं यदि चुपचाप बैठा रहता, या उस भोर आनाकानी करता तो, महाराज और आप - रानी साहब, मेरे विषय में आपलोग क्या सोचते ? पर नहीं, - मैंने वैसा नहीं किया; किन्तु उन दोनोंको प्रेमजालसे बचानेका उद्योग करने लगा मैंने अपनी बेटीसे कह दिया कि जयन्त राजकुमार है । उसकी और तुम्हारी बराबरी नहीं हो सकती ; इस लिये उससे तुम्हारा विवाह होना असम्भव है । और मैंने यह भी कह दिया था कि तुम घर के अन्दर ही रहा करो - उसके सामने बहुत आया जाया न करो । यदि उसकी For Private And Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५. जयन्त [ अंक ओरसे कोई कुछ सन्देसा ले आए तो उससे मिला ही मत करो; और न उसकी कोई भेंट ही स्वीकार करो । इन सब बातोंकी सूचना पाते ही वह वैसा ही बर्ताव करने लगी। उसका ऐसा बर्ताव देख पहिले तो वह निराश हुआ ; फिर उसपर उदासी छा गई; खानेसे उसकी रुचि हट गई ; लब उसे अनिद्रारोग लगा, जिससे शरीर दुर्बल होगया; और शरीरकी दुर्बलतासे मगज़ खाली हो गया । इस प्रकार उसकी अवस्था बिगड़ती २ यहांतक बिगड़ी कि वह पागल हो गया । न जाने कबतक यह भोग उसे भोगना है ! रा०-उसके पागलपनका क्या यही कारण होगा ? रानी-हां, हो सकता है। - धूल-इसमें सन्देहकी क्या बात है ? क्या ऐसा भी कभी हुआ है कि मैंने कहा कुछ और हुआ कुछ और ? यदि हुआ हो तो कह डालिये, स्वीकार करनेके लिये मैं प्रस्तुत हूँ। रा०-नहीं, मेरे स्मरणमें तो ऐसा कभी नहीं हुआ। धू०-यदि मेरी बात असत्य हो जाय तो मेरा सिर धड़से अलग कर दिया जाय । सत्यको ढूंढ निकालना मेरा काम है । समय और सामग्री अनुकूल हो तो पृध्वीके गर्भसे भी मैं उसका पता लगा सकता हूँ। रा०-अस्तु, अब क्या करना चाहिये ? - धू०-आप जानते ही हैं कि वह चार चार घण्टेतक बराबर इसी आंगनमें टहला करता है। रानी-हां, टहला करता है । फिर ? - धू०-ऐसे ही अवसरपर कमलाको उसके पास भेज देना चाहिये। For Private And Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य २] बलभद्रदेशका राजकुमार । हमलोग परदेकी ओटमेंसे उनकी सारी बातें सुनकर निश्चय करलेंगे कि उसके पागल होनेका कारण कमलापर उसका प्रेम ही है या और कुछ । यदि मेरा कहना झूठ हो जाय तो मैं मन्त्रीका काम छोड़कर हल जोलूँगा। रा०-अच्छा, यही सही । रानी-पर देखिये, वह कोई पुस्तक पढ़ता हुआ इधर ही आ रहा है । चेहरेपर कितनी उदासी छाई हुई है ! धू०-महाराज, क्षमा कीजिये । थोड़ी देरके लिये आप लोग कहीं दूसरी ओर चले जाय । इसी समय मैं उससे कुछ बोलना चाहता हूँ । ( राजा, रानी और सेवक लोग जाते हैं । ) ( जयन्त पुस्तक पढ़ता हुआ प्रवेश करता है । ) धू०-महाराज जयन्तकुमार ! सब कुशल तो है ? जयन्त-परमात्माकी दयासे सब कुशल है । धू०–महाराज ! आपने मुझे पहिचाना ? जयन्त-हां, हां, बहुत अच्छी तरह । आप मछुआ हैं । धू०-मैं मछुआ नहीं हूँ , महाराज । जयन्त-तो आप ईमान्दार होते तो बहुत अच्छा होता । धू०-ईमान्दार ! जयन्त-हां हां, ईमान्दार । समय ऐसा विचित्र है कि दस हजारमें एक भी ईमान्दार आदमी मिलना कठिन है । धू०-आपका कहना बहुत सच है ; महाराज । जयन्त-(जरा सोचकरके ) हां, यदि सूर्य-किरण कुत्तेकी लाशका चुम्बन करें तो उस लाशमें कीड़े पैदा होते हैं, उसी प्रकार For Private And Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२ जयन्त [ अंक २ कोई भला आदमी अगर नीच स्त्रीका चुम्बन करे तो......पर हां, आपके एक कन्या भी तो है ? धू०-हां, है, महाराज । जयन्त-तो उसे बाहर निकालकर सूर्य-किरण न दिखलाइये । अन्दर परदेमें ही रक्खा करिये । नहीं तो उसके शरीरमें भी कीड़े पड़ जायँगे । ऐसा होना कुछ बुरा तो नहीं है; पर न जाने उसके कैसे विचार हैं ! इस लिये कहता हूं कि, भाई, देखो, उसे सम्भाले रहो । धू०-( एक ओर ) वाह रे मैं ! और वाह री मेरी बुद्धि ! धूर्जटि ! अब क्या सोचते हो ? अब तो तुम्हारे किये हुए भविष्य - की सचाई इसीकी बातोंसे सिद्ध हो गई । अभीतक यह उसीके ध्यानमें मगन है । पर, मुझे देखते ही न पहिचान सका ;-कहता है कि तुम मछुआ हो । यह बिलकुल बहक गया है । पर इस बिचारेको ही मैं क्यों दोष दूँ ? मेरी भी तो इस अवस्थामें कामज्वरसे यही दशा हुई थी । अस्तु, फिर एक बार उससे कुछ बोलना चाहिये। (प्रकाशमें ) महाराज, आप क्या पढ़ रहे हैं ? जयन्त-शब्द, शब्द, शब्द ! धू -उनमें क्या विषय है ? जयन्त-किनमें ? धू०-महाराज, मैं यह पूछता हूं कि जो आप पढ़ रहे हैं उसमें क्या लिखा है ? . . ... जयन्त-इसमें तो निन्दा ही निन्दा भरी है । जिस दुष्ट निन्दकने यह पुस्तक लिखी है वह यह कहता है कि बूढ़ोंकी दाढ़ी For Private And Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य २ ] बलभद्रदेशका राजकुमार । ५३ भूरी हो जाती है । उनके चेहरेपर झुर्रियाँ पड़ जाती हैं । आँखों में पीला पीला लासेदार गोंद जम जाता हैं । उनकी बुद्धि मारी जाती है । उनके घुटने बहुत ही कमज़ोर हो जाते हैं । तात्पर्य, लेखकने बुड्डों का बहुत ठीक वर्णन किया है। इस वर्णन से तो मैं पूरी तौर से सहमत हूँ ; पर किसीके विषयमें ऐसा लिख मारना असभ्यता कहाती है । और आपके विषय में तो मैं यह सोचता हूं कि यदि केकड़ेकी भांति आप पीछे हट सकते तो बहुत शीघ्र मेरे जैसे नवयुवक बन जाते । धू० – ( एक ओर ) यह पागल तो है ही; पर बात बड़े ढंगसे करता है । ( प्रकाशमें ) महाराज, कहीं हवा खाने चलियेगा ? जयन्त — कबूमें चलूँगा । धू ०. -महाराज, कबूमें हवा नहीं होती । ( एक ओर ) किसी किसी समय यह कैसे मार्मिक उत्तर देता है । पागलपनमें कभी कभी ऐसी बातें सूझती हैं जो होश लाख सिर पटकनेपर भी नहीं सूझतीं । खैर, अब इसे यहीं छोड़ जाता हूँ; और कमलाको इससे मिलानेका कोई उपाय सोचता हूँ । ( प्रकाश ) अन्नदाताजी ! मैं अब आज्ञा लेता हूँ । जयन्त - प्राण छोड़कर चाहे जो लीजिये ; जाइये, जाइये । धू० जाता महाराज । परमेश्वर आपकी रक्षा करे ! " जयन्त- - अब ये मूर्ख माथा चाटने आ गए । ( नय और विनय प्रवेश करते हैं । ) धू० - क्या तुमलोग महाराज जयन्तकी खोजमें हो ? जाओ, वे वहीं हैं । For Private And Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त [ अँक २ नय-आपने बड़ी कृपा की । परमेश्वर आपकी रक्षा करे ! नय-महाराज ! विन०-सरकार ! जयन्त मेरे प्यारे मित्रो ! कहो, क्या खबर है ? कहो विनय ! और क्यौंजी नय ! कुशल तो है ? नय-महाराज, हम जैसे मध्यम स्थितिके मनुष्योंका कुशल आप क्या पूछ रहे हैं ? विन०-लक्ष्मीकी हमपर अत्यन्त कृपा न हुई यही हम कुशल समझते हैं। जयन्त-उसकी तुमपर बिलकुल अवकृपा भी नहीं है; यह भी तुम्हें कुशल समझना चाहिये। नय-महाराज, आपका भी कहना बहुत ठीक है ।। जयन्त–खैर, कहो, क्या समाचार है ? नय-विशेष कुछ भी नहीं । सब लोग अपना अपना कर्तव्य कर रहे हैं। ___ जयन्त-सच ! तो अब यही समझना चाहिये कि प्रलयकाल बिलकुल समीप है । पर यह समाचार बिलकुल झूठ है । अस्तु, अब मैं तुमसे साफ़ २ पूछता हूं:-मित्रो, तुमने अपने भाग्यका क्या बिगाड़ा था जो उसने तुम्हें इस कारागारमें लाकर पटक दिया ! विन-कारागार ! जयन्त-हां हां, कारागार । बलभद्रदेश आजकल कारागार बन गया है। नयबलभद्र एक सुखी और स्वतन्त्र देश होकर भी अगर For Private And Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य २ ] बलभद्रदेशका राजकुमार । वह आपको कारागार जान पड़ता है तो आपके मतसे समस्त पृथ्वी कारागार ही होनी चाहिये । जयन्त-दां हां, समस्त पृथ्वी कारागार है । संसार रूपी कारागारमें अनेक छोटे छोटे कैदखाने, कालीकोठरियाँ, तहखाने, भुँआर इत्यादि बने हुए हैं । उनमें से बुरे से बुरा काराग्रह यह बलभद्रदेश है । नय - महाराज ! हमलोग इस बलभद्रदेशको ऐसा भयानक नहीं समझते । जयन्त - फिर तो तुम्हें कुछ भी न समझना चाहिये । क्योंकि इस संसार में कोई वस्तु अच्छी या बुरी निश्चित नहीं है । मन उसे अच्छी या बुरी बनाता है । इस हिसाब से बलभद्र मेरे लिये कारागार ही है । नय - आपकी महत्वाकांक्षा के कारण आपको यह ऐसा जान पड़ता है । आप बड़े बड़े बांधनू बांधते हों, और उनके लिये यदि यह बलभप्रदेश आपको बहुत छोटा नज़र आता हो तो कोई आश्चर्य नहीं । जयन्त— नहीं नहीं ; आजकल रातको मुझे बुरे स्वप्न दिखाई देते हैं । जो ये न दिखाई देते तो मैं बित्ताभर ज़मीनपर ही अपना गुज़ारा कर अपनेको सारे संसारका स्वामी समझ लेता । विन०- बहुत ठीक; आपके स्वप्न भी वैसे ही होते होंगे जैसे आपके विचार हैं । जबसे बड़े बनने की धुन आपपर सवार हुई तभी से आप स्वप्नोंसे हैरान होते होंगे । बड़प्पनकी इच्छा करना, मनमें उसीकी धुन लगी रहना और स्वप्नकी बातोंपर विश्वास करना, एकसा है I जयन्त - अजी, स्वप्न ही झूठ है तो उसमें देखी बातोंपर भला कौन विश्वास करेगा ? For Private And Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त [अंक २ विन०-आप बहुत ठीक कहते हैं ; और मेरी तो यह राय है कि स्वप्नकी बातोंपर विश्वास करनेसे बड़े बननेकी इच्छा करना और भी बुरा है ; क्योंकि वह स्वप्नका भी स्वप्न है। जयन्त-आपके न्यायशास्त्रसे जितने निकम्मे और भिखमंगे लोग हैं वे सब अच्छे और सच्चे हैं ; क्योंकि वे स्वप्नके स्वप्न नहीं देखा करते । और नाम कमानेवाले बड़े बड़े वीर योदा और राजा महाराजा सबके सब निकम्मे होते हैं : क्योंकि वे स्वप्नके स्वप्न देखा करते हैं । जो हो, मैं बहस नहीं करना चाहता । आपलोग मेरे साथ महलकी ओर चलेंगे ? नय०, विनय-आप आगे हों, हमलोग पीछे पीछे चलते हैं । जयन्त-नहीं, नहीं, नहीं, आजकल मेरे पीछे इतने नौकर पड़े हैं जिनसे मेरे नाकों दम आ गया है । पर, मित्रो, मैं तुमसे मित्रताके नाते पूछता हूं कि यहाँ किस लिये आए हो । ___ नय-महाराज, आपके दर्शनके लिये ; और कोई बात नहीं । जयन्त-इस कृपाका बदला देनेके लिये मेरे पास कुछ भी नहीं है; पर एक वस्तु है जिसे मेरे दममें दम रहते मुझसे कोई नहीं ले सकता । तुम्हारे इस प्रेमके लिये मैं तुम्हें धन्यवाद देता हूँ । पर, अब पूछना यह है कि तुम लोग यहां यों ही चले आए ?-अपनी खुशीसे आए ? या किसीने किसी मतलबसे तुम्हें यहां भेजा है ? देखो, मेरे साथ कपट न करो । जो हो, सचसच कह दो। विन०-अब आपके सामने क्या कहें, महाराज ! जयन्त-क्यौं ? क्या हुआ ? जो इच्छा हो कह डालो; पर जो कहना हो सत्य और सार्थ कहो । तुमलोगोंका यहां आना हो इस For Private And Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य २] बलभद्रदेशका राजकुमार। लिये तुम्हें किसीने बुला नहीं भेजा था ? अजी, तुमलोग कहांतक डिया ओगे ? क्या बात है वह तुम्हारे चेहरेसे झलक रही है; जिसे छिपाना भी तुमसे न बन पड़ा । मैं जानता हूँ तुमलोगोंको मेरी मा और चचाने इधर चले आनेके लिये कह भेजा था । क्यों ? नय-अच्छा बताइये, किसलिये ? । जयन्त-मुझे सिखानेके लिये । पर, प्यारे नय और विनय ! तुमलोग मेरे मित्र हो; तुम्हें मेरे गलेकी सौगन्द है, सच बतलाओ कि मेरे चाचा और माने ही तुम्हें यहाँ बुला भेजा था न ? नय-(एक ओर विनयसे) कहो, अब क्या कहते हो ? जयन्त-(स्वगत) अजी, तुमलोग लाख छिपाया करो पर मैंने सब ताड़ लिया है । (प्रकट) प्यारे मित्रो ! यदि तुम मुझे अपना मित्र समझते हो तो सच सच कह दो । विन०-महाराज ! हमलोगोंको उन्होंने ही बुला भेजा था । जयन्त-ठीक है । अब मैं ही बतला देता हूँ कि उन्होंने तुम्हें किस लिये बुलाया है । और अगर मैं खुदही कह दूंगा तो महाराज और महारानीने तुमलोगोंपर जो विश्वास किया है उसमें किसी तरह फर्क न आवेगा। इधर कई दिनोंसे मेरी तबियत बिगड़ गई है ; किसी बातमें दिल नहीं लगता । चारों ओर उदासी ही उदासी नजर आती है। न कहीं जानेकी इच्छा होती है और न कहीं बैठनेको जी चाहता है; और तो क्या, वसुन्धरादेवीका यह रम्य निकेतन बलभद्रदेश भी मुझे निर्जन और सूखे जंगलके समान मालूम होता है; दिव्य तारकारत्नोंसे सिंगारा हुआ यह दैदीप्यमान आकाशमण्डल भी मुझे तेजहीन प्रतीत होता है; और यह हवा जो पृथ्वीके ओरसे छोरतक भूमण For Private And Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त [अंक २ करती हुई प्राणियों और वनस्पतियोंमें जान लाती है वह भी मुझे रोग और दुर्गन्ध फैलाने वाली मालूम होती है। मनुष्य भी कैसी अद्भुत कारीगरीका नमूना है ! उसको बुद्धि की कैसी महिमा है ! उसकी कल्पनाएँ कितनी ऊँची हैं ! शकल सूरत और चलना फिरना कैसा मनोहर लगता है ! उसका बोलना देवदूतके समान मधुर है ! और उसकी ग्राहकता तो साक्षात् परमेश्वरकी तरह है। संसारमें सबसे सुन्दर और जीवोंमें सबसे श्रेष्ठ जीव यही है ; ताप्तयं, ब्रम्हाने जो सृष्टि उत्पन्न की उसका यह सबसे अच्छा नमूना है। पर मुझे इन पञ्चमहाभूतोंकी सृष्टिसे ज़रा भी आनन्द नहीं आता । न मुझे पुरुषको देखकर सुख होता है; न स्त्रीके सौन्दर्य से ही दिल बहलता है । तुम हँसते हो-तुम्हें यह सब झूठ मालूम होता है । खैर।। नय-महाराज, सचमुच, ऐसी बात तो कभी मेरे मनमें भी नहीं आई। जयन्त-तो जब मैंने कहा कि स्त्री पुरुषको देखकर मुझे आनन्द नहीं आता, तब तुम क्यों हँसे ! नय-मैंने यह सोचा कि अगर मनुष्यको देखकर आपको आनन्द नहीं होता तो आप नाटकवालोंको क्या आश्रय देंगे ? वे लोग राहमें मिले थे; और आपके चरणोंकी सेवा करनेके लिये वे इधर ही आ रहे हैं । जयन्त-अजी, यह कहांकी नाटक-कंपनी है ? क्या यहां उनका यथोचित आदर सत्कार होगा ! नय-महाराज, वह यहींकी नाटक मण्डली है । आप उसकी प्राय: प्रशंसा किया करते हैं; और आप जानते हैं कि दुःखान्त नाकट खेलनेमें वह इस समय फ़र्द है । For Private And Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५९ है कि, वह धन भी खूब कमाती थी । फिर वह नगर नगर क्यों भटकती है ? नय - मैं समझता हूं कि इधर नाटकोंमें जो नया ढंग निकल पड़ा है इससे उसे बाहर जाना पड़ा हो । दृश्य २ ] बलभद्रदेशका राजकुमार । जयन्त — यहां उसकी बड़ी प्रसिद्धी है ; और सुना जयन्त - क्या उसकी अब भी वही इब्बत है ? तमाशबीनोंकी वैसी ही भीड़ होती है ? नय - नहीं महाराज, पहिली बात तो अब नहीं रही । जयन्त - क्यों, ऐसा क्यों हुआ ? क्या मण्डली मुर्चा खा गई ? नय— नहीं, नहीं, बात यह है कि आजकल नाटकों में लड़कों की ही बात और इज्ज़त है । रंगमँचपर ज़रा ज़रासे लड़के आते हैं; नाचते हैं, गाते हैं, मटकते हैं; उसीमें लोग मस्त रहते हैं । ताल सुरका ख्याल कौन करता है ! मतलब कौन देखता है ? अभिनय कौन समझता है ? आँखोंको तो ये ही बने ठने लड़के अच्छे लगते हैं । इन्हीं चलती है । सब कंपनियोंका यही हाल है ! जयन्त - क्या कहा, ये जरा जरासे लड़के हैं ? इन्हें सम्भालता कौन है ? इनकी जीविका कैसे चलती है ? घर छोड़ ये नाटकोंमें कैसे आ जाते हैं ? और इनकी आवाज़ बिगड़नेपर ये कैसे अपना पेट भरेंगे १ दाढ़ी मोछ निकल आनेपर और चेहरेकी रौनक जानेपर इनका क्या हाल होगा ? लड़कई है तबतक किसी तरह समय बिता रहे हैं । खाने पीनेकी कोई फ़िक्र नहीं । अच्छा खाना मिलता है, अच्छे कपड़े मिलते हैं, शौकीनीका हौसला पूरा करते हैं; और रात दिन स्वार्थी, लंपट और नीच लोगोंकी संग सोहबत में रहते हैं । इनकी बड़ी दुर्गति होती है । पीछे बहुत पछताते हैं । For Private And Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६० जयन्त [ अंक २ ---- नय - इसके लिये छोटे बड़े दोनों नट दोषी हैं । कई दिन इस प्रश्नकी मीमांसा होती रही । यहांतक कि एक बार नाटकवालों में दो दल बन गए ; और वे एक दूसरेसे लड़नेके लिये भी तैय्यार हो गये थे । www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir deadm जयन्त - क्या यह सच बात है ? विन ० - क्या कहूं, महाराज, बुद्धिमानोंने अपने हजार काम छोड़ इस काममें दखल देना बुद्धिमानी मान ली है । जयन्त–पर जो लड़के बिगड़ते चले हैं वे भी इससे कुछ लाभ उठाते हैं ? विन० नयाँ, हाँ, महाराज, पूरी तरहसे लाभ उठाते हैं । जयन्त - बड़ा आश्चर्य है ! या इसमें आश्चर्यकी बात ही क्या है ? मेरे पिताजी जब जीते थे तब मेरे चाचाको लोग बड़ी घृणाकी दृष्टिसे देखते थे; पर अब, -जब वे राजगद्दी पर हैं तब उन्हीकी मामूली से मामूली तस्वीर दस दस बीस बीस, पचास पचास और सौ सौ रुपये में बिकती है; और लोग बड़ी खुशीसे खरीदते हैं । परन्तु यह बात अस्वाभाविक है । " ( वाद्योंकी आवाज सुनाई पड़ती है | ) ● -शायद, नाटकवाले आ गए । जयन्त-सजनो ! आप लोगोंने यहां आनेका कष्ट उठाया, इस लिये आपके धन्यावद हैं धन्यवाद देना, और नमस्कार करना या हाथ मिलाना लौकिकी रीति है । पर यह मैं कहे देता हूं कि मेरे चाचा और माने बड़ी भयङ्कर भूल की है। विन० - किस बातमें, महाराज १ ? For Private And Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य २ ] बलभद्रदेशका राजकुमार । ६१ जयन्त - अरे भाई, मैं तो पागलसे भी पागल हूँ; पर जब मैं शिकार करने जाता हूँ तो शिकार पहिचानता हूँ । ( धूर्जटि प्रवेश करता है । ) धू० – सज्जनो ! सब कुशल तो है ? जयन्त - सुनते हो जी, विनय ! और नय, तुम भी ! इस बुड्ढे बचेके बदनसे अभी बचपनके कपड़े नहीं उतरे । नय – सौभाग्यसे अगर फिर बच्चा बननेका अवसर आ गया है तो वे उन्हें क्यों उतारें ? क्योंकि बुद्धों का स्वभाव करीब करीब बच्चों के ऐसा ही हुआ करता है । जयन्त- - वह आया है, मुझे नाटकवालोंके आनेकी खबर देनेके लिये । ( धूर्जटिसे ) क्या आपका यही कहना है कि वे सोमवारको सबेरे आये ? ठीक ठीक, आपका कहना बहुत ठीक है । धू० - महाराज ! आपको एक खबर सुनानी है । जयन्त - महाराज ! आपको एक खबर सुनानी है । जब रोमक नगर में चित्रवर्ण नाटक करता था...... धू०- - महाराज ! नाटकवाले यहां आये हैं । ·--- जयन्त - बिल्कुल झूठ, सरासर धोखेबाजी ! -- 1 धू० - नहीं, महाराज, आपके सिरकी सौगन्द खाके कहता हूं जयन्त — हाँ हाँ, मैं जानता हूं, आपको मेरे सिरकी कितनी भारी चिन्ता है । धू० - महाराज ! संसारमें यदि कोई नाटक कंपनी है तो बस, यही है । आप उससे चाहे जैसा नाटक करा लीजिये-योगान्त, वियोगान्त, ऐतिहासिक, सृष्टि - सम्बन्धी, सृष्टिसम्बन्धी - आनन्द - पर्यवसायी, For Private And Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६२ जयन्त [ अंक २ ऐतिहासिक सृष्टिसम्बन्धी, शोकान्त ऐतिहासिक, योगान्त-वियोगान्त ऐतिहासिक-सृष्टिसम्बन्धी, अविभक्त प्रवेश अथवा अखण्ड कवितातात्पर्य, नाटककी जितनी बातें हैं उन सबमें यह पटु है; सामना हो जानेपर किसीसे हार जाने वाली नहीं । कालिदासकी मृदुता तथा भवभूतिका मधुर काठिण्य दोनोंका चित्र ये लोग खींच सकते हैं । जयन्त-क्यौँ महाशय ? उस बुड्ढे कण्वके पास एक कैसी अनमोल वस्तु थी ? धू-वह कौनसी, महाराज ? जयन्त-आप नहीं जानते ? उसके एक सुन्दर रूपवती कन्या थी, जिसपर उसका बड़ा प्रेम था । धू०-(एक ओर ) अभीतक कमलाको यह भूला नहीं । जयन्त-कहिये, कण्वमुनीजी ! मैं सच कहता हूँ या झूठ ? धू०-महाराज ! मेरे एक लड़की है ; इसी लिये आप मुझे वृद्ध कुण्वमुनी कहते हैं । मेरे लड़की ज़रूर है ; इस लिये मुझे यह बात स्वीकार करनी ही पड़ेगी। जयन्त-नहीं, इसकी क्या ज़रूरत है ? धू०-तब किसकी ज़रूरत है ? जयन्त-बात यह है; कर्मकी रेखा कोई मिटा नहीं सकता। जो भाग्यमें बदा होगा वही होगा । उसमें हमारा आपका बस नहीं चल सकता । होनहार कोई रोक नहीं सकता । खैर, ये कोन हैं ? (चार पाँच नट प्रवेश करते हैं ।) आइये, आइये । आप लोग आगए; बहुत अच्छा हुआ । आप लोगोंको देखकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ। ऐ मेरे प्यारे मित्र ! पिछली बार For Private And Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य २] बलभद्रदेशका राजकुमार । जब तुमसे भेट हुई थी तब तो तुम्हारा चेहरा बिल्कुल साफ़ था । अब रेख निकल आई है । बहुत सुहावना लगता है । और आप महाशया ! गत वर्ष जब आपके दर्शन हुए थे तब तो स्वर्ग पहुँचनेमें आपको दो सीढ़ियाँ बाकी थीं; पर अब तो एक ही सीढ़ी बाकी है। आपकी आवाज फूटे रुपयेकी तरह बदबदाने तो नहीं लगी ? ईश्वर बचावे ! और आवाज़ वैसी हो भी जाय तो कोई पर्वाह नहीं । गंभीर समुद्रकी तरह हमलोग सबकुछ ले लेते हैं । अच्छा, तो नि:संकोच होकर हमें कोई नकल सुना दीजिये । देख तो सही, आजकल आपके गानेपर कैसी तैय्यारी है । ऐसी नकल सुनाइये कि जिसे सुनकर कलेजा काँप उठे। प० न०-कौनसी नकल सुनाऊँ, महाराज ? जयन्त-मैंने वह नकल एकबार तुम्हारे मुँह सुनी थी; पर रंगमंचपर उसको किसीने न कर दिखाया; और किया भी हो तो, बस, एक बार किया होगा; क्योंकि, मुझे याद है कि वह खेल लोगोंको पसंद नहीं आया। पर मैं तथा और भी कई नाट्यकलाभिज्ञ उस खेलको बहुत ही अच्छा समझते हैं। उसके दृश्य, नटोंके भाषण तथा अभिनय और नाटकका खूबीदार प्लाट मुझे तो बहुत ही अच्छा लगा । एक व्यक्तिने उस समय कहा था कि, इस नाटकमें न कोई अच्छा भाषण है और न अच्छे अच्छे गान ही । फिर भी मेरी राय यही है कि भाषा बहुत साफ़ थी और अच्छी थी। उसमें एक गान तो मुझे बहुत ही पसन्द आया। द्रोणाचार्यने अश्वत्थामाके मरनेकी खबर सुनी, उस समयका वह गान है । खासकर धृष्टद्युम्नके द्रोणाचार्यका वध करनेका वर्णन बहुत ही मनोहर है । अगर याद हो तो सुनाओ। मैं तबसे याद कर रहा हूँ; पर याद नहीं आता कि उसका आरम्भ कहांसे हुआ है । ( सोचता है।) For Private And Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८४ जयन्त [अंक द्रोणने सुनी कठोर-- नहीं नहीं, 'अश्वत्थामा' इसी शद्वसे उस गानका आरंभ है । अश्वस्थामाके मरनेकी बात द्रोणने सुनी कठोर । पुत्र शोकसे शोकाकुल हो करसे स्यजी धनुषकी डोर । मरा प्राण प्रिय पुत्र जानकर धैर्य ज़रा न रहा मनमें । ज्ञात नहीं था उन्हें मरा है अश्वत्थामा गज रनमें । पुत्र कहाँ है लगे देखने सिर नतकर योगिक बलसे । अवसर पाकर धृष्टद्युम्नने काट लिया मस्तक छलसे ॥ अच्छा, अब इसके आगे कहो; देखें तो सही कैसा कहते हो। धू०-वाहवा ! महाराज ! क्या बात है ! आपने तो साक्षात् गन्धर्वके समान गाकर दिखला दिया। प० नट-हुमा पितृवध जान पुत्रने किया दुःखसे हाहाकार । धृष्टद्युम्नकी धृष्ट नीच कृतिपर करता सौ सौ धिःकार ॥ कहाँ गये हा तात ! त्यजे क्यों मेरे लिये प्राण अपने । बीरवरोका काम छोड़कर हाय ! कालके कवल बने । तातहीन मुझको देखेगी वृद्धा हतभागी जननी। देख सकूँगा कैसे उसका घोर विलाप दिवस रजनी ॥ धू०-यह गान तो बहुत लम्बा चौड़ा जान पड़ता है। जयन्त-कोई चिन्ता नहीं; हज्जामको बुलाकर आपकी सारी ढाढ़ी मोछ अभी सफाचट करा देता हूं । हाँ, भाई, कहो, आगे कहो, क्या हुआ । कृपाचार्यने अश्वस्थामाको बहुत समझा बुझा शान्त किया; पर उसकी माता कृपीने जब अपने प्यारे पुत्रके मरेनकी खबर सुनी तबका वर्णनात्मक पद्य कहो तो सही । For Private And Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra दृश्य २ ] बलभद्रदेशका राजकुमार । ६५ प० नट – “रोदनसे सब गगन कँपाती बिलखाती हा हा करती" - क्या ? ' रोदनसे सब गगन कँपाती बिलखाती हा हा -- जयन्त www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करती ' ? धू० -- वाह जी वाह ! गगन कँपाती ! बिलखाती ! हाहा करती ! वाह ! बहुत अच्छा ! क्याही मधुर शब्द हैं ! प० नट केश हुए सब श्वेत धनुषसी झुकी हुई थी कटि जिसकी । रनभूमीकी ओर चली ले यष्टि हाथ जननी उसकी ॥ वृद्धादशा कठिन होती है तिसपर पतिका शोक महा । पैर नहीं उठता था मूर्छित हो जाती थी तुरत वहां ॥ रोदनसे सब गगन कँपाती बिलखाती हाहा करती । पवन विताडित जीर्णलतासी रुन पहुंची गिरती पड़ती ॥ पतिपातीको देख अश्रुजल लेकर ज्यों देती थी ज्ञाप । निश्चेतन हो गिरी भूमिपर प्राणपखेरु उड गए भाप ॥ धू० – देखिये, देखिये, महाराज ! उसका चेहरा कैसा उतर गया ! और आँखें भी कैसी डबडबा आई हैं । भाई, बस करो, बस करो । जयन्त - - वाह ! बहुत ठीक । बाकी भी मैं तुमसे बहुत जल्द सुन लूंगा। क्यों महाशय ! इनका सब प्रबन्ध करना आपके तरफ़ रहा । सुना ? इनकी अच्छी तरह खातिर होनी चाहिये । क्योंकि ये नाटकवाले एक तरहके मुनादिये होते हैं । आपके मरनेके बाद आपके कंके पत्थरपर यदि कुछ भला बुरा लिख दिया जाय तो कोई चिन्ता नहीं; पर जीवित रहते इन लोगों के मुँह अपनी बदनामी न कराइये । धू ० - महाराज ! इनका यथा योग्य सम्मान किया जायगा । For Private And Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त [ अंक २ ___ जयन्त-अगर सबका यथा योग्य सम्मान किया जाय तो कोड़ेकी मारसे फिर कौन बचेगा ? अपनी इज्ज़त और ओहदेको देखकर इनकी खातिर कीजिये ; योग्यता देखनेकी ज़रूरत नहीं । उनकी योग्यता नितनी ही कम होगी उतनी ही अधिक आपकी उदारता प्रकट होगी। अच्छा, इन्हें ले जाइये। धू०-आइये, चलिये, महाशयो ! जयन्त-मित्रो ! उनके साथ जाओ। हम लोग कल तुम्हारा खेल अवश्य देखेंगे। (पहिले नटके सिवा और सब धूर्जटिके साथ जाते हैं । ) कहो, मेरे मित्र ! क्या तुमलोग मातंगकी हत्याका नाटक खेल सकते हो? प.नट-क्यों नहीं; महाराज ? अवश्य खेल सकते हैं। जयन्त-ठीक है । कल रातको वही नाटक होगा । ज़रूरत पड़नेपर, उस नाटकमें दस बीस पंक्तियोंका एक भाषण अगर जोड़ दिया जाय तो क्या तुम लोग उसे कण्ठ नहीं कर सकते ? प०नट-क्यों नहीं, ? अच्छी तरह कर सकते हैं। जयन्त-ठीक है । तो अब तुम भी उनके साथ जाओ। पर,ए, सुनो, उनसे हँसी मसखरी न करना । ( नट जाता है । ) मित्रो ! अब रातको मैं तुम लोगोंसे मिलंगा । तुम लोगोंके आनेसे मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। नय-महाराज ! अब हम लोग भी आशा चाहते हैं । जयन्य-हां हां, तुम लोग जासकते हो । ईश्वर तुम्हारा भला करे ! (नय और विनय जाते हैं ।) For Private And Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य २] बलमद्रदेशका राजकुमार । ६७ . अब मैं अकेला हूँ। हाय ! मेरी दशा कैसी भयङ्कर हो रही है ! ओफ़ ! मैं कैसा दुष्ट हूँ ! कैसा नीच हूँ !! और कैसा अभागा हूँ !!! कुत्ते और मुझमें भेद ही क्या है ? क्या यह राक्षसी काम नहीं है कि, इस नटने कल्पित नाटकका भाषण आरम्भ करते ही अपनी मनोवृत्तियोंको एक दम पलट दिया; पहिले अपने चेहरेको उदास बना लिया; फिर आंखोंसे आँसू बहाने लगा, इसके बाद एकाएक उन्मत्तसा हो गया और फिर थोड़ी ही देरमें सिसकने भी लगा; तात्पर्य-जहाँ जैसा भाव था वहाँ वैसा ही भाव उसने पैरोंसे, हाथोंसे, आँखोंसे, भौसे, मुँहसे और आवाज़से हूबहू दिखला दिया। और यह सब किस लिये किया ? किसी लिये नहीं ; केवल उस कृपीके लिये । भला उस कृपीसे इसका क्या सरोकार ? इससे उसका रिश्ता ही क्या था, जो उसके लिये इसने इतने आँसू बहा डाले । सचमुच, अगर मेरे समान इसके क्रोधका कोई यथार्थ करण होता तो न जाने इसने कैसा कहर मचा दिया होता; रो रो कर अपने आँसुओंसे सारी रंगभूमिको तर कर दिया होता ! उसकी भयङ्कर गर्जना सुनकर श्रोताओं के कान फट जाते ! और कई लोगोंके अन्तःकरण विदीर्ण हो जाते ! अपराधी तो पागल ही हो जाते, किन्तु निरपराधी भी एक बार दहल जाते ! और अज्ञानी लोग घबरा जाते ! तात्पर्य प्रत्येक श्रोताके कानोंकी तथा आँखोंकी विचित्र दशा होती। पर मैं कैसा मूढ़, बोदा, नीच, और सुस्त हूँ जो अपना कर्तव्य करना छोड़ योंही इधर उधर पागलके समान भटक रहा हूं । साक्षात् मेरे पिताकी सारी सम्पत्ति और उनके प्यारे प्राणोंका बुरी तरहसे नाश होनेपर भी मैं धुम्मी साधकर डरपोकके समान बैठा बैठा समय बिता रहा हूँ। रे नीच डरपोक ! धिक्कार है ! धिक्कार है, तेरे जीवनको !! कोई For Private And Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ६८ जयन्त [ अंक २ इस नीचको अभ्रम कहकर क्यों नहीं पुकारता ? कोई इसके दोनों कान ऐंठकर इसे इसके पिताकी हत्याका स्मरण क्यों नहीं कराता ? "कोई इसके मुंह में दो तमाचे मारकर इसके चचाकी नीचताका हाल इसे क्यों नहीं सुनाता ? कोई इसकी नाक पकड़कर इसे उसका बदला चुकानेके लिये क्यों नहीं उभारता ? कोई इसके मुंहमें थूककर इसे इसके अपमान और कृतघ्नताको याद क्यों नहीं दिलाता ? क्या ? इस संसार में ऐसा कोई सज्जन पुरुष नहीं है जो इस नीचको दण्ड देकर इसे इसके कतर्व्यकी राह दिखला दे ? हा ! मैं उस दण्डको बड़े सुखसे सह लूंगा । रे नराधम ! क्या बकरेके कलेजेसे भी तेरा कलेजा डरपोक है ? रे डरपोक ! हाय हाय ! इतने पर भी तुझे क्रोध नहीं आता ? ठीक है । तेरे बदनकी खाल खींचे बिना तुझे उसका बदला लेनेका स्मरण न होगा । यदि तेरी जगह और कोई होता तो अबतक उस जाराधम नरपशुकी बोटी बोटी काटकर उन्हें गीदड़ोंसे नोचवा डालता । हां... ; मेरी मासे - अपनी सगी भौजाईसे जारकर्म करने वाले नीचाधम, नरपिशाच, भ्रातृघातक नरपशु, चाण्डाल, नमकहराम ! क्या मैं तुझे बिना उचित दण्ड दिये ही छोड़ दूंगा ? वाहरे गदहे ! वाह ! वाहरे तेरा ज्ञान ! और वाहरे तेरी वीरता ! तेरे शत्रुने प्रत्यक्ष तेरे पिताका खून किया; और उसका बदला लेने के लिये आकाश और पाताल दोनों अनुमोदन भी दे रहे हैं; तिसपर भी तू छिनाल और के समान - - खानगी वेश्याके समान केवल गालियाँ बकता हुआ यहां खड़ा है ! वाहरे मूढ़ ! बलिहारी है ! 1 हं हं हं—छि:, इन बातोंमें क्या रक्खा है ? ( सिरपर हाथ रखकर ) क्या इसमेंसे कोई तदबीर निकलेगी ? ( सोचकर ) हां ठीक For Private And Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य २] बलभद्रदेशका राजकुमार। ६९ है। मैंने सुना है कि खूनी मनुष्य जब किसी नाटकमें अपने किये हुए दुष्कर्मोंका नमूना देखता है तो उसका चेहरा फौरन् काला पड़ जाता है ; और अपन अपराधोंको वह तुरंतही कबूल देता है । खूनके ज़बान नहीं होती, तो भी उस समय किसी न किसी विचित्र तरहसे उसे ज़बान फूट निकलती है । खैर, यहां जो नाटक मण्डली आई है उसीसे मैं अपने पिताको हत्याके ऐसा एकाध नाटक चचाके सामने कराऊँगा । और उनके चेहरे में कुछ फेर बदल होता है या नहीं, यह देखता रहूंगा । बीच बीचमें कलेजेमें चुभने वाली बातें भी उन्हें सुनाऊंगा; और फिर यदि उनके चेहरेपर उदासीके चिन्ह दिखाई पड़ें तो आगे मुझे क्या करना होगा उसका मैंने खूब बिचार कर लिया है । संभव है कि जिस भूतको मैंने देखा है वह विघ्नसंतोषी हो । और यह बात तो सब लोग जानते हैं कि, भूत पिशाच एक नहीं अनेक स्वांग ले सकते हैं । और यह भी सम्भव है कि जिस भूतको मैंने देखा है वह मुझे दुर्बल और दुःखी देख और भी कष्ट देनेका बिचार करता हो । इस लिये भूत प्रेतोंकी बातोंमें विश्वास करना अच्छा नहीं ; इससे भी और अच्छे प्रमाणको आवश्यकता है । चाचा जीके हृदय की थाह लेनेके लिये उनके सामने खेल कराना, यही उपाय ठीक है । ( जाता है।) दूसरा अंक समाप्त । For Private And Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 199 जयन्त [अंक ३ तीसरा अंक। पहिला दृश्य स्थान-दीवानखाना। राजा, रानी, धूर्जटि, कमला, नय और विनय प्रवेश करते हैं । रा.-क्या तुम लोग किसी तरह उसके इस भयंकर पागलपनका पता नहीं लगा सकते ? नय-महाराज, उन्होंने यह तो स्वीकार कर लिया कि उनकी तबियत खराब है ; पर यह नहीं बताते कि तबियत खराब क्यों हुई । विन.-महाराज, उनका आप ही आप कहना तो दूर रहा; पर अगर हम लोग उन्हें उलटे सीधे प्रश्न करके सच्ची बातका पता लगाना चाहते हैं तो वे तुरन्त पागलका स्वांग ले कर हमारी बातोंको उड़ा देते हैं । रा०-खैर, उसने तुम्हारा स्वागत तो अच्छी तरह किया ? नय-बड़ी सभ्यताके साथ । विनय-पर, महाराज ! वह सभ्यता धूर्ततासे खाली न थी। नय-वे आप तो कुछ भी नहीं पूजते थे; पर हमोर सवालका जवाब फौरन् दे देते थे। रानी-क्या तुम लोगोंने उसे किसी खलमें लगानेकी चेष्ट्य की थी ? नय-रानी साहब ? सुनिये । ऐसा हुआ कि रास्तेमें हमें एक For Private And Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य १] बलभद्रदेशका राजकुमार। नाटक मण्डली मिली थी; यह बात मैंने उनसे कही । इस बातको सुनकर वे कुछ प्रसन्न तो अवश्य हुए थे । शायद वह नाटक मण्डली यहीं आई है ; और सुना है कि सरकारसे एक नाटक खेलनेकी उन्हें आज्ञा भी मिली है। धू०-हां ठीक है ;--आपने सच बात सुनी है । और, महाराज ! उसने मुझसे कहा है कि महाराज और महारानीको नाटक देखने अवश्य ले आइये । रा०—हां, हां, हम लोग बड़े आनन्दसे नाटक देखेंगे । और, सच पूछिये तो, यह बात सुनकर मुझे बहुत ही आनन्द हुआ कि उसका मन नाटककी ओर झुका हुआ है । सजनो ! अब तुम लोगोंसे मैं यही कहता हूँ कि, जहांतक हो, उसका मन उसी ओर लगाए रहो। नय-महाराज ! हम लोग भरसक कोई बात उठा न रक्खेंगे । (नय और विनय जाते हैं।) - रा०-प्रिये विषये ! थोड़ी देरके लिये अगर तुम भी यहांसे अन्दर चली जाओगी तो बहुत अच्छा होगा; क्योंकि हम लोग चाहते हैं कि जयन्त और कमलाको यहां अचानक भेट हो जाय । और इस लिये मैंने जयन्तको यहां बुलवाया भी है । अपने वृद्ध मन्त्रीने और मैंने यह बिचारा है कि वे और मैं दोनों परदेकी ओटमें खड़े खड़े कमला और जयन्तकी सब बातें सुन लें और फिर सोचें कि उसके पागल हो जानेका कारण कमलापर उसका प्रेम ही है या कुछ और है । • रानी-बहुत अच्छा; मैं जाती हूँ । सुनो, कमला ! तुम्हारी For Private And Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७२ जयन्त [ अंक ३ सुन्दरताने अगर मेरे जयन्तको पागल बना दिया हो तो कोई चिन्ता नहीं — अच्छी बात है । मैं आशा करती हूं कि तुम अपने भरसक उसे रास्तेपर लानेमें कसर न करोगी; क्योंकि इसमें तुम्हारी और उसकी दोनोंकी इज्ज़त है । कमला - रानी साहब । मैं अपनी ओरसे कोई बात बाकी न छोडूंगी । ( रानी जाती है | ) O धू ० - कमला ! तुम यहीं घूमती रहना । महाराज ! चलिये, हम लोग भी कहीं छिप जायँ । कमला ! तुम इस पुस्तकको पढ़ती रहना, जिसमें देखनेवाला समझे कि तुम यहाँ अकेली ही हो | हम लोग जो चाल चलते हैं वह अच्छी नहीं - बुरी है; पर अनुभवसे यह बात सिद्ध हो चुकी है कि साधु और पुण्यात्माका स्वांग लेनेसे साक्षात् भूत पिशाच जैसे नीचसे नीच और धूर्तसे धूर्त लोग भी अपने बसमें हो जाते हैं। सच रा०- (स्वगत ) सच है, भाई ! तुम्हारा कहना अक्षर अक्षर है । इसके इस वाक्यके एक एक अक्षरने मेरे कलेजे में सौ सौ ती का काम किया है ! रे दुष्ट, पापी, नीचात्मा । तुझे अपनी बातोंमें और कामों में कुछ तो मेल रखना था ! खानगियोंके गालोंके काले, काले दाग छिपाने के लिये उनपर रङ्गबिरंगी पाउडरोंका लगा हुआ पलस्तर अच्छा; पर तेरे घोर दुष्कर्मों के छिपानेके लिये उनपर रंगबिरंगी बातोंका लगा हुआ पलस्तर बहुत ही घृणित और नीचताका है ! आहं ! मेरे पापोंका बोझ अब मुझसे नहीं सहा जाता । धू० - महाराज ! सुनिये; जान पड़ता है, वह आ गया । तो For Private And Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७३ दृश्य १] बलभद्रदेशका राजकुमार । चलिये, हम लोग कहीं छिप जायँ । ( राजा और धूर्जटि जाते हैं।) ( जयन्त प्रवेश करता है । ) जयन्त-जीना या मरना;-बस, यही एक प्रश्न है । भाम्यके भयङ्कर उपद्रवोंसे होनेवाली तकलीफ सहते हुए चुपचाप पड़े रहना अच्छा होगा ? या उनका एक दम नाश करनेके लिये जान हथेलीपर ले डंटकर सामना करना अच्छा होगा ? मरना; सोना;-एक ही बात है । पर, सोनेसे अगर मनुष्यके अन्त:करण और शरीरको तकलीफ देनेवाली असंख्य व्याधियोंका नाश हो सकता तो क्याही अच्छा होता! मरना-सोना-सोना; पर अगर कहीं इसमें स्वप्न देख पड़ें तो ? बस, यही एक संकट है। क्योंकि इस नाशवान् शरीरको छोड़कर उस महानिद्रामें न जाने कैसे कैसे स्वप्न दिखाई पड़ें ? इसी लिये उस महानिद्रामें सोनेका साहस नहीं होता, और इसी लिये हमें यह सांसारिक दुःख भुगतते हुए अपना सारा जीवन बिताना पड़ता हैनहीं तो इस निर्दय कालके कठोर दण्ड कौन सहता ? अन्याइयोंका अन्याय कौन सुनता ? घमण्डियोंसे अपना अपमान कौन कराता ? प्रेम-भंगका दुःख कौन उठाता,? देरसे होनेवाले न्यायकी राह कौन देखता ? कर्मचारियोंकी उद्दण्डता और असभ्यता कौन सहता ? सहनशील गुणी मनुष्य विचारहीन नरपशुकी जूतियाँ क्यों खाता ? इन सब विपदका नाश अगर एक छुरेसे हो सकता तो ये सब विपत्तियाँ कोई क्यों झेलता ? या यह सारा प्रपंचभार अपने सिर ले अपना दुःसह जीवन बित्तानेके लिये कोई क्यों हाय हाय करता ? पर किया क्या जाय ? एक बार यमलोककी. सीमापर पहुंचकर फिर कोई भी लौट नहीं आता। वहां न जाने उसकी कैसी दुर्दशा होती होगी ?--बस इसी बातके डर. For Private And Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७४ जयन्त [मंक३ से हमारा साहस टूट जाता है; और यह विचार होता है कि जो कुछ दुःख हम यहां भुगत रहे हैं वे ही अच्छे; पर जिस जगहके बारमें हम बिलकुल अन्धे हैं उस जगह जाना नहीं अच्छा; क्योंकि वहां न जाने और कैसे कैसे दुःख उठाने पड़ेंगे । इन्हीं विचारोंसे हमारी हिम्मत टूट जाती है और हम डरपोक बन जाते हैं। ‘करें या न करें' ऐसे विचारोंसे हमारा संकल्प ढीला पड़ जाता है; और साहसके बड़े बड़े काम करनेके विचारोंका प्रवाह पीछे फिर जाता है । काम करना तो अलग रहा-हम उसकी यादतक भूल जाते हैं। पर ठहरो; यह कौन ? विमला कमला ! हे देवी! तेरे स्तवनसे मेरे सारे पाप जलकर भस्म हो जाय । कमला-महाराज ! इन दिनों आपकी तबियत कैसी है ! जयन्त-अहा ! आप हैं ! धन्य है मेरा भाग्य ! क्या भाप मेरी तबियतका हाल जानना चाहती हैं ? मेरी तबियत बहुत अच्छी है, बहुत खासी और बहुत दुरुस्त है। कमला-महाराज ! आपने अपने प्रेमका स्मरण-चिन्ह कहकर जो चीजें मुझे दी थीं उन्हें मैं बहुत दिनोंसे लौटा देना चाहती हूँ। आज अच्छा अवसर है; तो आपसे मेरी यही विनती है कि कृपाकरके अपनी चीजें आप लौटा लें। ' जयन्त--नहीं, नहीं, मैंने तो आपको कभी कुछ भी नहीं दिया। कमला-अगर आप अच्छी तरह याद करें तो याद आ नायगा. कि ये सब चीजें आपने ही मुझे दी थीं। और देते समय मापने जो मीठी मीठी बातें की थीं उनसे तो इनका मूल्य और भी बढ़ गया था For Private And Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्व १] बलभद्रदेशका राजकुमार। ७५ पर अब इनका स्वाद जाता रहा । इसलिये मुझे अब इनकी ज़रूरत नहीं । कृपाकरके आप इन्हें लौटा लें । उदार मनुष्यको दी हुई वस्तुओंका देनेवाला जब निठुर हो जाता है तब वे वस्तुएं भी लेनेवालको भली नहीं मालूम होती-तुच्छ जान पड़ती हैं । लीजिये, अब इन्हें मैं अपने पास नहीं रखना चाहती। जयन्त-हां, हां, क्या आप सत्यव्रता हैं ? कमला-क्या ? जयन्त-आप सुन्दर हैं ? कमला-महाराज ! मैं आपका मतलब नहीं समझी । जयन्त-मैं यह कहता हूँ कि अगर आप सत्यव्रता और सुन्दर हों तो सत्यव्रतका सम्बन्ध अपनी सुन्दरतासे भूलकर भी न रक्खें । कमला-महाराज ! सुन्दरताको सत्यव्रतसे भी अच्छा और कौन साथी मिल सकता है ? जयन्त-सच है; क्योंकि सुन्दरतामें इतनी योग्यता है कि वह सत्यवतको एक चुटकीमें अपने जैसा नीच बना लेती है; पर सत्वव्रतमें इतनी योग्यता कहाँ, जो सुन्दरता को इतनी जल्दी अपने जैसा बना ले ? किसी समय यह बड़ी गूढ बात थी; पर अब तो इसकी सचाई सिद्ध हो चुकी है । हाँ, था, किसी समय आपपर मेरा प्रेम । - कमला-कमसे कम आपने मुझे ऐसाही विश्वास दिलाया था। जयन्त-आपने क्यों मेरी बातोंपर विश्वास किया ?—न करती विश्वास । मनुष्यों एकाध नया सद्गुण आजानेसे उसके सारे पुराने दुर्गण एक दम चळे नहीं जाते । जाइये, मैंने कभी आपपर प्रेम किया ही नहीं। कमला-फिर तो आपने मेरा विश्वास-पात किया । For Private And Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त- .. [ अंक ३ अयन्त-अब आप जोगिन बनकर किसी मठमें चल दें; क्यों व्यर्थ पाक्यिोंकी मा बनना चाहती हैं ? साधारणत: मैं इमान्दार हूँ; पर मुझमें भी ऐसे दुर्गुण भरे हैं कि मेरी मा मुझे जन्म न देती तो ही अच्छा था। मैं बड़ा घमण्डी और दीर्घ द्वेषी हूँ । मेरी अभिलाषाएं भी बहुत बढ़ी चढ़ी हैं । दूसरोंको सतानेके विचार मेरे मस्तिष्कमें एक पर एक आया ही करते हैं । 'पहिले इसे करूँ या उसे ' ऐसी चित्तकी चंचलतासे मेरी विचित्र दशा हो जाती है। मेरे जैसे निकम्मे मनुष्य जन्म लेकर पृथ्वीका बोझ बढ़ानेके सिवा और कर ही क्या सकते हैं ? हम सब बड़े दुष्ट, छली, कपटी और पूरे घमण्डी हैं। इसी लिये कहता हूँ कि हममेंसे किसीपर भी तुम विश्वास न करो । जाओ, जोगन बनकर किसी मठकी राह पकड़ो । हां, आपके पिता कहाँ हैं ? कमला-घर है: महाराज। जयन्त-तो फिर जल्दी जाइये और उन्हें किसा कोठरीमें बन्द कर दीजिये । उनकी बुद्धिका प्रकाश बाहर न आने पावे-घरमें ही रहे । अच्छा; अब आप जाइये । कमला-हे इश्वर ! ईनपर दया कर ! जयन्त-अगर तुम्हें विवाह करना हो तो मैं तुम्हें एक आशीर्वाद दिये देता हूँ। तुम्हारा चरित्र गङ्गाजलके समान निर्मल और पवित्र होने पर भी लोग सदा तुम्हारी निन्दा ही किया करेंगे । इस लिये कहता हूँ कि तुम जोगिन बनकर किसी मठमें चल दो । जाओ, जल्दी जाओ। और अगर बिना विवाह किये तुमसे न रहा जाता हो तो किसी जड़ बुद्धिवाले पुरुषस विवाह कर लो; क्योंकि बुद्धिमान् पुरुष भली भांति जानते हैं कि तुम लोग उनके मुँहमें किस तरह कालिख For Private And Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य १] बलभद्रदेशका राजकुमार। ७७ पोतती हो । बस तो फिर, बनो जोगिन और चला दो किसी मठमें । अः, क्यौं व्यर्थ देर करती हो ? जाओ, अभी जाओ। कमला-हे परमेश्वर ! हे जगपिता ! हे ब्रह्माण्डनायक ! इस राजकुमारपर दया कर ! दया कर!! और इसकी बुद्धि ठिकाने कर दे । जयन्त-सुना है कि चित्रकलामें आप बड़ी कुशल हैं । विधाताने आपको एक चेहरा दिया है, तो भी आप अपने लिये अपना दुसरा चेहरा तैय्यार करती हैं । तुम-स्त्रियाँ-गाती हो; नाचती हो; कमर लचकाती चलती हो; दूसरोंको जो चाहो भला बुरा कह देती हो; और अपने नीच कामोंपर भोली भोली और मीठी मीठी बातोंका पर्दा डालती हो । पर, जानेदो; मुझे इन सब बातोसे क्या करना है ? इन बातोंसे मेरा सिर और भी दर्द करने लगता है । खैर, मेरी यह राय है कि हम लोग बिवाहके झगड़ेमें ही न पड़ें । जिन लोगोंने विवाह कर लिया है उनमेंसे एक स्त्री-पुरुषको छोड़कर बाकी सबको विवाहका सुख लूटने दो; पर अबतक जो कुँवारे ही बने हुए हैं उन्हें ब्रह्मचर्य पालन करना चाहिये । अच्छा; अब तुम जाओ और एकदम मठकीराह पकड़ो। ( जयन्त जाता है । ) कमला-हाः ! इस उदार आत्माकी यह दुदर्शा !! दर्बारियोंकी सो इसकी दृष्टि ! विद्वानोंकीसी इसकी वाणी ! वीरोंकासा इसका कलेजा ! इस सुन्दर राज्यका एक मात्र आशा-वृक्ष और अमुल्य रत्न ! आचार और व्यवहारका अनुकरण करने योग्य एक मात्र उदाहरण स्वरूप,- और सबका मन आकर्षित करने वाला लोहचुम्बफ ! हाय, हाय ! गया ! हायसे निकल गया !! और मैं ! छि:; मुझ जैसी दुःखिया और अभागिन स्त्री सारे संसारमें न होगी । हाय, हाय ! जिस उदार For Private And Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७८ जयन्त [ अंक ३ पुरुषकी मीठी मीठी बातें मैंने अपने कानोंसे सुनी थीं उसीको अब इस समय मैं पागल देख रही हूँ । हाय ! बरतनका तला फूट जानेपर जैसे उस बरतनका नाद जाता रहता है वैसे ही पागलपनसे इसकी बुद्धि नष्ट होकर इसका अद्वितीय रूप और तारुण्य भी एकाएक जाता रहा ! आह ! धिक्कार है, मेरे जीवनको ! जिन आखोंसे मैंने इसकी अच्छी दया देखी थी, अब उन्हीं आखोंसे मैं इसकी ऐसी बुरी दशा देख रही हूँ ! धिक्कार है ! धिक्कार है ! ! ( राजा और धूर्जटि प्रवेश करते हैं । ) - रा० – प्रेम ? छि:, उसके मनका झुकाव इस ओर बिल्कुल नहीं जान पड़ता । उसकी बोलचाल कुछ विचित्र तो अवश्य है; पर कोई यह नहीं कह सकता कि वह पागलपनकी ही थी । उसके हृदयमें कोई भयानक चोट लगी है; इसीसे वह इतना उदास हो गया है । मुझे इस बातका डर है कि अगर यह बात लोगोंको मालूम हो जाय तो हम लोगोंको अवश्य ही किसी दिन भयानक विपदसे सामना करना पड़ेगा । इस लिये मैंने यह सोचा है कि बरसों से श्वेतद्वीपके तरफ़ जो कर बाकी पड़ा है उसकी वसूली करने को इसे भेज दूं । इससे सम्भव है कि सुमद्रकी शोभा, अन्यान्य देश और वहाँकी चित्र विचित्र वस्तुएँ देखकर उसके हृदयको कुछ शांतता प्राप्त हो जाय, और उसकी बहकी हुई तबियत ठिकाने आ जाय । कहिये, इस विषय में आपकी क्या राय है ? - 1 धु० – ठीक है; पर मुझे उसके दुःखका मुख्य कारण प्रेम-भंग ही जान पड़ता है । क्यौं कमला ! इसपर तुम्हारी क्या राय है ? तुमसे और उससे जो जो बातें हुईं, उनके कहनेकी कोई जरूरत नहीं --- हम लोग सब सुन चुके हैं। महाराज ! आप जैसा उचित समझें वैसा करें; For Private And Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य २] बलभद्रदेशका राजकुमार। पर मेरी राय यह है कि आजका नाटक हो जानेपर महारानी साहब अकेलेमें उससे मिलें और उसके दु:खका कारण जान लेनेकी चेष्टा करें। प्यारकी मीठी मीठी बातें करके उसके पेटकी थाह ले लें; और महाराजकी आज्ञा होगी तो मैं भी छिपे छिपे उनकी बातें सुन लँगा। ऐसा करनेसे अगर कोई सफ़लता न हुई तो फिर आप चाहें उसे श्वेतद्वीप भेज दें या यहीं किसी कैदखानेमें बन्द कर दें। रा०-खैर, यही सही ; बड़ोंके पागलपनकी ओर दुर्लक्ष्य करना बिल्कुल अच्छा नहीं । ( दोनों जाते हैं।) दूसरा दृश्य। स्थान-राजभवनका एक बड़ा कमरा । जयन्त और नट प्रवेश करते हैं। जयन्त-जैसा मैंने बताया है, ठीक वैसा ही बोलना। नहीं तो और और नटोंकी तरह मन माना चिल्लाने लगोगे । अगर चिल्लाकर बोलना मुझे पसन्द होता तो मैं अपना भाषण तुमसे न कहलाकर किसी मुनादियेसे कहलाता। दूसरे यह कि, बोलते समय लगोगे पटेबाजीके हाथ दिखलाने, ऐसा करना भी मुझे पसन्द नहीं। जहां जैसा भाव हो वहां ठीक वैसा ही आभिनय करना चाहिये; क्योंकि बोलते समय मनोविकार बहुत प्रबल हो जानेपर उनके दबानेकी चष्टा करनी चाहिये । ऐसा करनेसे श्रोताओंपर उस भाषणका अधिक प्रभाव पड़मा । अगर नाटकका कोई पात्र कर्कश स्वरसे चिल्लाने लगता है तो मेरा सारा शरीर एकदम जल उठता है । ऐसी मूर्खता करनसे For Private And Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अयन्त [ अंक ३ भाषणके चिथरे चिथरे उड़ जाते हैं; और आस पास बैठे हुए प्रेक्षकोंके कान फटने लगते हैं । इससे नतीजा यही होता है कि लोगोंपर नाटकका अच्छा असर पड़ना - तो दूर रहा-वे उसे भांडोंका तमाशा समझने लगते हैं । ऐसे समय इच्छा यही होती है कि ऐसे गदहोंके चूतरपर खूब कोड़े लगाऊँ । इसीलिये तुमसे कहता हूँ कि बोलते समय इन सब बातोपर खूब ध्यान रखना। - प० नट-महाराज ! विश्वास राखये ; मैं फ़जूल बातें और फ़जूल अभिनय कभी नहीं करूंगा। जयन्तकर्कश स्वरसे चिल्लानेको मना कर दिया, इसलिये कहीं मन ही मन न भुनभुनाना। कुछ अपनी बुद्धिसे भी काम लेना सीखो ; सिखाने पढ़ानेसे कहांतक काम चलेगा। भाषण और अभिनय दोनों साथ ही साथ और एक दूसरेसे मिलते जुलते होने चाहिये । याद रक्खो फ़जूल बकवाद और अधिक हाथ पैर हिलानेसे उनकी स्वाभाविकता जाती रहती है । नाटक मनुष्य स्वभावका प्रतिरूप है; इस लिये उसमें मनुष्य-स्वभावके विपरीत ज़रासी बात होजानेसे उसका भङ्ग हो जाता है । सुशीलता दिखानेकी मुद्रा अलग होती है, और तिरस्कार दिखानेकी मुद्रा कुछ और ही; तात्पर्य, जहां जैसा रस दिखाना हो वहां वैसाही अभिनय करना चाहिये । इसमें अगर ज़रा भी गड़बड़ हुई तो मूर्ख प्रेक्षक हँसने लगते हैं, पर इसके जानकार लागोंको बहुत दुःख होता है । सारे प्रेक्षकोंमेंसे अगर एक भी प्रेक्षक तुम्हारे भाषण और अभिनयपर नाक चढ़ावेगा तो समझ लो, कि तुम्हारे सारे किये कराये परिश्रमपर पानी फिर जायगा । मैं कई एक नाटक कंपनियोंके ऐसे नाटक देख चुका हूँ जिनकी लोग बहुत For Private And Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य २] बलभद्रदेशका राजकुमार। प्रशंसा करते हैं ; पर यदि देखा जाय तो उनमें रत्तीभर भी गुण नहीं होता । उनका बोलना चालना, गाना बजाना, पोशाक और अभिनय आदि सभी बातें विचित्र ही होती हैं । ये लोग मनुष्य-स्वभावकी इतनी बुरी तरह नकल करते हैं कि उसे देखकर रसिक प्रेक्षकोंकी तबियत चिढ़ उठती है। प०नट-महाराज ! हमारी मण्डलोंमें अब इन सब बातोंका बहुत कुछ सुधार हो गया है । जयन्त-अजी ! बहुत कुसे काम नहीं चलेगा; उसकी एक एक त्रुटि चुन चुनकर निकाल डालनी चाहिये । तुमलोगोंमें जो विदूषकका काम करता हो उसे उतना ही बोलना चाहिये जितना उसके लिये नियत कर दिया गया हो। क्योंकि कई एक विदूषक ऐसे मूर्ख होते हैं कि कुछ अनजान प्रेक्षकोंके हँसानके लिये वे पहिले आप ही दांत निपोर देते हैं । ऐसे निरर्थक हँसनेसे प्रेक्षकोंका ध्यान नाटककी मुख्य मुख्य बातोंपरसे हट जाता है । नाटक तो वे पूरा देख जाते हैं पर उनके हृदयपर उसका कुछ भी असर नहीं पड़ता । ध्यान रहे, ऐसा करना बहुत ही बुरा है। ऐसा करनेवाले अपनेको बुद्धिमान् और धन्य समझते हैं; पर यह उनकी केवल भूल ही नहीं वरन् महा मूर्खता है । खैर, तुम लोग आगे चलकर अपने खेलकी तैय्यारी करो; मैं भी थोड़ी देरमें आ जाता हूँ। (नट जाते हैं।) (धूर्जटि, नय और विनय प्रवेश करते हैं।) जयन्त-क्यों महाशय ! क्या समाचार है ? क्या महाराज भी नाटक देखने आयेंगे ? धू०-अकेले महाराज ही नहीं-रानी साहब भी आनेवाली हैं। For Private And Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त [ अँक ३ और वे दोनों अभी आया ही चाहते हैं । जयन्त-तो फिर नाटकवालोंसे कह दीजिये कि जल्दी करें । (धूर्जटि जाता है।) (नय और विनयसे ) और ज़रा तुमलोग भी जाकर उन्हें जल्दी करो। नय, विनय-जो आज्ञा । (नय और विनय जाते हैं । ) जयन्त-कौन ? विशालाक्ष ? ( विशालाक्ष प्रवेश करता है । ) विशा०-जी हाँ, महाराज ! वही है, आपका सेवक विशालाक्ष । जयन्त-विशालाक्ष ! सचमुच, तुम्हारे ऐसा सच्चा और ईमान्दार आदमी मैंने आजतक कहीं नहीं देखा । विशा०-महाराज ! इन बातोंमें क्या रक्खा है ? जयन्त-तुम यह न समझना कि, मैं तुम्हारी झूठ मूठ ही प्रशंसा कर रहा हूँ। क्योंकि कोई बंधी आमदनी न रहनेपर भी नीतिसे अपना चरितार्थ चलानेवाले तुम्हारे ऐसे निर्धन मनुष्यकी प्रशंसा करके मेरा क्या लाभ होगा ? गरीब बिचारोंको पूछता ही कौन है ? हां, जो लोग चापलूसी करना जानते हैं उनकी अलबत्ता मूर्ख धनवानोंके यहां खूब चलती है । अमीरोंके घर चापलूसी करके टुकड़े तोडना चापलूसोंको ही सुखद हो । न मैं चापलूस हूँ और तुम धनवान हो; फिर भला मैं क्यों तुम्हारी चापलूसी करूंगा ? सुनते हो या नहीं ? मेरा मन मेरे अधीन है; और जबसे मैं भला बुरा पहिचानने लगा हूँ तभीसे तुम्हें प्यार. करता हूँ। क्योंकि तुम ऐसे पुरुष हो कि, तुमपर लाख विपत्तियाँ आनेपर भी तुम सुखपूर्वक और बड़ी गम्भीरतासे उनका सामना करते हो। और सच पूछे तो For Private And Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य २] बलभद्रदेशका राजकुमार । 1 वही पुरुष धन्य है जो हज़ार दु:ख सहता हुआ भी अपनी विवेकबुद्धिकी आज्ञाको नहीं टालता | क्या तुम मुझे ऐसे मनुष्यका नाम बता सकते हो जिसमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर ये छः विकार न हों ? अगर बता सकते हो तो बता दो, मैं तुम्हारे समान उसे भी अपने अन्तःकरणमें ही नहीं —— किन्तु उसके भी अन्तर्पट में स्थान दूँगा | खैर, इस विषयकी चर्चा ज़रूरत से अधिक हो चुकी; अब हमें अपने कामकी बातोंपर ध्यान देना चाहिये । आज रातको चाचाजीके सामने एक ऐसा नाटक करानेका विचार है, जिसका एक दृश्य मेरे पिताकी मृत्युसे बहुत कुछ मिलता जुलता है । तो अब इसमें तुम्हारा यही काम रहेगा कि नाटकके आरम्भ होनेसे उसके खतम होने तक मेरे चाचाजीके चेहरेपर खूब कड़ी नज़र रखना । उसमें एक भाषण ऐसा है कि जिसे सुनते ही उनके चेहरेपर उनके गुप्त अपराध चमकने लगेंगे । और अगर ऐसा न हो तो समझ लेना कि मेरी कल्पनाएं किसी और वह भूत भी पहिले दर्जेका झूठा और लुच्चा था। इसका आपही आप निर्णय हो जायगा । हमें अपने काम में बिल्कुल कसर न करनी चाहिये । देखना, खेल देखने में गाफिल हो कर अपना कर्त्तव्य न भूल जाना । कामकी नहीं; खैर, खेल हो चुकनेपर - विश्वास रखिये, महाराज ! खेलके समय मैं उनके ८३ विशा०- चेहरे के सिवा और कुछ भी न देखूँगा । -- जयन्त — देखो, वे लोग नाटक देखनेकी तैय्यारी कर इधर ही आ रहे हैं। तो अब मैं पागल बन जाता हूँ। तुम भी कोई अच्छी सी जगह देखकर बैठ जाना । For Private And Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ८४ www. kobatirth.org जयन्त [ अंक ३ ( अंग्रेजी बाजोंके साथ साथ राजा, रानी, धूर्जटि, कमला, नय, विनय और नौकर चाकर प्रवेश करते हैं । ) रा० - क्यों जयन्त ? अब कैसी तबियत है ? -- Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हवा खाकर गिरगिटानके ऐसा फूल उठा हूँ । और प्यास लगने पर बीच बीचमें आपकी मीठी बातोंका रस भी पी लेता हूँ । शायद, इस तरह तो आप किसी कबूतरको भी नहीं पाल सकते ! रा०--- कैसा बेतुका जवाब देते हो ? वे मेरे शब्द नहीं थे । जयन्त — अब वे मेरे भी तो नहीं हैं । ( धूर्जटिसे ) क्यों महाशय ! आप कहते थे कि जब आप विद्यालय में पढ़ते थे तब आपने भी एक बार नाटकमें काम किया था । क्या यह सच बात है ? मैंने किया था नाटकमें काम और ; धू० हाँ, महाराज उस समय में अच्छे पात्रों में गिना जाता था । जयन्त आप क्या बने थे ? धू० - महाराज ! मैं सर्वेजय बना था । बीच चौकमै क्रूरसिंहने मेरी हत्या की थी । -- जयन्त ―हः ! हः ! क्रूरसिंहने ऐसे मोटे ताज़े बछड़े की हत्या करके खूब क्रूरता दिखला दी । अच्छा; नाटकवाले अबतक तैय्यार हुए या नहीं ? नय-वे बिल्कुल तैय्यार हैं । बस, अब खाली आपकी आज्ञा 'पानेकी देर है । रानी - प्यारे जयन्त ! आओ, तुम मेरे पास बैठो ! नहीं नहीं; मैं यहीं अच्छा हूँ । देखिये, यहां एक कैसी मनोहर चिड़िया है ! For Private And Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बलभद्रदेशका राजकुमार । መ दृश्य २ ] धू० -- ( राजासे ) सुनिये महाराज ! ज़रा उनकी बातें तो सुनिये । जयन्त क्यों बीबी ? क्या मैं आपकी गोद में लेट सकता हूँ ? ( कमलाके पैरोंके पास बैठ जाता है । ) कमला- - नहीं नहीं; आप यह क्या करते हैं ? - जयन्त - डरिये नहीं; मैं और कुछ भी न करूँगा ;- -केवल आपकी गोद में अपना सिर रखना चाहता हूँ । कमला- - आज तो आप बहुत खुश मालूम होते हैं ! जयन्त — कौन, मैं ? कमला – जी हाँ ; आप | जयन्त- मैं तो आपके चरणोंका दास हूँ । खुश न रहूँ तो काम कैसे चले ? देखिये, मेरी माका चेहरा कैसा खुश है ! और मेरे पिताजीको मरे अभी पूरे दो महीने भी नहीं हुए । कमला नहीं महाराज ! दो और दो चार महिने बीत गए । जयन्त· -सच ? चार महीने बीत गए ! ओहो ! इतने दिन बीत जानेपर भी वे मेरा पीछा नहीं छोड़ते ! ठीक है; यदि कोई बड़ा आदमी मरे तो उसकी याद कमसे कम चार छः महीनेतक बनी रह सकती है । फिर भी उन्हें अपनी याद कायम रखनेके लिये अपने पीछे कोई जीती जागती शकल छोड़जानी चाहिये ; नहीं तो उनकी उन बेवारिस मुदकी सी दशा होती है जो मरनेपर गिद्धोंकी खुराक बनते हैं; और जिनकी फिर कोई सुध नहीं लेता । ( बाजा बजता है; और नाटकका दृश्य दिखाना आरम्भ होता है। ) एक राजा और एक रानी प्रवेश करते हैं । दोनों बड़े प्रेमसे एक For Private And Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८६ जयन्त [ अंक ३ दूसरे के गले मिलते हैं | रानी घुटने टेक कर ऐसे भाव बताती है कि वह राजा को बहुत चाहती है । राजा उसका हाथ पकड़कर उठाता है और सिर उसके कन्धेपर रखता है । रानी उसे पलंगपर सुला देती है; और उसे सोया हुआ देख वहाँसे चल देती है । इसके बाद एक पुरुष आता है; वह राजाका मुकुट उतार कर उसे चूमता है; और राजाके कानोंमें विष डालकर वहाँ से चल देता है । रानी फिर आती है; और राजाको मरा हुआ देख बहुत दु:खी होनेके भाव दिखाती है । विष डालने वाला पुरुष दो या तीन गूँगोंके साथ फिर आता है; और रानी के समान आप भी दुःखके भाव दिखाने लगता है गूँगे मनुष्य राजाकी लाशको उठा ले जाते हैं । हत्यारा पुरुष रानीको बहुतसी बहुमूल्य वस्तुओंकी भेंट दिखाकर अपने वशमें करलेना चाहता है । पहिले थोड़ी देरतक तो रानी अपनी नाखुशी जाहिर करती है; और विवाह करनेसे इन्कार करती है; पर अन्तमें उसका कहना मानकर गले मिलती है । दोनों जाते हैं । । कमला – महाराज ! इसका क्या मतलब है ? जयन्त — इसीको कहते हैं, कमला- -जान पड़ता है, K का सारांश दिखाया गया । गुप्त दुष्टता और स्वार्थसाधन | इस दृश्य में अब होनेवाले नाटक ( सूत्रधार प्रवेश करता है | ) जयन्त - सुनो ! इसकी बातोंसे सारा भेद खुल जायगा । इन नाटक वालोंके पेटमें एक भी बात नहीं पचतो; वे सारा भेद वाल देते हैं । For Private And Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य २ ] बलभद्रदेशका राजकुमार । ८७ कमला – महाराज, क्या यह नट बता देगा कि पिछले दृश्य में क्या हुआ था ? जयन्त – हाँ हाँ, बता देगा । जो पूछोगी सो वह बता देगा ; जो कहोगी सो दिखला देगा; और जो दिखलाओगी सो कह देगा । दिखाने में लजा न करना; फिर देखो, वह उसका कैसा साफ़ साफ़ मतलब कहेगा । * कमला -- महाराज ! आप यह क्या बड़बड़ाने लग गये ? आपकी बातों से तो कुछ मतलब ही नहीं निकलता । अच्छा, जाने दीजिये, मुझे क्या करना है ? जाइये, अब मैं आपसे न बोलूँगी - खेल w देखूँगी । सूत्रधार - नाटक मण्डलीकी ओरसे मैं हाथ जोड़कर आप लोगों से प्रार्थना करता हूँ कि आप लोग कृपा करके हमारे इस शोकान्त नाटकको ध्यानपूर्वक देखें और सुनें । जयन्त——यह प्रस्तावना है या प्रस्तावनाकी भूमिका है ! कमला - महाराज ! यह प्रस्तावना बहुत थोड़ी थी, बहुत जल्द खतम हो गई ! जयन्त-स्त्रियों के प्रेमके बराबर थी; और वैसी ही जल्द ख़तम भी हो गई । ( नाटकके राजा और रानी प्रवेश करते हैं । ) ना० रा० - पवित्र विवाह मण्डप में पुरोहितके द्वारा हम दोनोंके परस्पर हाथ मिले आज पूरे तीस वर्ष हुए । इस बीच भगवान सूर्यनारायणने भगवती वसुन्धरा देवीको तीस प्रदक्षिणाएँ कीं; और सुशीतल चन्द्रमाने अपने समस्त शुभ्र किरणोंसे इस पृथ्वीको तीनसी For Private And Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८८ जयन्त [ अंक ३ - साठ बार प्रकाशित किया; पर हम दोनोंके अन्तःकरणमें परस्पर एक दूसरे के विषय में वास करनेवाला प्रेम अपने स्थान से तनिक भी इधर उधर न हटा ना० रानी - हे भगवती देवी ! जिस तरह हम दोनोंका प्रेम-सम्बन्ध आज तीस वर्ष बराबर निभ गया, उसी तरह वह और भी तीस बर्ष निभ जाय ! हाय ! प्राणनाथ ! इन दिनों आपकी तबियत इतनी खराब हो गई है कि अब आपके अधिक दिन जीनेकी मुझे बिल्कुल आशा नहीं । और जब यह बात मैं सोचती हूँ तब डर से एकदम कलेजा काँप उठता है। पर, नाथ ! मेरे डरका आप बिल्कुल ख्याल न करें; क्योंकि स्त्रियों के डर और प्रेमकी सीमा नहीं होती; कभी बहुत अधिक और कभी बहुत ही कम हो जाते हैं । आप - पर मेरा कितना प्रेम है, इसका तो आपको अच्छी तरह परिचय होहीगा । जहाँ प्रेम अधिक वहाँ डर भी अधिक; यह तो स्वाभाविक बात है । फिर भला आपकी ऐसी दशा देख मेरे मन में डर क्यों न पैदा हो ? ना० रा० - प्राणप्रिये ! सच कहता हूँ कि अब मुझे तुमको और तुम्हारे प्रेमको बहुत जल्द छोड़कर इस जीवलोकसे कूच करना होगा । क्योंकि मेरा शरीर अब बहुत ही अशक्त हो गया है । परमात्मा से मैं यही प्रार्थना करता हूँ कि वह मेरे पीछे तुम्हें सुखी रखे। और एक बात तुमसे भी कह रखता हूँ कि मेरे मरने के बाद किसी दयालु पुरुषको अपना पति ...... 1 , ना० रानी - बस, बस, बस अब आगे कुछ न कहिये । महाराज ! जिसके मनमें कुछ छल कपट होगा वही निगोड़ी ऐप For Private And Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य २] बलभद्रदेशका राजकुमार । नीच काम करेगी। जो स्त्री अपने पतिकी हत्या करती या कराती है वह भले ही दो छोड़ दस पुरुषोंको अपने पति बना ले; पर जो सच्ची पतिव्रता स्त्री है, क्या वह भी कभी ऐसा नीच काम कर सकती है ? हे परमेश्वर ! अगर मैं दूसरा पति करूँ तो मेरा सत्यानाश हो ! जयन्त-(स्वगत) इसीको कहते हैं, 'विषकुम्भम् पयो मुखम्'। ना. रानी-लोग दूसरा विवाह करते हैं किस लिये ? प्रेमसुखके लिये नहीं-वैभव-सुख भोगनेके लिये । छि: ! आग लगे ऐसे वैभवको । प्राणनाथ ! क्या आप यह विश्वास करते हैं कि आपके मरनेपर मैं पराये पुरुषके स्पर्शसे अपने शरीरको भ्रष्ट करके आपके कुलमें धब्बा लगाऊँगी ? । ना. रा०-प्रिये ! तुम्हारी बातोंपर तो मेरा विश्वास है ही; पर मनुष्य अपने निश्चयका प्रायः आप ही भंग कर देते हैं । काम आरम्भ करनेके समय मनमें जैसा उत्साह रहता है, वैसा ही उत्साह अन्ततक नहीं बना रहता। मुँहसे बोल देना बहुत सहज है, पर वैसा करना कठिन होता है । फल जबतक कच्चा रहता है तभीतक वह पेड़में लगा रहता है; और जब वह पक जाता है तब तुरन्त आप ही आप नीचे गिर पड़ता है । जैसे ज़रूरतपर हम लोग कर्जा तो ले लेते हैं, पर जरूरत निकल जानेपर हम उसे चुकाना भूल जाते हैं; वैसे ही हम मनोविकारों के अधीन होकर मनमानी प्रतिज्ञा तो कर डालते हैं पर उनका जोश कम हो जानेपर हम अपनी प्रतिज्ञा भूल जाते हैं। सुख या दुःखके वेगमें जो प्रतिज्ञा की जाती है, उसकी याद मनुष्यको तभीतक रहती है जबतक For Private And Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त [अंक ३ उस सुख या दुःखकी याद उसके हृदयमें बनी रहती है । जहाँ सुख है वहाँ दुःख भी है; निमित्तमात्रसे सुख दुःखमें बदल जाता है, और दुःख सुखमें । जीवमात्र ही क्या !-यह जोवलोक भी अनन्त नहीं है, फिर भला प्रेम किस खेतकी मूली है जो भाग्यचक्रके साथसाथ भ्रमण न करे ! अस्तु, इस बातकी व्याख्या करना रह हो गया कि प्रेम धनको खींचता है या धन प्रेमको । धनवान् मनुष्य जब निधन हो जाता है तब उसके सारे मित्र उसे छोड़कर भाग जाते हैं; और यदि निर्धन मनुष्य धनवान् हो जाता है तो उसके पुराने शत्रु भी फिर मित्र बन जाते हैं। प्राय: यही बात देखी जाती है कि प्रेम धनके ही आश्रयमें अधिक रहता है; क्योंकि जिसे किसी बातकी कमी नहीं उसे फिर प्रेमकी ही कमी क्यों रहे ? मनुष्य अपने विपद्कालमें अगर किसीसे मित्रता करने जाय तो ऐसे समय उसका कोई भी मित्र न होगा; शत्रुओंको संख्या बढ़ जायगी । परन्तु, हा, मैंने असल बात तो छोड़ हो दी और व्यर्थ इधर उधरको बकवाद कर रहा हूँ । अस्तु, अब आरम्भ की हुई बात एकबार समाप्त कर देनी चाहिये । प्रिये ! मनुष्यकी इच्छा और भाग्यमें बड़ा विरोध रहता है;वह सोचता कुछ है तो होता है कुछ और ही । तात्पर्य, सोचना अपने हाथ है, पर वैसा कराना ईश्वरके हाथ है । तुम आज यह सोच रही हो और कह भी रही हो कि में दूसरा विवाह न करूँगी; पर याद रखना, मेरे शरीरके साथ साथ तुम्हारे ये विचार भी नष्ट हो जायँगे। ना० रानी-अगर में दूसरी शादी करूँ तो मुझे अन्न न मिले-भूखों मरना पड़े ! मेरा बदन सड़ जाय-गल जाय; और For Private And Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanman दृश्य २] बलभद्रदेशका राजकुमार। इसमें कीड़े पड़ जायँ । मेरा मन दिन रात बेचैन रहे ! सुख और और विश्राम, ये दोनों सदाके लिये मुझसे अलग हो जाएँ ! मेरी आशा दुराशामें बदल जाय ! कैदियोंकी सी मेरी दुर्दशा हो ! सारी सुखहारक बातें मेरी अभिलाषाओंको दबाकर उन्हें नष्ट भ्रष्ट कर डालें; अन्ततक मुझको अनाथ और दुःखिया ही बनाए रहें; और इस लोक तथा परलोकमें मुझे सता सताकर नरकलोकमें ढकेल दें ! जयन्त-यदि यह अपनी इन कठोर प्रतिज्ञाओंका भंग करे तो ? ना. रा०-प्रिये ! तुमने तो आज बड़ी बड़ी प्रतिज्ञाएं कर डाली हैं । अस्तु, थोड़ी देरके लिये मुझे यहाँ अकेला छोड़ तुम. ज़रा बाहर चली जाओगी तो बहुत अच्छा होगा । मुझे बहुत ही थकावट जान पड़ती है। इस लिये मैंने यह सोचा है कि आजका सारा दिन मैं सोनेमें ही बिताऊँ । ( सोता है । ) ना० रा०-परमात्मा करे, सोनेसे इनके मनकी पीड़ा दूर हो ! और हममेंसे किसीको विरह-दुःख न भोगना पड़े ! (जाती है।) जयन्त-मा ! नाटक कैसा है ? रा-मेरी समझमें रानीको ऐसी कठोर प्रतिज्ञा न करनी थी। जयन्त-अः, इसमें बुराई ही क्या है ? वह उसे निभा लेगी। रा०—यह दृश्य कैसा था ? तुमने देखा या नहीं ? इससे कोई नुकसान तो न होगा ? जयन्त-छि:, छि:, इससे भला क्या नुकसान होगा ? यह सब नकल है । असल कुछभी नहीं ; सब बनावटी है । विष भी बनावटी है। रा.-इस खेलका नाम क्या है ? For Private And Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त [ अंक ३ जयन्त--इसका नाम है, 'मूसदान' । क्यों ? कैसा विचित्र नाम है ? ऐसे नामको अलंकारिक नाम कहते हैं । अन्धेर नगरीमें राजाकी जो हत्या हुई थी उसीकी यह नकल है । राजाका नाम है मातंग, और रानीका सुरादेवी । अब आप स्वयं ही बहुत जल्द देख लेंगे । यह खेल हृदयपर बहुत असर करता है ! पर हमें क्या ? आपका और मेरा हृदय अगर साफ है तो हमपर इसका कुछ भी असर नहीं पड़ सकता । 'जो करेगा सो भुगतेगा; और जिसे कर नहीं उसे डर क्या ?' ( दुष्टबुद्धि प्रवेश करता है । ) इसका नाम है, दुष्टबुद्धि; यह राजाका भतीजा है । कमला-महाराज ! आप तो मानों इस नाटकके सूत्रधार हो बने हैं। जयन्त-हः हः; जनाब ! अगर आपको और आपके प्रियतमको रङ्गीली रसीली बातें सुनें तो आपका भी सारा भेद खोल सकता हूँ। कमला-हाँ, क्यों नहीं ? कुछ झूठ सच, भला बुरा । जयन्त-हाँ हाँ, आपको तो अपने पतिके भले बुरे सब कामोंमे साथ देना चाहिये । खैर, चलरे हत्यारे ! जल्दी कर; अब अधिक नखरे न कर । जल्दीसे अपना काम निपटा दे ! दुष्टबुद्धि-अहा ! मेरे कामके लिये यह क्या ही अच्छा अवसर है ! मस्तिष्क नीच विचारों से भरा है। हाय फुरफुरा रहे हैं । विष तैयार है ! और यहाँ इस समय एकान्त भी है ! तात्पर्य, किसी बातकी कमी नहीं-सब ठीक है । (शीशी आगे बढ़ाकर ) अहा ! यह बचनाग जैसी प्राणघातक जड़ीके रस और सोमलके सत्वका मिश्रण है। For Private And Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य २] बलभद्रदशका राजकुमार । तीन सौ मेढ़कोंको भट्ठोमें रख्की हुई और साँप तथा बिच्छू तले हुए तेलमें तीन बार और भैसेके गरम गरम खूनमें तीनबार डुबोकर निकाली हुई यह शीशी ! खून करनेका ऐसा अच्छा सरंजाम शायद ही कभी किसीने किया होगा ! आ: हाः। चारों ओर सन्नाटा छा गया है ! पेड़की पत्ती तक नहीं खड़खड़ाती ! निद्रादेवीने सारी सृष्टिको मानों अपनी गोदमें सुला लिया है ! ( जरा सोचकर ) हाँ ; अब क्यों डरते हो ? राज्य और स्त्री हिम्मत किये बिना नहीं मिलती ! रे विषोंके मिश्रण ! तुझसे मेरी यही प्रार्थना है कि तेरा और इस सोये हुए राजाके कानोंका संयोग होते ही तू अपने विचित्र प्रतापका नमूना दिखा दे ! हमारे ऐसे विलक्षण साहसी पुरुषोंको आश्रय देनेवाला तेरे सिवा और कौन है ? अच्छा, चल, और अपना भयंकर प्रताप दिखा ! ( राजाके कानोंमें विष डालता है । ) - जयन्त-देखिये, महाराज ! इस नरपिशाचने राजाकी सम्पत्ति हरण करनेके लिये उसके कानोंमें विष डाल दिया । इसका नाम है 'मातंग' । यह कथा सारी दुनिया जानती है और सागरांती भाषामें लिखी हुई है। अब आप बहुत जल्द देख लेंगे कि यह हत्यारा उसकी स्त्रीको कैसे अपने बसमें कर लेता है ! . कमला-देखिये, महाराज उठ खड़े हुए ! जयन्त-क्या झूट मूठकी हत्या देखकर है। रानी-प्राणनाथ ! कैसी तबियत है ? धूल-बस, अब खेल एक दम बन्द कर दो । रा०-चलो, उठो, रोशनी लाओ, जल्दी करो । सबलोग-रोशनी, रोशनी, मशाल, मशाल ! For Private And Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org ९४ [ अंक ३ ( जयन्त और विशालाक्षके सिवा और सब जात हैं । ) जयन्त — क्यों विशालाक्ष ! मिलाओ हाथ ! क्यौं, कैसी तदबीर है ? अब इससे बढ़कर और क्या प्रमाण हो सकता है ? उनसे जाकर कह दो कि आपके जीवनका अन्तिम दिन अब समीप आ ग या ! सुखके दिन बीतकर अब विपद् के दिन आ गए ! कोई हँसता है, कोई रोता है; जो हँसता है वह रोता है, और जो रोता है वह हँसता भी है; इसी तरह यह संसारचक्र सदा घूमा करता है । पर क्यौंजी, विशालाक्ष ! अगर मैं किसी तरह अपना पेट न भर सका तो क्या नाटक में नाचकर किसी नाटककम्पनीका भी हिस्सेदार नहीं हो सकता ? Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त विशा० - क्यों नहीं ? महाराज ! आपतो आधे हिस्से के मालिक हो सकते हैं । जयन्त—क्यों ? आधा क्यों ? मुझे तो पूरा हिस्सा मिलना चाहिये | क्या तुम नहीं जानते कि उसने मेरे पिताका खून करके यह राज्य हड़प लिया है ? और अब वही हत्यारा कौआ उनकी राजगद्दीपर फुदुक रहा है ! विशा० - - महाराज ! उन्हें कौआ न कहकर अगर गदहा कहा - जाय तो उनकी बुद्धिको बहुत ठीक उपमा मिल जाय । जयन्त - प्यारे विशालाक्ष ! अब तो उस भूतके एक एक अक्षर का मूल्य हज़ार २ अशर्फ़ियां हैं ? क्या तुमने सब हाल अच्छी तरह नहीं देखा ? विशा० - बहुत अच्छी तरह देख लिया, महाराज ! जयन्त -- विषकी बात आते ही कैसा.... For Private And Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra दृश्य २ ] बलभद्रदेशका राजकुमार । बस, वहीं सारा भेद खुल गया । -अच्छा, चलो, अब कुछ गाना बजाना सुनें । ( नय और विनय प्रवेश करते हैं । ) विनय - महाराज ! आज्ञा हो, मैं आपसे कुछ बात कहना चाहता हूँ । जयन्त - कुछ क्यौं ? सब कहिये । विन० - महाराजका... www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विशा० जयन्त ९५ जयन्त- -क्या ? 'महाराजका' क्या ? विन०- -जब वे खेल देखकर यहांसे उठ गए तभी से उनका मिजाज़ बिगड़ गया है । जयन्त - ठीक है; आज नशा कुछ ज्यादा किया होगा, इसीसे मिजाज विगड़ गया है । विन०- नहीं, महाराज ! नशेसे नहीं - गुस्से से । -- जयन्त - यही बात यदि उनके कविराजसे जाकर कहते तो आर भी अच्छा न होता ? मुझे कहने से क्या होगा ? मेरी औषधियोंसे तो उनका गुस्सा और भी बढ़ जायगा । विन० १०- महाराज ! आप ऐसी टेढ़ी बात क्यों करते हैं ? सीधी सीधी बात कीजिये । जयन्त- - मैं तो बहुत सीधा हूँ, जनाब ! फर्माइये, आपका कहना क्या है ? विनय - महाराज ! आपकी मा महारानी साहब ने मुझे आपके पास भेजा है । जयन्त - अहा ! आपको मेरी माने मेरे पास भेजा है ? अच्छा, आइये, बैठिये । For Private And Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org ९६ जयन्तः [ अंक ३ विन० - महाराज ! यह शिष्टाचार करनेका समय नहीं है। अगर आप कृपा करके ठीक ठीक जवाब दें तो मैं महारानी साहबका सन्देसा आपको सुना दूँ; नहीं तो आज्ञा दीजिये, मैं यहीं से लौट जाता हूं । समझ लूँगा, मेरा काम हो गया । जयन्त - जाइये; मैं नहीं दे सकता । विन ---- -क्या ? जयन्त — ठीक जवाब | मेरा मस्तिष्क बिगड़ गया है। अच्छा कहिये, आप क्या कहते हैं ? आप कहते थे कि मेरी माने मुझे एक सन्देसा कहलाया है। हाँ हाँ, कह डालिये उनकी क्या आज्ञा है विन० - महाराज ! उन्होंने कहा है कि आपकी हरकतें देखकर मैं चकित हो गई हूँ | 1 .. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.com जयन्त - हाय, हाय ! रे अद्भुत पुत्र ! तूने अपनी माको चकित कर डाला । बस, यही कहना था ? उनके चकित होनेका और कोई कारण नहीं है ? हो तो कह डालिये, छिपाते क्यों हैं ? नय - महाराज ! जब आप सोने लगेंगे तब एक बार उनके महलमें जाकर उनसे मिल लीजिये; वे आपसे कुछ बातें किया चाहती हैं । जयन्त - अच्छा, कह दीजिये, मैं ज़रूर मिलूँगा | बस, हो चुका आपका काम ? या और भी कुछ कहना है ? नय - महाराज ! आप मुझे पहिले बहुत प्यार करते थे । जयन्त - वैसा अब भी करता हूँ। और इसके लिये मैं कसम भी खा सकता हूँ । नय - तो फिर, महाराज, अपनी तबियतका सच्चा सच्चा हाल मुझे बतला दीजिये । अगर आप अपने मित्रसे अपना दुःख न कहेंगे तो For Private And Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बलभद्रदेशका राजकुमार । दृश्य २ ] वह दुःख दूर कैसे हो ? जयन्त - भाई ! मैं अपनी तरक्की चाहता हूँ । समझ गये ? नय - महाराज ! आपके चाचाजीने तो आपको अपने बाद राजगद्दीका वारिस कबूल किया है; फिर आप यह कैसी बात कहते हैं ? जयन्त - हाँ, ठीक है; 'जब बाबा मरेंगे तब बैल बटेंगे' । क्यों, यही बात न ? ( बाजा लेकर नट फिर प्रवेश करते हैं । ) अ: हा ! आइये, आइये । अच्छा ज़रा देखूँ तो सही आपका बाजा । ( विनयसे ) क्यौंजी विनय ! तुम मुझे उल्टे सीधे सवाल करके मेरे पेटकी थाह लेना चाहते हो ? अच्छी बात है । विन० - महाराज ! न जाने क्यों आपके विषयमें मेरे मन में कुछ विलक्षण प्रेम है; इसी लिये मैं आपको आपकी तबियतका हाल पूछा करता हूँ । जयन्त - न जाने क्या बकते हो मेरी समझमें तो कुछ भी नहीं आता । खैर, यह बाजा बजाओगे ? विन० - नहीं, महाराज ! मैं नहीं बजा सकता । जयन्त - अच्छा, मैं कहता हूँ; इसीलिये बजाओ । विन०- नहीं, महाराज ! विश्वास रखिये, मैं बिल्कुल नहीं जानता । - अच्छा, लो हाथ जोड़ता हूँ; अबतो बजाओगे ? विन० ० - महाराज ! सचमुच, मैं कुछ भी नहीं जानता । जयन्त जयन्त - अजी, इसमें ऐसी कौनसी बात है जो तुम नहीं बजा सकते । यह उतना ही सहज है जितना बैठे बैठे टांग पसारकर सो जाना । देखो, ये अंगुलियां इन छेदोंपर रखकर मुँइसे इस तरह फूँक दो । सुना ! कैसा मीठा सुर है ! बस, इसी तरह बजाओ । For Private And Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org जयन्त Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९८ ये सात सुरोंके सात छेद हैं । विन० ० -- पर मैं इसे बजाना जानता ही नहीं । मैंने यह इल्म ही नहीं सीखा | 1 जयन्त - तुम भी मुझे बड़ा सीधा आदमी समझते हो; क्यों ? इस बाजेसे भी बेजान ! बातों बातों में मेरे दिलकी थाह निकाल लेना चाहते हो | कौन बात छेड़ने से मैं क्या कहूँगा यह तुम जानते हो ! मेरे दिल में क्या है उसे तुम बाहर निकाल सकते हो । मेरे सब सुर तुम जानते हो; एक एक पुर्जेको पहिचानते हो; पर इस जरासे बाजेको नहीं बन सकते । इसमें कैसे कैसे ध्वनि और सुर हैं ! इसमेंसे आवाज़ निकालना तुमसे नहीं बन पड़ता । क्या तुम यह समझते हो कि मेरे दिलका पता लगाना और मुझे बातोंमें बहकाना इस बाजेसे सुर निकालने से भी सहज है ? मुझे तुम चाहे जो बाजा या यन्त्र समझ लो - मुझे उससे क्या ? तुम्हार बहकाने से मैं बहकनेवाला नहीं हूँ । • [ अंक ३ ( धूर्जटि प्रवेश करता है | ) जयन्त—–आइये, महाशय ! क्यौं, क्या खबर है ? धू० - महाराज ! रानीसाहब आपसे कुछ बातें किया चाहती हैं; इसलिये उन्होंने आपको अभी बुलाया है । जयन्त — क्या वह मेघ आपको दिखाई देता है जो ठीक ऊँटकी शकला है ? धू०- ( ऊपर देख कर ) जी हाँ, सचमुच, ठीक ऊँटकी शकल है । जयन्त - मुझे तो नेवलेकी शकलका देख पड़ता है । धू० - हाँ, महाराज । है सही नेवलेके ऐसा । For Private And Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य २] बलमद्रदेशका राजकुमार । जयन्त-नहीं, जनाब ! देखिये, व्हेलके ऐसा है । धू०-हाँ, ठोक ठोक; बिल्कुल व्हेलकी शकल है । जयन्त-अच्छा, जाइये; मासे कह दीजिय कि फुर्सत होनेपर मिल लूँगा । ( स्वगत ) ये लोग बड़े धूर्त होते हैं; जिधर झुकाइये उधर झुक जाते हैं-इनका मतलब पूरा होना चाहिये । अच्छा, आप चलिये और कह दीजिये, मैं आता हूँ। धू०-बहुत अच्छा; ऐसा हो कह दूंगा । जयन्त-हा, आप क्यों नहीं कहेंगे ? ( धूर्जटि जाता है । ) मित्रो ! अब तुम लोग भी जाओ । ( जयन्तके सिवा और सब जाते हैं । ) अहा ! रातका समयभी कैसा भयानक होता है ! इसी समय जादूगरनी जादू करती हैं; और टोनहिन टोना मारती हैं ! इसी समय कबके मुँह खुल जाते हैं; और उनमें गड़े हुए प्रेत बाहर निकलकर पृथ्वीपर भ्रमण करते हैं ! इसी समय नरकका द्वार खुल जाता है, और उसमें से महामारी जैसे अनेक भयङ्कर संक्रामक रोग निकलकर पृथ्वीके असंख्य जीवोंकी हत्या करते हैं ! तो क्या मैं भी इसी समय उस नरपिशाचकी हत्याकर उसके कलेजेका गरम गरम खन न पी सकंगा ? यदि इसी समय जीवमात्रके अन्तःकरणको एकबार थर्रा दने वाला यह कठोर काम मेरे हाथों हो जाता तो फिर पूछना ही क्या था ! पर, हां, मुझे अभी अपनी मासे मिलना है । हृदय ! अपना स्वभाव एक दम भूल न जा; और अपने ऊपर इन राक्षसी विचारोंका असर न पड़ने दे ! कठोर यन; पर मनुष्य-स्वभावके विरुद्ध कोई काम न कर ! उसके कले For Private And Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०० [अंक ३ जेमें छुरेके समान चुभने वाली बातें बोल; पर इन हाथोंको उसका प्रत्यक्ष व्यवहार न करने दे ! विचारोंमें और बातोंमें भेद रखनसे लोग मुझेर दाम्भिक तो अवश्य ही कहेंगे; पर उपाय क्या है ? हे. जगत्पिता . ! जब भी मैं उसके . कलेजें में चुभनेवाली बातें उसे सुनाऊँ . भी उसपर शस्न उठानेकी दुबुद्धि मुझे न दे ! (जाता है । ) तीसरा दृश्य। स्थान-राजभवनका एक कमरा । राजा, नय और विनय प्रवेश करते हैं । रा- अब तो वह मेरे चित्तसे बिल्कुल उतर गया है ; और ऐसे पागळको वहाँ स्वतन्त्र छोड़ देनेमें हमारी कुशल भी नहीं है । इसलिये तुम लोग उसे साथ लेकर श्वेतद्वीप जानेकी तैय्यारी करो। मैं अभी एक. खरीता तैय्यार किये देता हूँ , उसे भी साथ लेते जाना । उसे ऐसी दशामें यहाँ रख छोड़नेसे.हमारे सारे राज्यको इसका प्रायश्चित्त भोगना पड़ेगा। - विन:-हमलोम अभी तैय्यार हो जाते हैं । महाराज ! जिनका जीवन केवल आपहीपर निर्भर है उनकी रक्षाकी चिन्ता करना सच, मुच आपका पवित्र कर्तव्य है। .. . नय-महाराज ! जिसका इस संसारमें कोई भी नहीं-जो. अकेला है उसे भी हर उपायसे. अपने प्राणों की रक्षा करनी चाहिये । फिर आप जैसे रजा. महाराजाओंपर तो. हाखों मनुष्योंका : जीवन निर्भर है; इसलिये आपको अपनी रक्षाके लिये और भी सावधानी रखनी For Private And Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य ३ ]. बलभद्रदेशका राजकुमार । १०१ चाहिये । राजा अकेला नहीं मरता; अपने साथ कई एकोको ले बीतता है । राजाकी मृत्युको हम भँवरकी उपमा दे सकते हैं; जैसे भवर अपने इर्द गिर्दकी बस्तुओंको डुबा देता है वैसे राजाकी मृत्यु भी कई लोगों के नाशका कारण बनती है । राज-जीवन एक बड़ा भारी चक्र है जो ऊँचे पर्वतपर गड़ा है, और जिसके दाँतों में हज़ारों छोटी छोटी चीजें नहीं हैं। जैसे उस चक्रके, पर्वतके नीचे आ गिरनेसे उसमें जड़ी हुई सारी चीजें उसीके साथ टूट फूटकर नष्ट हो जाती हैं; वैसे ही इस राज-जीवनचक्र के साथ साथ सारे राज्यके नष्ट हो जानेका डर रहता है। तात्पर्य, राजाके पीछे उसकी सारी प्रजाको दुःख उठाना पड़ता है । रा०-- खैर, तुम लोग अब जल्द तैय्यार हो जाओ; क्योंकि इस दिन दिन बढ़ने वाले डरकी जड़ को काट ही डालना अच्छा है । नय, विन० -- महाराज ! हमलोग अभी तैय्यार हो जाते हैं । ( नय और विनय जातें हैं । ) ( धूर्जटि प्रवेश करता है | ) धू० - महाराज ! वह अपनी मार्के महलमें जा रहा है । मुझे आज्ञा हो तो मैं उसी जगह कहीं छिपकर उनकी सारी बातें सुन हूँ । मुझे आशा है कि रानीसाहब उसके हृदयकी थाह जरूर ले लेंगी ; पर,. शायद अगर वे पुत्र-प्रेममें आकर उससे मिल जायँ, जैसा कि आप कहते हैं तो, उसकी खबर भी तो हमें हो जानी चाहिये; इसलिये छिपे र उनकी बातें सुन लेना बहुत ही जरूरी है। आप निश्चिन्त रहें, मैं आपके सोनेसे पहिले ही आपसे मिलकर वहाँका सारा हाल कहूँगा । रा० - इसके लिये मैं आपको धन्यवाद देता हूँ। (धूर्जटि जाता है) आह ! मैंने ऐसा घृणित पाप किया कि जिसकी दुर्गन्ध स्वर्मतक पहुँच For Private And Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०२ जयन्त [अंक ३ गयो ! हाय, हाय ! मैंने भाईका खून किया ; जो सारे धर्मशास्त्रों में महापाप माना जाता है ! मैं ईश्वरकी प्रार्थना करना चाहता हूँ ; पर कर कैसे सकता हूँ ? क्योंकि मेरे घोर पापोंके सामने मेरी सद्इच्छाएँ. दब जाती हैं । और मेरी उस मनुष्यकीसी दशा हो जाती है जिसके सामने दो काम हों, और उन दो कामोंमें कौनसा पहिले कर ; इसी बातका विचार करने में सारा समय नष्ट होकर उसके हाथों उनमेंसे एक भी नहीं बन पड़ता । भाईका खून करनेसे मेरा हाथ अपवित्र हो गया है ; पर क्या यह उस दयामय परमात्माके कारुण्योदकसे धुलकर स्वच्छ और पवित्र नहीं हो सकता ? दया, अपराधोंकी क्षमा करने के सिवा और किस कामकी है ? और ईश्वर-स्तुतिमें भी तो यही गुण है कि पहिले पापोस बचाना और पाप करनेपर उसे क्षमा कर देना । बस, अब मैं ईश्वरको प्रार्थना करता हूँ , जिससे मेरा घोर पाप जलकर अभी भस्म हो जाय । पर, हाँ, क्या कहकर प्रार्थना करूँ ? हे ईश्वर मेरे किये खूनके लिये मुझे क्षमा कर ! ऐसा कहूँ ? नहीं नहीं, ऐसा कहना ठीक न होगा । क्योंकि मुकुट, विभव और स्त्री आदि जिन वस्तुओंके लिये मैंने खून किया था वे सब वस्तुएं तो अबतक मेरे पास मौजूद हैं । तो क्या ऐसे निडर और उन्मत्त खूनीके खूनकी क्षमा हो सकती है ? नहीं, कभी नहीं । पृथ्वीके घूसखोर न्यायकर्ता ऐसों को भले ही क्षमा कर दें; पर उस न्यायप्रिय परमात्माके दारमें ऐसा अन्याय कभी नहीं हो सकता । यहाँ-इस लोकमें यह वात प्रायः देखनेमें आती है कि अपराधी लोग घूसखोर न्यायकर्ताओंको अन्यायसे बटोरा हुआ धन देकर उनसे अपने अनुकूल न्याय कग लेते हैं; पर वहाँ-स्वर्गमें यह बात कैसे होसकती है ? वहाँ तो अपराधोंका सच्चा रूप प्रकट हो जाता है, और अपराधोंकी मचाई सिद्ध For Private And Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य ३ ] बलभद्रदेशका राजकुमार । . १०३ करने के लिये हमें अपना सारा भेद खोल देना पड़ता है । तो फिर क्या करूं ? अब कौनसा उपाय है ? पश्चात्ताप करूँ ? हाँ, ठीक है; अब पश्चात्ताप ही करना चाहिये । क्योंकि वह क्या नहीं कर सकता १ पर जिसे पश्चात्ताप होता ही नहीं उसके लिये वह क्या कर सकता है ? हाय हाय ! यह कैसी दुर्दशा ! हृदय ! सचमुच, तू मृत्युके ऐसा कठोर बन गया है ! रो नीचात्मा ! तू मुक्त होनेके लिये इतना धक्कमधक्का कर रही है, पर पाप- पाशमें ही फँसी जाती है ! दे देवदूतो ! दया करो, मुझपर दया करो ! अड़ियल घुटनो ! ज़रा झुक जाओ । हृदय और नाड़ियो ! एकदम पत्थर जैसे कठोर न बनो बच्चोंकी नसोंकी तरह कोमल बनकर साष्टांग प्रणिपात करो ! इससे सब काम बन जायगा । ( झुककर प्रार्थना करता है | ) ( जयन्त प्रवेश करता है | ) जयन्त - बस, अब मेरे कामके लिये इससे बढ़कर अच्छा मौका और कौन मिलेगा ? यह परमेश्वरकी प्रार्थना कर रहा है; इसी समय इसका खून कर डालना अच्छा होगा; जिसमें वह सीधे स्वर्ग में ही चला जाय । पर क्या ऐसा करने से मेरा बदला चुक जायगा ? नहीं; इस बातको पहिले अच्छी तरह सोच लेना चाहिये । इस नरपिशाचने मेरे पिताका खून किया है; इसलिये उस खूनके बदले में, मैं अपने पिताका एक ही पुत्र होकर, इस नीचाधमको स्वर्ग में भेज दूं ? हा ! यह तो उस खूनका बदला नहीं - पारितोषिक कहलावेगा । इम हत्यारेने ऐन जवानी में उनका एकाएक खून कर डाला - उन्हें अपने पापोंका प्रायश्चित्त करने का भी अवसर न दिया ! इस बातको सिवा उस परमात्मा और कौन जान सकता है ! पर मेरी समझ में उनके For Private And Personal Use Only 4 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२४ जयस्त [ अंक ३ मस्ते समय उनपर पापफेंका बोझ बना ही रहा होगा ! फिर क्या अभी - इसीसमय, जब कि वह अपने लिये स्वर्ग जानेका रास्ता साफ़ कर रहा है----उसका खून कर डालूं ? इससे मेरे प्यारे पिता के खूनका बदला - चुक जायगा ? नहीं, नहीं; इससे बदला नहीं चुकेगा । जल्दी करनेसे सारा काम बिगड़ जायगा । रे खड्ग ! खबरदार, म्यानके अन्दर हो जा ! रे आतुर हाथ ! चल हट पीछे और इससे भी अच्छा मौका खोज ! जब वह शराब पीकर सोया हो या उसके नशे में चूर हो, या पशुके सम्मान अपने भाईकी स्त्रीसे व्यभिचार करने में मगन हो; जुवा खेलता हो, झूठी सौगन्द खाता हो या ऐसा ही कोई और बुरा काम करता हो जिससे वह मुक्ति न पा सके उस समय तू ऐसा प्रताप दिखा कि वह सीधे नरकके सिवा और कहीं न जा सके। हं, ( ज़रा सोचकर ) मा मेरी राह देखती होगी । इन प्रार्थनाभते अपने विपद्मस्त जीवन के दिन यह और भी बढ़ा रहा है। ( जाता है । ) रा०- ( उठकर ) मेरे शब्द तो ऊपर जा नीचे ही बने हुए हैं। क्या विचार रहित शब्द सकते हैं ? नहीं, कभी नहीं । रहे हैं; पर विचार भी स्वर्गतक पहुंच ( जाता है । ) चौथा दृश्य । स्थान - रानीका महल | -:: रानी और धूर्जटि प्रवेश करते हैं। धू • • वह सीधा यहीं आवेगा । देखिये, उससे खूब सावधानी से For Private And Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बलभद्रदेशका राजकुमार । मातें करिये । उससे यह कहिये कि ' देखो जी , अब तुम्हारा पागलपन बहुत हुआ अब उसे कोई नहीं सह सकता इसका प्रायश्चित्त तुम्हें आजतक मिल जाता, पर मैं थी, इससे तुम आजतक बचे रहे । ' मैं यहीं परदेकी आड़में छिपा रहता हूँ; उससे खूब हिलंमिलकर उसके मनकी बात समझ लीजिये। जयन्त-( भीतरसे) मा ! मा ! रानी..जाइये जाइये, वह आ गया । आप चिन्ता न कीजिये; भरसक मैं कोई बात उठा न रखेंगी। (धूर्जटि परदेकी आड़में छिप जाता है ।) जयन्त प्रवेश करता है। अयन्त-मा ! क्या बात है ? मुझे किस लिये बुलाया है ? रानी-जयन्त ! तूने अपने पिताका भारी अपराध किया है। जयन्त-मम ! तूने मेरे पिताका बड़ा भारी अपराध किया है। रानी- खबरदार, ऐसी बेतुकी बातें न कर । जयन्त- खबरदार, तू भी ऐसी नीचताकी बातें न कर । रानी-जयन्त ! आजकल तेरी क्या हालत है ? जयन्त-मा ! मैंने क्या किया ? रानी-क्या तू मुझे भूल गया ?.. जयन्त नहीं नहीं;-भला मैं आपको भूल सकता हूँ! आपरानी हैं, अपने पतिके सगे भाईकी पत्नी हैं, और-हाय !-आप मेरी मा हैं। रानी-क्या तू मुझसे सीधी तरहसे. न बोलेगा ? अच्छा अब मैं उन्हींको तेरे पास भेज देती हूँ जिनसे तू मखमारके सीधी सीधी बातें करेगा। For Private And Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'जयन्तः -- [ अंक ३ जयन्त-आइये, यहाँ आइये । जरा बैठ जाइये । आप जाती कहां हैं ? जबतक आपकी हृदय खोलकर आपको न दिखला दूँ तबतक आप यहांसे कहीं नहीं जा सकती ? रानी--( डरके साथ ) ऐं ? तू करेगा क्या ? क्या मेरा खून करेगा ? दौड़ो, दौड़ो; बचाओ, बचाओ ! धू-( भीतरसे ) क्या ? दौड़ो, दौड़ो; बचाओ, बचाओ ! जयन्त-( तलवार खींचकर ) कौन ! चूहा ? ( परदेमें तलवार घुसाकर ) ले, मर, पेटके लिये मर । धू०-( भीतरसे ) हाय ! मरा ! खून ! (गिरकर मरता है।) रानी-हाय हाय ! यह तूने क्या किया ? जयन्त-मैं नहीं जानता, मैंने क्या किया ? क्या चचाजी तो नहीं थे ? 'रानी-हाय हाय ! तूने कैसा नीच और घोर काम किया ? जयन्त-क्या ? नीच और घोर काम ! मा! अपने पतिका खन करके उसके सगे भाइसे शादी करनेके बराबर नांच और घोर ? रानी--क्या ? पतिका रवून करके ! जयन्त-जी हाँ ! मेरे वेही शब्द थे । ( परदा उटाकर धूर्जटिको लाशको खींच लाता है । ) अभागे, उतावले, और हरकाममें हाथ डालने वाले पाजो मूर्ख ! ले, अब तुझे अन्तिम राम राम करता हूँ। मैं तुझे भला आदमी समझता था। रो अब अपने भाग्यपर ! अब तो तू जान गया होगा कि दूसरों के काममें दस्तंन्दाजी करनेका कैसा नतीजा होता है। (रानीसे ) क्यों फ़जूल रोती हो ? चुप रहो, शान्त हो ! आओ, यहाँ बैठो और तुम्हारी भलाई के लिये जो बात कहूँ, For Private And Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य ४] बलभद्रदेशका राजकुमार । १०७ उसे ध्यानसे सुनो । मुझे विश्वास है कि तुम्हारा हृदय अभी पत्थरसा कठोर नहीं बन गया है और न उसपर दुर्व्यसनोंका इतना गहरा असर ही पड़ा है कि तुम विवेकका कोई ख्याल न करोगी। रानी--अयन्त ! मैंने ऐसा कौनसा बुरा काम किया कि तुम मुझे इतनी कठोर बातें सुनाते हो। . ___जयन्त-तूने ? तूने ही तो सारा सत्यानाश किया; और उल्टे मुझसे ही पूछ रही हो कि 'मैंने ऐसा कौनसा बुरा काम किया' ? धिक्कार है तेरे जीवनको ! तुझे तो चुल्लू भर पानीमें डूब मरना चाहिये । तूने ऐसा काम किया है कि जिससे सारी कुलीन स्त्रियोंको लजित होकर सिर झुकाना पड़ता है । तूने ऐसा काम किया है कि जिससे स्त्रियोंका सतीधर्म लोगों को निरा पाखण्ड जान पड़ता है । तूने ऐसा काम किया है कि जिससे पति पत्नीके प्रेमकी पवित्रता नष्ट होकर उसे भयङ्कररूप आगया है; और विवाह समयकी सौगन्दें जुआरियोंकी सौगन्हें जान पड़ती हैं। आह ! तेरे और क्या क्या अपराध बताऊँ ! तूने वह काम किया है जिससे विवाह और धर्मकी पवित्रता जाती रही ! उनमें अब कोई अर्थ न रहा ! तेरे इस पापकर्मको देखकर परमात्माने रुद्र रूप धारण किया है; और सारी सृष्टि प्रलयके भयसे थर थर कांप रही है। - रानी-मैंने ऐसा कौनसा अपराध किया है जिससे संसारमें इतनी खलबली मच गयी ? .. जयन्त-यह चित्र देख और इस चित्रको भी देख । दोनों भाइयोंकी ये हूबहू तसबीरे हैं ! देख, इस ललाट की तेजस्विता, ये कृष्ण केशपाश, यह मर्दकी छाती, ये तेज:पुंज नेत्र, यह रवाय, यह बाना और यह तेजस्विता ! मानो गगनचुंवित शैलाशरवरपर For Private And Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૧૦૮ जयन्त-. [ अंक ३ सोलहों कलाओंसे चमकता हुआ यह चंद्रमा ही है ! विधाताने मानों अपमा घटनाचातुर्य दिखानेके लिये यह सौंदर्थमय मानवमूर्ति निर्मित की है ; तेरे सौभाग्यसे तुझे यह वर मिला । अब यह चित्र देख; यह तेरा अब पति है ; जैसे अनाज का सड़ा हुआ बाल पासके और अच्छे बालोंको बरबाद कर देता है ; इस पापीने वैसे ही अपने बड़े और निरोगी भाईको मरवा डाला । क्या तुझे आँखें नहीं हैं ? उस मदनको छोड़ कर इस कालकूटको कैसे गले लगाया ? प्रबल कामका वेग इसका कारण कहूं तो यह भी नहीं हो सकता; क्योंकि अब तेरी वह वयस् नहीं है । इस क्यस्में कामपर विचारका स्वामित्व रहता है । अकल, हां तुझमें अकल भी है; नहीं तो तेरा एक काम भी न बनता । क्या तू पागल हो गयी है ? पर पागल भी तो ऐसी भूल नहीं करते ; और फिर उसकी बुद्धिमें कितना ही भ्रम क्यों न हो जाय, भला बुरा समझनेकी कुछ शाक्त अवश्य होती है । तो ऐसी कुवासना कहांसे उत्पन्न हुई ? वह कौन चुडैल या डाइन है जिसके वशमें आकर तूने घोर पाप कर डाला । तेरी आंखें, कान नाक, मुंह हाथ क्या शरीरकी सारी इंद्रियां नष्ट हो गयीं ? एक ही इंद्रियमें फर्क पड़ता तो ऐसी भूल न होती। धिक् ! अब भी शरम नहीं आती ! अरी कामवासना ! इस ढलती उम्र में जब इसके शरीरमें तेरी इतनी धधक है तो फिर जिनका शरीर यौवनसे पूर्ण है उनमें तेरी भस्मकर प्रवृत्ति एक भी सद्गुण स्वाहा होनेसे न बचने देती होगी ! और फिर युवा उसके लिये क्यों दोषी हों : जब मरघटकी राह चलनेवालोंका यह हाल है तो अबसे व्यभिचार करनेवाले युवाओंको दोष देना अनुचित है। रानी- जयन्त, अब बस करो । तेरे इस भाषणसे मेरी आँखें For Private And Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य ४] बलभद्रदेशका राजकुमार। १०९ खुली और मैं अपना पाप देख रही हूं । अब मत बोल; मेरा शरीर अन्दरसे जल उठा है। मैंने जो पाप किया है उसका दाग कैसे साफ करूं? नहीं ; उसको नहीं धो सकती ! हाय ! मैं कैसी नीच पापीन हूं ! जयन्त-दगाबाज, खूनी और लूटेरा ! बेरहम, हरामी, चांडाल ! तेरे पहिले पतिकी योग्यताका बीसवां हिस्सा भी इस नीचमें नहीं है ! राजकलंक । कुलकलंक ! राज और अधिकार चुरानेवाले कायर डाक ! इस हरामीने मेरे पितमका स्नजडीत मुकुट अपने शिरपर बेखटके रख लिया ! रानी-जाने दो; अब कुछ न कहो । जयन्त यह राजा बना है ! चिथरों और धजियोंका राजा है ! (भूतका प्रवेश) हे आकाशस्थ गंधर्वकिन्नरो! इस अनाथ बालकपर कृपा करो ! यह दर्शनीय रूप धारणकर इस समय तू यहां किस लिये आया है ! रानी-हरे ईश्वर ! यह पागल हो गया ! जयन्त-क्या तू यह कहनेके लिये आया है कि समय बीत चला और अभीतक तेरी कठोर आशाका पालन नहीं हुआ ? बोल, मेरा सन्देह दूर कर। भूत-मैंने जो तुझसे कहा है वह मत भूलना । इधर वह बात तेरे ख्वालमें हो शायद न रही इसलिये ताकीद देने आया ! पर देख, उधर देख, तेरी माका क्या हाल हो गया ! जा, उसे समझा बुझा कर राहपर से आ । कमजोर दिलको कल्पना बहुत जल्द बहकाली है। जा, उससे बोल । जयन्त-माताजी, कहिये, आपका क्या हाल है ! For Private And Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त [ अंक-३ रानी-तेरा यह क्या हाल है ? क्या बात है ? किससे बात करता है ? हवासे ? ऐसी आंखें फाड़कर क्यों देखता है ? और ऐसा काँप क्यों रहा है ? बदनपर यो रोगटे क्यों खड़े हुए । प्यारे जयन्त ; घबरा मत ; धीरज मत छोड़ ; मन ठिकाने ला; सोच ! अरे क्या देखता है ? जयन्त-उसे, उसे ! देख, देख, उसका चेहरा कितना फीका पड़ गया है ! उसके दुःखके कारण और उसका चेहरा देखकर पत्थर भी पिघल जायगा । मेरी तरफ मत देख ; क्योंकि तेरा दीन चेहरा देखकर मेरा निश्चय आगे नहीं बढ़ता । मुझे जो काम करना है वह डरकर न होगा; उसके लिए कसाईकी निठुरता चाहिये । आंसू नहीं-खून बहाना है। रानी-यह सब किससे कह रहे हो ? । जयन्त-क्या वहां तू कुछ भी नहीं देखती ! रानी-नहीं, कुछ नहीं । जो है उसे देखती हूँ ; नहींको कैंस देखें ? जयन्त-तूने कुछ सुना भी नहीं ! रानी-अपनी बातोंको छोड़ और कुछ नहीं । जयन्त-क्या ? कुछ नहीं देखा ? देख देख, यह देख ! कैस धीरे धीरे जा रहा है ! मेरे पिता, जीते हुए जैसी पोशाक पहिनते थे उसो पोशाकमें आये हैं । क्या तूने नहीं देखा ? देख देख, उन्होंने दरवाजेके बाहर कदम रखा। (भूत जाता है । ) । रानी-यह सारा तेरा भ्रम है। भ्रमसे न जाने क्या क्या बाते दिखलाई देती हैं। For Private And Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य ४ ] बलभद्रदेशका राजकुमार । १११ जयन्त-भ्रम ! तुम्हारी जैसी मेरी नाड़ी भी ठीक चल रही है-उसमें कोई फर्क नहीं । मैंने जो कुछ कहा सही सही कहा कोई पागलपनकी बात न कही । यदि तुम्हें विश्वास न हो तो कहो मैं फिर उन बातोंको वैसेदी दोहरा दूं। क्या पागल ऐसा कर सकता है ? अपने कुकर्म छिपाने के लिये मेरा कहना पागलपनकी बकवाद मत जानो । अपना अपराध आप न देखोगी तो सारा शरीर सड़ जायगा -- उसमें कीड़े पड़ेंगे | ईश्वरके सामने अपने अपराध कबूल करो; कियेपर पछताओ; आगेकी सुध लो; और अपने अपराधोंको छिपाने की चेष्टा कर अपराधपर अपराध मत करो । इस सच्ची सलाहके लिये मुझे माफ करो; क्योंकि समय ही ऐसा विपरीत है कि सज्जनों को दुर्जन से माफी मांगनी पड़ती है- नहीं नहीं - काम पड़नेपर उनकी जूतियाँभी उठाने के लिये तैयार रहना पड़ता है । 1 रानी - हा ! जयन्त ! मेरा कलेजा काटकर तूने उसके टुकड़े कर डाले | जयन्त--अच्छा तो खराब टुकड़ा फेंक दो, अच्छेकी सोहबत करो | मैं जाता हूं; पर मेरे चाचाके कमरे में न जाना । अगर तुममें वह गुण न भी हो तो कमसे कम वह लोगोंको मालूम न होना चाहिये । इस नीच ढोंगसे नीच आदतें अपनीसी हो जाती हैंउनसे फिर मन बेचैन नहीं होता - सही है; पर ऐसे ढोंगसे एक फायदा यह है कि लोगों में बेइजती नहीं होती । कोशिश करो तो सब कुछ बन जायगा । क्योंकि अभ्याससे मन ठिकाने आ जाता हैस्वभाव पलट जाता है— बुरी आदतें छूट भी जाती हैं । अच्छा, जाता हूं । अपना स्वभाव, अपनी आदत छुड़ानेकी जब तुम्हें इच्छा मैं • For Private And Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१२ जयन्त [अंक ३ होगी, और जब तुम ईश्वरसे प्रार्थना करोगी तब मैं भी अपनी मा तुमसे बालककी तरह आशीस मांगूगा । (धूर्जटिकी तरफ इशारा कर ) इस बेचारेपर मुझे बड़ी रहम आती है; पर क्या करूं ? परमात्माही चाहता है ! उसीकी इच्छासे इस दुष्टने मुझे कष्ट दिये; अब उसीकी इच्छा है कि मैं इसकी खबर लूं। अब इसे गाड़नेकी फिक्र करता हूँ। तुम मत डरो। मैं इसका जिम्मेवार हूँ। मैं जो इतना निठुर हो रहा हूं इसका कारण यह है कि फिर हम लोगोंमें स्नेह बना रहे । पहिले दुःख फिर सुख-इसीमें आनन्द है। पर हां, मैं तुमसे एक बात कह देता हूँ । रानी-क्या ? जयन्त-तुमसे जो करनेके लिये कहा है वह कभी न करना । वह नशैल आज तुमसे मिलेगा--बड़े प्रेमकी बातें करेगा-फिर तुम उसके कमरेमें जाओगी । वहां "प्राणप्रिया' कहकर वह मीठी मीठी बातें करेगा; गालपर हाथ फेरेगा; चुंबन लेगा, गले लगावेगा। फिर क्या पूछना है तुम्हारा दिल पानी पानी हो जायगा । और जब वह दगाबाज़ तुमसे पूछेगा तो तुम यह कहोगी कि "जयन्त सचमुचमें पागल नहीं है; उसने पागलपनका स्वांग लिया है" और जो जो बातें अभी हुई उसका भीरत्ती रत्ती हाल कह दोगी, इसमें सन्देह नहीं । बस, ऐसाही करना चाहिये; क्योंकि आप जैसी सुन्दर, गंभीर और बुद्धिमती रानी ऐसे मेंढक, ऐसे मशहूर चमगादड़ और ऐसे नामी कौएसे इतने महत्वकी बात कैसे छिपा सकती हैं ? कभी नहीं ! भला ऐसा काम कौन करे ! अपनी अकलको हवा खाने मेज दीजिये; गंभीरताको तलाक दे दीजिये ; और दूसरेके कार्यमें विघ्न डालनेके लिये कोई ऐसी तदबीर कीजिये कि आपही की नाक कटे । For Private And Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य ४] बलभद्रदेशका राजकुमार। ११३ रानी--जयन्त ! मुझपर विश्वास रख । जो कुछ तूने मुझसे कहा है उसमेंका एक शब्द भी मैं मुंहसे न निकालूंगी। जयन्त-मुझे श्वेतद्वीप भेजनेका मनसूबा हुआ है । जानती हो ? रानी-हां हां, मैं बिलकुल भूल गयी थी। यह निश्चय हो चुका था। जयन्तश्वेतद्वीपके महाराजको भेजनेके लिये खरीता लिख गया है-उसपर मुहर भी लग चुकी है । और मेरे साथ मेरे बचपनके दो मित्र नय और विनय जायँगे । मैं जितना विश्वास जहरीले सांपपर करता हूं उतना ही इनपर करता हूं। मैं क्या करूं ? ये जैसी चाल चलेंगे वैसी मुझे भी चलनी पड़ेगी। कोई परवाह नहीं । वे अपनी कुल्हाड़ी आप अपने पैरोंपर मार लेंगे-उन्हींकी फजीहत होगी । बड़ा अच्छा तमाशा होगा । बात बढ़ गयी है-बढ़ने दीजिये; मैं जरा और बढ़ कर खबर लूंगा । एक पत्थरसे दो चिड़ियोंको गिराना भी हुनर है । (धूर्जटि) यह बुढा मुझ ही को निगल जाना चाहता था । अब इसकी ठठरीकी गठरी उस कमरेमें जा गाड़ दूं। अच्छा तो, माताजी, मैं आपसे विदा होता हूं। यह बुढ्ढा जब जीता था तो इसकी जबान बेलगाम हो गयी थी। अब यह कैसा शान्त और गंभीर बन गया है ! चलिये, महाशय, अब आपकी आखिरी खातिर कर दूं । माताजी, जाता हूं। For Private And Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११४ [ अंक ४ जयन्तचौथा अंक। -:0:- -- पहिला दृश्य । स्थान-राजभवनका एक कमरा । सजा, रानी, नय और विनयका प्रवेश । रा०-प्रिये ! तुम ऐसी ठंढी सांस क्यों ले रही हो ? कहो, क्या हुआ ! मुझे बतानेमें कोई चिन्ता नहीं है । तुम्हारा जयन्त कहाँ है ? रानी-महाशयो ! थोड़ी देरके लिये आप लोग बाहर जाइये ; हमें कुछ गुप्त बातें करनी हैं । (नय और विनय जाते हैं।) हाय ! प्राणनाथ ! आज मैंने बड़ी विचित्र घटना देखी। रा०-विचित्र घटना ? जयन्तकी तबियत तो अच्छी है ? रानी--महाराज ! आंधी आनेपर समुद्रकी जो दशा होती है ;. बस, ठीक उसकी इस समय वही दशा है। मैं उसे उसके पागलपनका कारण पूछ रही थी कि बीचहीमें परदेमें किसीकी आवाज़ सुनाई पड़ी। आवाज सुनते ही झट म्यानसे तलवार निकाल 'चूहा चूहा' कहकर वह चिल्ला उठा और पागलपनकी लहरमें उसने उस बिचारे बुड्ढेकी हत्या कर डाली। रा०-आह ! यह कैसा घोर काम ! यदि उस समय मैं ही वला होता तो मेरी भी वही दशा होती ! इसे स्वतन्त्र छोड़ देनेसे, क्या मेरो, क्या तुम्हारी और क्या किसी औरकी-हरएक मनुष्यकी जानको खतरा है। हाय ! अब इस घोर कर्मका क्या उत्तर दिया जायगा ? For Private And Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य १ ] बलभद्रदेशका राजकुमार । ११५. सारा दोष मेरे ही माथे आवेगा । लोग यही कहेंगे कि पागलको इन्होंने स्वतन्त्र क्यों छोड़ दिया ; बन्धनमें क्यों नहीं रक्खा ? हाय ! प्रेमपाशमें फंसकर हम लोगोंने उस ओर दुर्लक्ष्य किया; बहुत बुरा किया | बदनामी के डरसे छिपाया हुआ भयङ्कर रोग जैसे प्राणको ले बीतता है, वेसे ही इस पागलपनका रोग छिपा कर हम जान बूझकर अपनी दुर्दशा कर रहे हैं। ख़ैर, वह गया कहाँ ? रानी—उस लाशको लेकर कहीं गाड़ने गया है । नाथ ! उसका पागलपन कुछ विचित्र है ! उसने पागलपनकी लहरमें उन्हें मार डाला सही, पर पीछे से अपने कियेपर रोने और पछताने लगा । लोहे की खानमें जैसे सोना बीचही में चमक उठता है वैसे ही पागलपन में उसकी बुद्धि बीचही में चमकने लगती है । रा०-- अच्छा, आओ चलें । सबेरा होते ही मैं उसे कहीं विदेश भेज दूंगा । अब इस नीच कामको हमें अपने अधिकारबलसे या किसी और युक्तिसे छिपाना चाहिये । विनय ! ( नय और विनय फिर प्रवेश करते हैं ।) मित्रो ! जयन्तने अपनी माके महलमें हमारे मन्त्री धूर्जटिका खून किया, और उनकी लाशको वह कहीं घसीट ले गया है; इसलिये तुम दोनों अपने साथ कुछ दूत लेकर जाओ, और उस लायका पता लगाकर उसे स्मशान में ले चलो । जयन्तसे डाँट डपट न करनासे बातें करो । अच्छा, अब जल्दी जाओ । (नय और विनय जाते हैं । ) प्रिये ! चलो चलें ; और अपने राजनीतिज्ञ मित्रोंको बुलाकर जो घटना हुई वह, और अब आगे हमारा विचार क्या है वह, उन्हें कहें और उनकी सम्मति लेकर काम करें । यह सही है कि तोपके गोलेकी तरह बदनामीका जहरीला तीर भी निशानपर जा गिरता है For Private And Personal Use Only - सभ्यता ---- Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११६ जयन्त [अंक ४ और अपना काम करता है । पर यह भी संभव है कि वह तीर हमारे पास न पहुँचकर राहमें-हवामें ही-ठंडा पड़ जाय और हम लोग बच जाय । चलो, अब चलें, मेरा मन बेचैन है। (जाते हैं।) दूसरा दृश्य। स्थान-राजभवनका दूसरा कमरा । -:: जयन्त प्रवेश करता है। जयन्त-मुकी व्यवस्था तो हो चुकी । नय, विनय-( भीतरसे ) महाराज ! जयन्तकुमार ! जयन्त-(दबी आवाजमें ) ऐं ? कौन पुकारता है ? (ज़ोरसे) कौन है ? मुझे कौन पुकारता है ? अच्छा, ये लोग हैं । (नय और विनय प्रवेश करते हैं।) नय-महाराज ! वह लाश क्या हुई ? जयन्त-मिट्टीकी थी, मिट्टीमें मिल गई। नय-महाराज ! वह कहाँ है, बतला दीजिये, जिसमें हमलोग उसे स्मशानमें ले जाय । जयन्त-तुम्हें विश्वास है ? नय-किस बातका ? जयन्त-अपनी बात छोड़ तुम्हारा कहना मान लँगा, इस बातका । और, जाओजी, तुम्हारे जैसे पोतनोंकी बातोंका राजकुमार उत्तर नहीं देता। नय-महाराज ! मुझे आप पोतना कहते हैं ? For Private And Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य ३ ] बलभद्रदेशका राजकुमार । ११७ वैसे जयन्त - फिर क्या कहूँ ? जैसे चूल्हेका पोतना पानी सोखता है तुम लोग भी राजाकी खुशामद करके उनसे इनाम और बड़ी बड़ी अफसरी लेने में बडे उस्ताद हो । पर ऐसे अफसर अन्तमें राजाके बड़े काम आते हैं । जैसे बन्दर किसी चीजको एक दम मुँह में भर लेता ī है और भूख लगनेपर उसे पेटके हवाले करता है वैसे ही राजा तुम लोगोंको पहिले अपनाये रहते हैं और जरूरत पड़ने पर चूस लेते हैं । सीलिये कहता हूं कि, पोतनो ! तुम लोग पहिले जैसे अन्त में भी सूखे बने रहोगे । नय - महाराज ! मैं आपका मतलब नहीं समझा । जयन्त--अच्छी बात है । मूर्ख लोग युक्तिवादको क्या समझें ? नय - - महाराज ! लाश कहाँ है, यह बतला दीजिये; और हमारे थ महाराजके पास चलिये । जयन्त --- राजा लाश हो जाता है; पर लाश राजा नहीं होती । जा एक चीज़ है विन० - ' चीज़ ' ? जयन्त - या कहो, कुछ भी नहीं है। अच्छा, मुझे ले चलो । सारा आँख मुँदौवलका खेल है । तीसरा दृश्य । स्थान -- राजभवनका एक दूसरा कमरा ! राजा और सेवक प्रवेश करते हैं । राजा -- जयन्तका और धूर्जटिकी लाशका पता लगाने के लिये For Private And Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११८ जयन्त [ अंक ४ मैंने कुछ दूत भेज दिये हैं । उसका मनमाना काम करना बड़ा भयङ्कर है ! तिसपर भी हम उसे उचित दण्ड नहीं दे सकते ; क्योंकि मूर्ख लोगोंका उसपर बड़ा प्रेम है जो युक्ति और न्यायको कुछ नहीं सुनते, आँखों देखी बात मानते हैं । और जहाँ यह बात है वहाँ अपराधीको दिया हुआ दण्ड लोगोंकी आँखोंमें खटकता है-अपराधको कोई नहीं सोचता । ऐसे जनापवादसे बचनेके लिये उसे विदेश भेज देना ही अच्छा है । बस, ठीक है ; 'विषस्य विषमौषधम् ' । . (नय प्रवेश करता है।) क्यों ? कुछ पता लगा ? नय-महाराज ! उस लाशका कुछ भी पता नहीं लगता । रा०-अच्छा, जयन्त कहाँ है ? नय-महाराज ! वे बाहर हैं ; मैं आपकी आज्ञा लेने आया हूँ। रा०-ले आओ मेरे सामने । नय-विनय ! महाराजको भीतर ले आओ। . ( जयन्त और विनय प्रवेश करते हैं ।) रा-जयन्त ! धूर्जटि कहाँ हैं ? जयन्त-भोजनमें मगन हैं । रा०-भोजनमें मगन हैं ? कहाँ ? जयन्त--ऐसी जगह नहीं जहाँ वे भोजन करते हों किन्तु उस जगह हैं जहाँ वे स्वयं भोजन बन बैठे हैं । सारे बुद्धिमान् और चतुर कोड़ोंने मिलकर बेचारे धूर्जटिको अपनी खुराक बना लिया है । ये कोड़े उच्च पदार्थ खानेमें तो सरनाम हैं । इस विषयमें इनकी बराबरी करने वाला दूसरा कोई भी प्राणी न होगा । हम लोग अपने लिये और For Private And Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य ३] बलभद्रदेशका राजकुमार। और जानवर पालते हैं ; और अपना शरीर कीड़ोंके लिये पोसते हैं । इन कीड़ोंके लिये क्या मोटा ताज़ा राजा और क्या दुबला पतला भिखारी दोनों एकसा हैं । यदि कुछ भेद है तो बस इतना ही, कि एक पूरी और दूसरी कचौरी । बस, अन्तमें सबकी यही गति है। रा०-हा: ! जयन्त.--कीड़े राजाको खा जाते हैं, मछली कीडोंको खाती है, और भिखमङ्गे मछली खाते हैं। रा०—फिर ? तुम्हारा मतलब क्या है ? जयन्त-कुछ नहीं ; मैंने केवल यही दिखलाया कि राजा महाराजा भिखमङ्गोंकी अंतड़ियोंमेंसे होकर कैसे बाहर आते हैं। रा.--खैर, यह तो कहो धूर्जटि कहाँ हैं । जयन्त-स्वर्गमें । किसी दूतको वहां ढूंढने भेज दीजिये । अगर वहां पता न लग सका तो नरकमें ढूंढने आपको ही जाना पड़ेगा। और सच बात यह है कि यदि एक महीनेके भीतर आपको उनका पता न लगानो सोढ़ीपरसे बरामदेमें जाते हुए आपको उनकी महक आवेगी। रा.-( नौकरोंसे ) जाओ, एक बार वहां भी खोजो। __ जयन्त-डरिये मत, जबतक आप नहीं जायंगे तबतक वे वहांसे भाग नहीं सकते । ( नौकर जाते हैं। ) रा-जयन्त ! तुम्हारे इस भयङ्कर कामका हमें बड़ा दुःख है। खास कर तुम्हें बचानेके लिये हमने यह तदबीर सोची है कि अब बहुत जल्द तुमको यहांसे कहीं विदेश भेज दिया जाय ; इस लिये अब तुम श्वेतद्वीप जानेके लिये तैय्यार हो जाओ । जहाज तैय्यार है ; हवा For Private And Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२० जयन्त [अंक ४ अनुकूल है; और तुम्हारे साथ जानेवाले साथी भी सज्ज होकर बैठे हैं; तात्पर्य, इस समय सारा सरंजाम ठीक है । जाओ, अब देर न करो । जयन्त-कहां ? श्वेतद्वीप ? रा०--हाँ। जयन्त-अच्छी बात है। रा०--हमारे उद्देश्यको सोचोगे तो जरूर कहोगे कि इसके सिवा और कोई अच्छी तदबीर ही नहीं है। जयन्त-आपका उद्देश्य समझनेकी शक्ति परमात्माके सिवा और किसमें हो सकती है ? खैर, श्वेतद्वीप न ? अच्छा, जाता हूं , मा ! रा० मा नहीं, पिता। जयन्त-मा ! पिता और माता अर्थात् पति और पत्नी । पत्नी पतिकी अर्धाङ्गिनी कहलाती है । इसलिये कहता हूं, मा ! आशा दो, जाता हूं। ( जाता है।) रा०-(नय और विनयसे ) जाओ, उसके साथ साथ जाओ। देर न करो ; जहाँतक हो जल्द उसे जहाज़पर बैठा दो। मैं चाहता हूं, वह आज रातको ही यहाँसे रवाना हो जाय । इस विषयमें जो कुछ व्यवस्था करनी थी सब हो चुकी है । जाओ, अब देर न करो। (नय और विनय जाते हैं) हे शेवतद्वीपाधीश ! बलभद्रकी शक्ति और वीरताका तुम्हें भली भांति परिचय है। दहशतसे तुमने इसकी अधीनता स्वीकार कर ली है। ऐसी अवस्थामें इसकी मित्रताका अनादर करते हुए तुम्हें मेरी आशा भजन करनी चाहिये। मैंने खरीतेमें लिख भेजा है कि जयन्तको फौरन् मार डालना । हे राजन् ! इस काममें जरा भी सुस्ती न हो । इसके For Private And Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य ४ ] बलभद्रदेशका राजकुमार । १२१ जीवित रहनेसे मैं अनन्त वेदनाएं भोग रहा हूं; इसलिये कहता हूं कि उसे मार कर इन वेदनाओंसे मुझे बचाओ । जबतक मैं उसके मरनेकी खबर न सुन लूंगा तबतक मेरा मन बेचैन ही बना रहेगा । ( जाता है ।) 0 चौथा दृश्य । स्थान- सड़क युधाजित, एक कप्तान और कुछ सिपाही कवायद करते हुए प्रवेश करते हैं । युधा० - कप्तान साहब ! आप बलभद्रके महाराजके पास जाकर पहिले मेरा सलाम कह दीजिये और फिर यह कहिये कि वादेके अनुसार युधाजित आपके राज्यमेंसे अपनी सेना लेजानेकी आशा चाहता है। आप जानते ही हैं पड़ाव कहां डाला जायगा । और महाराजसे यह भी कह दीजिये कि यदि आप उनसे मिलना चाहते हों तो वे खुद भी दरबार में हाजिर हो सकते हैं । 1 कप्तान --- बहुत अच्छा, सरकार ! अभी जाता हूं । युधा० - कुछ सिपाहियों को साथ ले आरामसे जाना ( युधाजित और सिपाही जाते हैं ) ( जयन्त, नय, विनय और कुछ सेवक प्रवेश करते हैं । ) जयन्त—क्यौं महाशय ! यह किसकी सेना है ? कप्तान - जनाब ! यह शाकद्वीपकी सेना है । जयन्त - क्या आप कह सकते हैं कि यह सेना किसलिये भेजी गई है ? For Private And Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य ४ ] बलभद्रदेशका राजकुमार । १२३ I हाः ! बदला न चुकानेके विषय में मैं हर तरह से दोषी बनता हूँ । अगर मनुष्य अपना सारा समय और बुद्धि सोनेमें और खाने में ही नष्ट करे तो उसमें और पशुमें फिर भेद ही क्या रह जायगा ? परमात्माने हमें विवेक, बल और बुद्धि दी है; परन्तु याद रहे, वे दुरुपयोग करनेके लिये नहीं हैं। किसी बातपर अधिक विचार करना यह लण्ठका लक्षण है । ऐसे दीर्घ विचारोंमें एक हिस्सा बुद्धिमानीका और तीन हिस्से कायरता के होते हैं। मैं नहीं समझता कि किसी काम के लिये कारण, इच्छा, बल और साधन रहनेपर भी वह काम मुझसे नहीं हो सका, यह कहनेके लिये हम क्यों जीते हैं-मर क्यौं नहीं जाते ? ज़मीन के जरासे टुकडेके लिये प्राणों को तुच्छ समझनेवाले हजारों मनुष्यों के उदाहरण मेरे सामने मौजूद हैं तो भी मुझे लज्जा नहीं आती । देखिये, यह सुकुमार राजकुमार इतनी भारी सेना लेकर युद्ध के लिये रण-क्षेत्रमें जा रहा है । पवित्र महत्वाकांक्षासे उसका मन मजबूत हो गया है; इसीसे उसके भयङ्कर परिणामका इसे तनिक भी डर नहीं लगता; और ज़रासी जमीन के लिये धन और शरीर आदि नाशमान वस्तुओंको तुच्छ समझता है । बड़प्पनका यह लक्षण नहीं है कि जबतक सिरपर खूब जूतियाँ न पडें तबतक वह चुपचाप बैठा रहे; किन्तु जहाँ मान अपमानका प्रश्न हो वहाँ छोटी मोटी बातोंके लिये भी लड़ जाना चाहिये; इसीको बड़प्पन कहते हैं । अब ज़रा मेरी हालतको सोचिये; मेरे पिताका खून किया गया और माका सतीत्व नष्ट हुआ जिससे मेरा खून अन्दर ही अन्दर जल रहा है तो भी मुझे इसकी कुछ भी शरम नहीं । रे बेशरम डरपोक ! देख, एक बित्ताभर जमीनके लिये एक नहीं बीस हज़ार मनुष्य अपनी इज्जत आबरू के सामने प्राणोंको तुच्छ समझकर कब्र में सोने की तैय्यारी कर रहे हैं । कन क्या है मानों उनके आराम करनेका For Private And Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२४ जयन्त [ अंक ४ पलंग है ! हा: ! जिस जमीनके लिये ये लोग कट मरेंगे वह जमीन इनकी कब्रोंके लिये भी काफी नहीं है । ठीक है; बस, अब आजसे बदला चुकानेका विचार छोड और कोई विचार न करूंगा। (जाता है।) पाँचवाँ दृश्य । स्थान-राजभवनका एक कमरा । रानी, विशालाक्ष और एक भद्रपुरुष प्रवेश करते हैं। रानी-मैं उससे न बोलंगी। भ.पु०-वह बिल्कुल पागल हो गई-उसे कुछ भी होश नहीं है । उसकी दशा देख बडा दुःख होता है। रानी-उसे क्या हुआ है ? भ.पु०-वह अपने पिताके विषयमें कुछ बकती है; और कहती कि संसारमें जो विचित्र बातें हो रही हैं उन सबका मुझे पता लगा है। आह भरती है, छाती पीटती है और राहमें पड़े घास पातको तुच्छ समझकर कुचलती है। उसकी बातोंका पूरा पूरा मतलब समझमें नहीं आता तो भी सुननेवाले उसका मनमाना मतलब लगा लेते हैं । उसका घबराया हुआ चेहरा, विचित्र चाल और भाव देख लोगोंको अपनी २ कल्पना सच मालूम होती है । सारांश, उसकी दीन दशासे और तो कुछ भी ठीक पता नहीं लगता, पर यह साफ मालूम होता है कि उसके हृदयमें कोई भयंकर चोट अवश्य पहुंची है। विशा.-रानी साहब ! अगर आप उससे बोलती तो अच्छा For Private And Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य ५] बलभद्रदेशका राजकुमार । १२५ होता। क्योंकि शहरके गुंडे इस विषयमें न जाने क्या क्या गप उडावेंगे। रानी - अच्छा, उसे यहाँ ले आओ । ( विशालाक्ष जाता है ) हा ! मेरी कैसी बुरी दशा है ! पापी अन्तःकरणका स्वभाव ही है कि उसे ज़रा जरासी बातोंका भी बहुत डर मालूम होता है । दलदल में फंसे हुए मनुष्यकीसी पापियोंकी दशा होती है । ज्यों ज्यों वह उसमेंसे निकलने की चेष्टा करता है त्यों त्यों वह उसमें और भी फंसता जाता है । ( कमलाको लिये विशालाक्ष प्रवेश करता है ) कमला – बलभद्रकी सुन्दर रानी कहां है ? रानी - कमला ! कैसी तबियत है । कमला -- ( गाती है ) राग सोहनी । कैसे मैं जानूँ तोरे प्रेमकी सचाई । तूने सूरत नहिं जोगीकी बनाई || कैसे ० ॥ जटा न तेरे बिखरीं सिर, नहिं अंग भभूत रमाई । पग न खड़ाऊं, कर न कमंडलु दंड न देत दिखाई ॥ कैसे० ॥ रानी - हाय ! कमला, इस गाने का मतलब क्या है ? --- कमला—मतलब ! आप मतलब पूछती हैं ? सुनिये । (गाती है) कुटिल काल सब दियो छुडाई । वाके सीस घास जमि आई ॥ कोमल चरनन ऊपर देखो भारी सिला दिन्ही हाय दबाई ॥ -कमला ! रानी कमला -- हाथ जोड़ती हूँ, सुनिये। (गाती है ) उज्ज्वल बर्फ समान पुष्पमय वाके तन पट दियो ओढ़ाई । ( राजा प्रवेश करता है । ) For Private And Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त [अंक ४ रानी-हाय ! प्राणनाथ ! देखिये, इसकी क्या दशा हो गई ! कमला-( गाती है) स्नान कराई प्रेम-आँसुनसों धरती बिच दियो वाहि सोवाई ॥ रा.-कमला, कैसी तबियत है ? कमला--अच्छी है । परमेश्वर करे आपका भला हो ! कहते हैं, अहिल्या शिला हो गई थी। महाराज ! हम लोग यह तो जानते हैं कि हम क्या हैं, पर क्या होंगे वह नहीं जानते । ईश्वर आपको सुखी रक्खे । रा०-( स्वगत ) इसके दिलमें पिताका ख्याल बना है। कमला-महाराज ! जाने दीजिये, इस बातको ही छोड़ दीजिये । अगर कोई पूछे कि इसका मतलब क्या है तो यह कहिये:-(गाती है।) ठुमरी खम्माच । मैं आऊँगी मैं आऊँगी पिया तोरे पास । काहेको होत उदास ॥ पिया मिलनको काल्ह सुखद दिनबनू कुमारी ब्याहनके दिनहोन प्रेमिका व्याकुल है मन प्यारे करो बिश्वास ॥ रा०-इसकी यह दशा कबसे हुई ? कमला-अब सब कुछ ठीक हो जायगा। धीरज रखना चाहिये। उस बेचारेको ठण्ठी जमीनमें सुला दिया; यह सोच मुझे सिवा रोनेके और कुछ नहीं सूझता । सारी बात मेरे भाईके कानोंतक पहुँज जायगी ; और इस लिये आपके अच्छे उपदेशके लिये मैं धन्यवाद देती हूँ । आरे घोड़े आ । जाती हूँ , रानी साहब, नमस्ते, जाती हूँ, नमस्ते, नमस्ते । ( जाती है ।) For Private And Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य ५] बलभद्रदेशका राजकुमार। रा-विशालाक्ष ! उसके साथ साथ जाओ; और उसपर निगाह रक्खो। (विशालाक्ष जाता है।) ___अति दुःखका यही परिणाम होता है । पिताकी मृत्यु होनेसे ही उसे यह दशा प्राप्त हुई है । प्रिये विषये ! जव विपत्तियां आती हैं तब वे अकेली नहीं आती-दलबलके सहित आकर मनुष्यपर आक्रमण करती हैं । पहिली बात यह है कि उसका पिता मारा गया; दूसरे तुम्हारे पुत्रको उसके भयङ्कर उपद्रवोंके कारण विदेश भेजना पड़ा; धूर्जटिकी मृत्युके विषयमें लोगोंका ख्याल कुछ और ही हो गया है, जिससे वे मनमानी गप लड़ा रहे हैं । उसके खूनका बिना योग्य न्याय किये झट पट उसे गाड़ गूड किनारे किया । इसी अक्सरपर विचारी कमलाका क्वेिक जाता रहा-वह पागल हो गई। जिसमें विवेक नहीं वह चित्र या पशुके बराबर है । इतनेफर भी मैं हिम्मत न हारता ; पर सुना है कि उसका भाई चन्द्रसेन उत्तालसे चुपचाप लौट आया है और पिताकी अकस्मात् मृत्यु हो जानेसे बहुत दुःखी हो गया है; और शहरके निरुद्योगी लोगोंने भी उनकी मृत्युके विषयमें झूठ सच बातें कहकर उसके कान भरनेमें बाकी नहीं छोड़ा । खूनीका ठीक ठीक पता न लगनेसे लोग मुझे ही अपराधी बतला रहे हैं । प्रिये ! इन सब बातोंसे जान पड़ता है कि इस समय मैं प्रत्यक्ष तोपके मुहानेपर खड़ा हूँ। (भीतर शोर होता है। ) रानी-आह ! यह कैसा शोर है ? रा०-कहाँ हैं मेरे रजपूत सिपाही ? उनसे कह दो, फाटकपर खूब सावधानीसे पहरा दें । ( एक भद्र पुरुष प्रवेश करता है । ) क्योंजी, यह कैसा शोरगुल सुनाई पड़ता है ? For Private And Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२८ [अंक४ - भव्पुक-महाराज ! बचिये, बचिये। क्षुब्ध सागर जिस वेगसे नगरके नगर निगल जाता है उसी वेगसे चन्द्रसेन लुच्चे और बदमाशोंकी सहायतासे आपके अधिकारियोंको बेदम कस्ता हुआ इधर ही आ रहा है ! राजविद्रोही उसीको अपना स्वामी कहकर पुकारते हैं । जिधर देखिये उधर ही अन्धाधुन्द कारवाई दिखाई देती है। क्या छोटा क्या बड़ा, उनकी दृष्टिमें सब समान हो गये हैं । दहशत, सभ्यता और रीति रिवाजोंका मानों उन्हें अबतक गन्ध भी नहीं हुआ है। जान पड़ता है कि समस्त संसार अभी बाल्यावस्थामें ही है । शहरके सारे बदमाश हाथ उठा उठाकर यही चिल्ला रहे हैं कि बस, चन्द्रसेन ही राजा हो-हम उसीको अपना राजा बनायेंगे । इनके ऐसे शोरसे सारा आकाश गूंज उठा है ! रानी-वाह ! क्या बात है ! बलभद्रके कुत्तो ! बिना शिकार पहिचाने ही इतने बँक रहे हो ? रा०--शायद फाटक भी तोड़ा गया ! (भीतर शोर होता है।) ( चन्द्रसेन हथियारोंके साथ प्रवेश करता है; पीछे पीछे बलभद्रके निवासी आते हैं।) चन्द्रसेन--कहां है राजा ? महाशयो; आप बाहर ही रहें । ब०निवासी नहीं नहीं, हमें भी भीतर आनेकी आज्ञा दीजिये । चन्द्र०-कृपा करके मुझ अकेलेको ही भीतर रहने दीजिये । ब०नि०-बहुत अच्छा, बहुत अच्छा । ( बाहर खड़े रहते हैं) चन्द्र०-इसके लिये मैं आप लोगोंको धन्यवाद देता हूँ, पर फाटकपर खूब कड़ा पहरा रहे । रे नीच राजा ! बोल, मेरे पिता कहाँ हैं ? रानी०-चन्द्रसेन ! शान्त हो, शान्त हो । For Private And Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य ५] बलभद्रदेशका राजकुमार । १२९ चन्द्र०-शांत होकर क्या कमअसल कहलाऊँ ? रा०-चन्द्रसेन ! ऐसा भयंकर विद्रोह क्यों कर रहे हो ? विषये, छोड़ दो उसे; मेरे लिये तुम बिल्कुल मत डरो । राजामें कुछ ऐसा ईश्वरीय तेज होता है कि राजविद्रोह सिवा उसे धमकानेके और उसका कुछ भी नहीं कर सकता । ( चन्द्रसेनसे ) हाँ, कहो, तुम ऐसे जामेके बाहर क्यों हुए जाते हो ? विषये ! उसे छोड़ती क्यों नहीं ? छोड़ दो। (चन्द्रसेनसे ) हाँ, चोलो, क्या पूछते हो ? चन्द्रसेन-मेरे पिता कहाँ हैं ? रा०---मर गये। रानी-पर उसमें इनका कुछ भी दोष नहीं। रा०-उसे जो चाहे पूछने दो। चन्द्र०-वे कैसे मर गए ? याद रहे मुझसे चालबाज़ी न चलेगी। आग लगे राजभक्ति में ! वचन और प्रतिज्ञा जलकर भस्म हों ! विवेक और धर्मका एकदम नाश हो ! मैं कठिनसे कठिन दण्ड भोगनेके लिये तैय्यार हूँ । मैंने निश्चय कर लिया है कि चाहे जो हो---मृत्यु और स्वर्ग लोकको छोड़ मुझे नरकमें ही क्यों न जाना पड़े-पर मैं अपने पिताकी मृत्युका पूरी तौरसे बदला चुकाए बिना कभी न मानूंगा। रा०-ठीक है; इसके लिये तुम्हें कौन रोक सकता है ? । । चन्द्र०-मेरी इच्छाके सिवा और कौन रोक सकता है ? और मेरे पास ऐसे २ साधन हैं कि जिनकी सहायतासे थोड़ेमें ही मैं बहुत कुछ कर सकता हूँ। रा०-चन्द्रसेन ! अपने पिताकी मृत्युका सच्चा हाल जान लोगे या उस अपराधमें शत्रु मित्र, अपराधी निरपराधी सभीको घसीटोगे ? For Private And Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org १३० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त [ अंक ४ चन्द्र० शत्रु छोड़ दूसरेका बाल भी बाँका न होने पावेगा । रा० - फिर क्या तुम जाना चाहते हो कि शत्रु कौन है ? चन्द्र०—उनके मित्रोंको, देखिये, इसतरह गले लगाऊँगा; और काम पड़नेपर उनके लिये अपना खून भी बहा दूँगा । रा०-सचमुच, अब तुम सुपुत्र और भले आदमीकी तरह बात कर रहे हो । तुम्हारे पिताकी मृत्युमें मेरा बिल्कुल दोष नहीं; किन्तु इसके लिये मुझे बहुत ही दुःख हो रहा है। इस बातकी सत्यता तुमपर आप ही आप बहुत जल्द प्रगट हो जायगी । ब० नि०- ( भीतर से ) आने दो, उसे भीतर आनेदो । चन्द्र० - ऐं ? कैसा शोर मचा है ? ( कमला प्रवेश करती है 1) हे अग्निदेवता ! मेरे मस्तिष्कको जलाकर खाक कर डाल | आँसुओ ! सतगुना खारे होकर मुझे अन्धा बना दो ! बहिन ! परमेश्वर साक्षी है, तुम्हारे पागलपनका बदला चुकाने में मैं रत्तीभर भी कसर न करूँगा । कोमल कुसुम ! सुकुमार कुमारी ! प्यारी बहिन ! कमला ! हा: ! हे ईश्वर ! क्या बुढे मनुष्य के जीवनकी तरह तरुण बालिकाकी बुद्धि भी क्षणभंगुर होती है ? पर प्रेमकी बड़ी विचित्र लीला है । वह मनुष्य के स्वभाव और विचार-आचार को भी बदल देता है । प्रेमी अपने प्रेम-पात्र या भक्तिभाजनके लिये चाहे जो करनेको तैय्यार रहता है; पर जब वह प्रेमका विषय प्रेमीको छोड़ जाता है तो प्रेमी प्रेमके पीछे अपने प्राण तक त्याग देता है । वह पागल हो जाता है - संसार से उसका चित्त हट जाता है । कमला - ( गाती है | ) 66 चादर भी थी नहीं लाशपर खुला जनाजा था हा हा ! मातम करता था बादल आँसू बरसाता था आ हा ॥ " For Private And Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य ५] बलभद्रदेशका राजकुमार । १३१ चन्द्र०-बहिन ! अगर तुम होशमें रहकर सारा हाल कहती तो मुझे इतना क्रोध न आता जितना कि तुम्हारी यह दीनावस्था देख आ रहा है। कमला-( गाती है) जो तुम उन्हें बुलाया चाहो । गा गा कर बस खूब पुकारो ॥ चन्द्रः-आह ! इसकी बेतुकी बातें तो मेरे खूनको और भी जला रही हैं। कम.--यह लो, गुलामकी कली; इसे मेरे प्रेमका स्मरणचिन्ह जानकर अपने पास रक्खे रहना, और मुझे एकबारगी भुला न देना । और यह भी लो, तुम्हें एक जड़ा दिये देती हूँ , जिससे तुम बिचार पाओगे। चन्द्र०—पागलपनमें भी इसके विचार और इसकी स्मरणशक्ति इससे अलग न हुई ! ___ कम-लो, यह सौंफका फूल ! और यह बेलेका फूल ! ( रानीसे ) देखिये, इसे ब्राह्मी कहते हैं। इसमेंसे थोड़ा आप लीजिये और थोड़ा मैं रखती हूँ । यह बड़ी अनमोल चीज़ है ; इसे अपने गलेमें बाँध लीजिये । जिसमें आपमें कुछ लजा बनी रहे-आप एकदम निर्लज न हो । और यह लीजिये, इस फूलका नाम है ' सदाबहार'। मैं आपको कुछ बनपशेके फूल भी देती, पर जिस दिन मेरे पिताकी मृत्यु हुई उसै दिन वे सबके सब मा गये । सुनती हूँ, उनका अच्छा अन्त हुआ। चन्द्र-आह ! चेहरा कितना फीका पड़ गया है ! दुःखकी कोई सीमा नहीं-कैसे भयंकर विचार हैं ! यह सब देखकर पत्थर भी पिघल जायगा। For Private And Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३२ जयन्त [ अंक ४ कम०-क्या तुम यह सोचते हो कि, वे फिर लौट आयेंगे ? अब कहाँ आते हैं ? अब नहीं आयेंगे नहीं आयेंगे; मर गए, अब नहीं आयेंगे ; उनके आनेकी आशा करना बिल्कुल भूल है ; वे नहीं आयेंगे, कभी नहीं आयेंगे । जाने दो, न आयेंगे नहीं सही । ईश्वर उनकी आत्माको वहीं शान्ति देगा । हे ईश्वर ! मुझपर, इनपर, सबपर दया करो । जाओ, अब ईश्वर तुम्हारा कल्याण करेगा । (जाती है) रा०-चन्द्रसेन ! अगर तुम मुझे अपने दुःखका साथी न बनाओगे, तो समझलो, तुम मेरे साथ बड़ा भारी अन्याय करोगे । अभी जाओ; और अपने कुछ विद्वान् और हितचिंतक मित्रोंको यहाँ लिवा लाओ। जिसमें वे ही सारा हाल सुनकर तुम्हारी हमारी बातोंका न्याव करें । अगर वे कह देंगे कि तुम्हारे पिताकी हत्यासे मेरा प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष कुछ भी सम्बन्ध है तो उसके दण्डम मैं अपना राज्य, अपना मुकुट और अपने प्राणतक तुम्हें देनेके लिये तैय्यार हूँ । परन्तु अगर जो मुझपर कोई अपराध साबित न हुआ तो तुम्हें उचित है कि शान्त भावसे मेरा सब कहना सुन लो । और फिर हम दोनों मिलकर तुम्होर पिताकी मृत्युका बदला लेनेकी चेष्टा करेंगे। चन्द्र--अच्छा, यही सही ; पर मुझे यह मालूम हो जाना चाहिये कि वे कैसे मारे गये, उनका क्रिया कर्म चुपके चुपके ही क्यों किया गया, उनके स्मरणार्थ कोई समाधि या मन्दिर क्यों नहीं बनवाया गया, और गोदान, शय्यादान, श्राद्ध क्रिया आदि धार्मिक काम क्यों नहीं किये गये ? रा०-तुम्हें सब कुछ मालूम हो जायगा । और जिस हत्यारेने For Private And Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य ६ ] बलभद्रदेशका राजकुमार । १३३ उनकी हत्या की उसका शिर काटा जायगा । अच्छा, आओ, अब चलें । ( जाते हैं ) -- छठा दृश्य । स्थान- किले में एक कमरा । विशालाक्ष और एक नौकर प्रवेश करते हैं ? विशा० - वे कौन हैं जो मुझसे भेंट किया चाहते हैं । नौकर वे माँझी हैं, सरकार । और कहते थे, सरकार के नाम उनके पास कोई चिट्ठी है । 0 विशा० - अच्छा, उन्हें भीतर भेज दो । ( नौकर जाता है । ) समझ में नहीं आता कि मेरे नाम चिट्ठी भेजनेवाला महाराज जयन्तके सिवा और कौन है । ( मल्लाह आते हैं । ) मल्लाह -- सरकार, ईश्वर आपका भला करे ! विशा० - वह तुम्हारा भी भला करे ! 01 मल्लाह - अगर वह चाहे, सरकार, तो उसके लिये यह कुछ भी कठिन नहीं है । लीजिये सरकार ! यह चिट्ठी आपके नाम है । श्वेतद्वीप जो वकील भेजे गये थे उन्हीं की यह चिही है । विशालाक्ष आप हीका नाम है न ? I विशा० - ( पढ़ता है ) " विशालाक्ष ! यह चिट्ठी पढ़ लेने पर इन मल्लाहों को राजासे भेंट करने का कोई रास्ता बता दो । राजाको देने के लिये इनके पास मैंने पत्र दिये हैं । समुद्रयात्रा में पूरे दो दिन भी नहीं For Private And Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .१३४ जयन्त [अंक ४ बीतने पाए कि डाकुओंके एक जङ्गी जहाजने हमारा पीछा किया । हमारे जहाजकी चाल बहुत ही धीमी हो जानेसे हमें विवश हो युद्ध करना पड़ा। मारते काटते ज्यों ही मैं उनके जहाज़पर चला गया त्यों ही उन्होंने अपने जहाजको हमारे जहाज़से दूर हटा लिया । इस तरह मैं अकेला ही उनका कैदी बन बैठा। उन्होंने मेरे साथ दयालु चोरोंका सा बर्ताव किया । परन्तु उन्होंने मुझपर जो दया की वह व्यर्थ नहीं, किसी खास मतलबसे की है, जिसे मैं भी किसी समय पूरा कर दूंगा । अस्तु, तुम ऐसा उपाय करना जिसमें मेरे भेजे हुए पत्र राजाको मिल जाय; और जहाँतक हो, बहुत शीघू आकर मुझसे मिल लेना । मुझे तुमसे कुछ बातें कहनी हैं जिन्हें सुनकर तुम्हारा कलेजा काँप उठेगा । ये भले आदमी तुम्हें मेरे पास ले आयेंगे । नय और विनय श्वेतद्वीप गये हैं; उनके विषयों भी तुमसे बहुत कुछ कहना है । इति शुभम् ।। तुम्हारा प्रीति-पात्र, जयन्त ।" अच्छा आओ, मैं तुम्हारे पत्रोंकी व्यवस्था किये देता हूँ । यह काम झटपट हो जाना चाहिये, क्योंकि तुम्हें मुझे वहाँ ले चलना होगा जहाँसे ये पत्र तुम ले आये हो। ( जाते हैं ।) सातवाँ दृश्य । स्थान-राजभवनका एक कमरा । - : -- राजा और चन्द्रसेन प्रवेश करते हैं । राजा-तुम सारी बातें सुन चुके; अब तुम्हें चाहिये कि मुझे For Private And Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य ७ ] बलभद्रदेशका राजकुमार । १३५ निर्दोषी जानकर अपना सच्चा मित्र समझो। और तुम्हें यह भी मालूम हो गया कि जिसने तुम्हारे पिताको मार डाला वह मुझे भी मारडालने की ताक में था । चन्द्र०हाँ, मालूम तो हो गया; पर जिसने यह घृणित और घोर काम किया उसे आपने बिना दण्ड दिये कैसे छोड़ दिया ? जिसे कुछ भी अकल होगी और अपनी रक्षाकी चिन्ता होगी उसके हाथों ऐसी भूल कभी नहीं हो सकती । 1 रा०-- ठीक है; पर इसके खास २ दो कारण हैं । तुम्हारी दृष्टिमें चाहे वे साधारण हों, पर मेरे लिये बड़े महत्वके हैं । पहिला कारण यह है कि रानी अर्थात् उसकी मा प्रायः उसीको देखकर अबतक जी रही है; और मेरे विषय में पूछो तो, चाहे यह मेरा सद्गुण हो या वह मेरी जान है—उसीपर मेरा जीवन और सुख निर्भर करता है; जैसे तारा अपनी तारका श्रेणीसे बाहर नहीं होता वैसे मैं भी उसकी इच्छाके बाहर कोई काम नहीं कर सकता । सर्वसाधारण के सामने उसपर अभियोग न चलाने का दूसरा कारण यह है कि इस देशकी प्रजा उसपर बड़ा प्रेम करती है । प्रीति के सामने लोग उसके अपराधोंको भूल जाते हैं; और जिस तरह नदी पत्थर के टुकड़ेको शिवलिङ्ग बना देती है उसीतरह ये लोग उसके बुरे कामों की भी प्रशंसा करने लगते हैं । ऐसे तूफ़ानमें निशानपर चलाया हुआ तीर कहीं उलटे मेरे ऊपर ही आकर न गिरे, इस इरसे मुझे इन झगड़ोंसे अलग ही रहना उचित जान पड़ा | चन्द्र० - और इस तरह मेरे सुयोग्य पिताकी मृत्यु हुई ! और मेरी प्यारी बहिन - जिसकी योग्यताकी और सुन्दरताकी बराबरी शायद For Private And Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३६ जयन्त [अंक ४ ही कोई कन्या कर सकेंगी, वह कुमारी-पागल हो गई ! अस्तु, बदला चुकानेका भी अवसर आ जायगा । रा०-अब अधिक सोच करके अपनी नींदमें बाधा मत डालो; तुम मुझे इतना मूर्ख न समझ लेना कि घरमें आग लगी हुई देखकर भी उसे एक सृष्टिचमत्कार कहते हुए मैं पड़ा रहूँगा और आग बुझानेका कोई उपाय न सोचूँगा । विशेष बहुत जल्द ही तुम अपने कानों से सुन लोगे । मैं तुम्हारे पिताको बहुत प्यार करता था और उसी तरह अपने प्राणोंको भी प्यार करता हूँ। और इतनी बातोंसे, मुझे आशा है कि, तुम मेरा मतलब समझ गये होगे । (एक जासूस प्रवेश करता है । ) रा.-क्यों, क्या समाचार है ? जासूस-महाराज ! जयन्त कुमारकी चिड़ियाँ हैं; यह महाराजके नाम है और यह रानी साहबके नाम । रा०-क्या जयन्तकी चिठियाँ हैं ? कौन लाया है ? जासू०-कहते हैं, सरकार, मलाह ले आये हैं। मुझे तो कल्याणने दी; और उसे उन मल्लाहोंने दी थीं। रा०-चन्द्रसेन ! देखो, सुनो इसमें क्या लिखा है । अच्छा, तुम जाओ। ( जासूस जाता है । राजा चिही पढ़ता है । ) " महाराजकी सेवामें निवेदन है कि आपके राज्यमें मैं बिना कपड़ोंके नङ्गा लाकर छोड़ा गया हूँ । यदि आज्ञा हो तो कल आपकी सेवामें उपस्थित होकर पहिले आपसे क्षमा प्रार्थना करके फिर मेरे एकाएक लौट आनेका अद्भुत समाचार निवेदन करूँगा। 'जयन्त।" For Private And Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org दृश्य ७ ] बलभद्रदेशका राजकुमार । १३७ इसका क्या मतलब ? क्या सबके सब लौट आये ? या किसीने चाल चली है, और असल में यह कुछ भी नहीं है ? -आप हस्ताक्षर पहिचानते हैं ? Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चन्द्र -- रा०-हाँ हाँ, यह जयन्तका ही हस्ताक्षर है । ' नङ्गा ! फिर यहाँ लिखा है, ' अकेला ' | ( पत्र दिखाकर ) देखो, तुम्हारी बुद्धि कुछ काम देती है ? चन्द्र०. ● - नहीं महाराज, मेरी बुद्धि कुछ भी नहीं काम देती । पर वह आवे तो सही; मुझे ऐसा हो गया है कि मेरा और उसका कब सामना होगा और कब में उसे मुँहपर कहूँगा कि तूने ऐसा ऐसा काम किया है ! रा रा०- - चन्द्रसेन ! अगर ऐसा हो तो क्या करना चाहिये या क्या नहीं करना चाहिये; इस विषय में मेरा कहना मानोगे ? चन्द्र० - क्यों नहीं ? पर अगर आप कहें कि 'जानेदो, चुप हो रहो' तो यह बात मैं कभी नहीं मानूँगा । • ' और इसमें रा० -- तुम्हारी आत्मा जब शान्त होगी तब तो मानोगे ? अगर वह समुद्रयात्रामें कुछ बाधा पड़ने से लौट आया हो और फिर उसका जानेका विचार न हो तो मैंने उसके लिये एक ऐसी अच्छी दवा सोच रक्खी है कि जिससे वह फिर कभी बच ही नहीं सकता । और इस तरह उसकी मृत्यु होनेसे हम जनापवादसे बचे रहेंगे; और उसकी मा भी उसे दैवयोग समझकर शान्त हो रहेगी । चन्द्र० - महाराज ! मुझे आपका कहना स्वीकार है; पर अगर वह मेरे ही हाथों मारा जाय तो इससे बढ़कर और क्या बात होगी ! - बस, फिर किस बातकी कमी है ? मैंने ऐसी ही युक्ति For Private And Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३८ जयन्त- [ अंक ४ सोची है, कि जिसमें वह तुम्हारे ही हाथों मरे । सुनो, जबसे तुम विदेश गये तबखे तुम्हारे एक गुणकी लोग यहाँ बड़ी प्रशंसा करते हैं । और वह प्रशंसा भी जयन्तके सामने होती है । तुम्हारे और और गुणों की अपेक्षा उसी एक गुणके विषयमें उसे इतना डाह हैं. जो मेरी समझ में बहुत ही निन्दनीय है । चन्द्र० - मुझमें ऐसा कौनसा गुण है, महाराज ? । रा०—- अहा हा ! वह तो तारुण्यमुकुटकी शोभा बढ़ानेवाला सुर्खाबका पर है ! और वह आवश्यक भी है। उससे युवाओंकी वैसी ही शोभा बढ़ती है जैसे सादी रहन - सहनसे वृद्ध भले मालूम होते हैं । दो महीने हुए, उत्तालसे एक वीर पुरुष यहाँ आया था बहुतेरे उत्तालके वीर पुरुषोंको मैं देख चुका हूँ, और उनसे लड़ भी चुका हूँ; और यह भी जानता हूँ कि वे घोड़े की सवारी बहुत अच्छी करते हैं । पर वह वीर पुरुष घोड़े की सवारी क्या करता मान जादूका खेल करता था । जब वह घोड़े पर सवार होता तब उसका घोड़ा ऐसा अद्भुत काम दिखलाता था कि देखनेवाले दंग हो जाते और यह समझते थे कि ब्रह्मान इस घोड़ेको सवार सहित ही निर्माण किया है । उसने घोड़ेके ऐसे ऐसे अद्भुत काम कर दिखाये जिनकी मैं कभी कल्पना भी नहीं कर सका ; फिर वैसा करना तो बहुत दूर रहा । चन्द्र०क्या वह उत्ताली था ? रा०-हाँ, उत्तालका ही रहने वाला था । चन्द्र · चन्द्रगुप्त तो नहीं ? रा०-हाँ, हाँ, वही । चन्द्र०—- उसे मैं अच्छी तरह जानता हूँ । उसकी क्या बात है ! For Private And Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बलभद्रदेशका राजकुमार । दृश्य ७.] वही तो उसालका नगीना है ! कहता था कि रा०-- वह तुम्हारी बहुत प्रशंसा करता था; और तुम पटा खेलने में और दूसरों के वारसे बचने में बड़े उस्ताद हो । खासकर तलवारका वार करना तो तुम्हें खूब ही सधा है । इस काम में अगर कोई तुम्हारा सामना करने वाला हो तो सचमुच एक विचित्र दृश्य दिखाई देगा । और यह भी कहता था कि वहाँके पटेबाज तुम्हारे सामने खाली कठपुतला की तरह खड़े हो जाते हैं जब तुम उनपर वार करने लगते है। । उसके मुँह तुम्हारी प्रशंसा सुनकर जयन्तको इतना बुरा लगा है और तुम्हार विषयमें उसके मनमें इतना डाह उत्पन्न हुआ है कि सिवा तुमसे पटा खेलने की बातके और कोई बात ही उसे नहीं सूझती । उसे ऐसा हो गया है कि तुम कब आओगे और उसे ऐसा अवसर कब मिलेगा । बस, अब इसी बातसे--- 1 चन्द्र० - इसी बातसे क्या ? महाराज ? रा०. या झूठमूठ ही दुःख कर रहे हो ? - चन्द्रसेन ! अपने पिताकों क्या तुम सचमुच प्यार करते थे; १३९ चन्द्र ०- - आप कैसी बातें करते हैं ? रा०- - मेरा यह मतलब नहीं है कि उनपर तुम्हारा प्रेम ही नहीं था; किन्तु मुझे इस बातका अनुभव है कि प्रेम धीरे धीरे बढ़ता है और उसी तरह धीरे धीरे घट भी जाता है । जैसे दीपकका फूल दीपक के प्रकाशको कम कर देता है वैसे प्रेममें भी किसी समय कोई ऐसी बाधा पड़ जाती है जिससे उसकी मात्रा कम हो जाती है । और यह सही भी है कि किसी चीज़का अच्छापन हर समय एक ही सा नहीं बना रहता । अच्छेपनकी सीमा हो जानेपर उसका नाश हो जाता है । कहते For Private And Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४० जयन्त .[अंक ४ हैं 'अति सर्वत्र वर्जयेत्'; यह बहुत ठीक है । अगर कभी कोई बात करनेकी इच्छा हो तो उसे उसी दम पूरा करना चाहिये, नहीं तो फिर कामके बदले उसकी चर्चा फैल जाती है; चार लोग सुनते हैं ; और खुराफ़ातियोंको अपना दाँव साधनेका मौका मिलता है, जिससे इच्छा जहाँकी तहाँ रह जाती है । और फिर पछतानेसे छाती जलानेके सिवा और क्या होगा ! तो बतलाओ क्या इरादा है ? जयन्त लौट आया है; अब खाली बकवाद ही करोगे या कोई काम करके दिखा दोगे कि तुम अपने पिताके असल बेटे हो ? चन्द्र०-देवमन्दिरमें उसका गला काढूँगा ? . रा.-क्या देवमन्दिरमें खून करनेसे पुण्य होगा ? अगर खून करना है तो उसमें पाप पुण्यका विचार न करना चाहिये । अगर बदला चुकानेके लिये तुम खून करोगे तो उसमें कुछ भी पाप नहीं है । परन्तु, चन्द्रसेन ! अगर तुम यह काम किया चाहते हो तो अभी अपने घरमें छिपे रहो । जयन्त जब लौट आया है तब उसे तुम्हारे यहाँ आनेकी खबर लग ही जायगी । मैं लोगोंसे कह दूँगा कि वे तुम्हारे उस गुणकी खूब प्रशंसा करें, जिसमें तुम्हारा और भी नाम हो । फिर तुम्हारे और उसके पटा खेलने में उसकी ओरसे ऐसी बाजी लगाऊँगा जिसमें तुम्हारी ही जीत हो । वह बहुत ही सीधा सादा और उदार होनेके कारण हथियारों की कुछ भी जाँच न करेगा । बस, इस तरह जब वह तुमसे लड़नेको खड़ा हो तब तुम अपनी सच्ची तलवारसे अपने पिताकी हत्याका बदला चुका लेना। चन्द्र०-बहुत ठीक ; और इस कामके लिये मैं अपनी तलवार माँज पूँजकर खूब चमचमाती बना रक्तूंगा। मैंने एक लुच्चे हकीमसे For Private And Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य ७] बलभद्रदेशका राजकुमार । १४१ थोड़ासा तेल खरीदा है; वह तेल इतना जालिम है कि अगर छुरी उसमें डुबोकर किसीके बदनमें जरा सी भोंक दी जाय तो मनुष्यः फिर कभी जी ही नहीं सकता । चाहे संसारकी समस्त जड़ी बूटियोंका सत्व उसे खिला दीजिये, कुछ भी फायदा न होगा। मैं अपनी तलवारकी नोक उसी जहरीले तेलमें डुबोकर रक्खे रहूँगा ; जिसमें उसे उसका हलका जखम होनेसे भी वह मर जाय-बच न सके । रा०-इस विषयमें हमें और भी सोच लेना चाहिये । इस कामके लिये समय और सामग्री हमारे अनुकूल हैं या नहीं, इस बातका भी विचार कर लें । यदि हमें इसमें सफलता न हुई और हमारी असावधानीसे हमारा सारा भेद खुल गया तो फिर अच्छा न होगा। इसलिये एक और भी चाल सोच रखनी चाहिये ; अगर पहिली चाल काम न आई तो तुरन्त दूसरी काममें लाई जायगी । अच्छा, ज़रा ठहरो, मुझे सोच लेने दो । ( सोचता है । ) खेलमें वार बचानेकी शर्त तो अवश्य ही रहेगी ; और दूसरी क्या तरकीब सोचनी चाहिये ?-हाँ, ठीक है; खेलते खेलते जब तुम लोग पसीनेसे तर हो जाओगे और गला सूखने लगेगा तब जयन्त पोनेके वास्ते शर्बत माँगेगा । उस समय मैं उसे विष मिलाया हुआ शर्बत पिला दूंगा । फिर क्या ? अगर तुम्हारी जहरीली तलवारसे वह बच भी जायगा तो कोई चिन्ता नहीं मेरा शर्बत ही उसका काम तमाम कर देगा। .. (रानी प्रवेश करती है।) रा०-(घबरा कर ) क्यों, प्यारी विषये, क्या हुआ ? रानी-क्या कहूँ ? संकट आते हैं तो एकपर एक आते ही जाते हैं । हाय ! चन्द्रसेन ! तुम्हारी बहिन डूब गई ! For Private And Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १४२ www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त चन्द्रसेन- डब गई ? कहाँ कैसे ? राती० - मालेके किनारे जो बेतका पेड़ है वहाँ वह रंग बिरंगे फूलोंके गजरे लिये हुए गई; और नालेकी ओर झुकी हुई एक पेड़की डालीपर गजरा लटकानेके लिये चढ़ गई। उसके चढ़ने से मानों बुरा मानकर वह डाली तुरन्त ही टूट गई और उस बिचारीको लिये दिये उस नालेमें गिर पड़ी। उसके कपड़े पहिले तो गुब्बारे जैसे फूल उठे, जिसके सहारे कुछ देरतक वह पानीके ऊपर तैरती रही । ऐसी भयानक विपदके समय भी वह वही अपना पुराने घुमका गाना गाती थी । उसे अपने ऊपर आई हुई विपदका कुछभी ख्याल म या: - किसी जलचरके समान वह बेखटके तैरती थी; पर हाय ! जब उसके कपड़े भीगकर भारी हो गये तब उस बेचारीको बेवस हो अपना गाना बन्द करके पानी के तले में जाकर लेटना पड़ा । चन्द्र० - हा ! क्या वह सचमुच डूब गई ? रानी - ( रोनी सूरत बनाकर ) हाँ, डूब गई, डूब गई ! [ अंक चन्द्र · - प्यारी बहिन ! असहाय कमला ! तूने एकदम बहुतसा पानी ले लिया इसलिये अब मैं आँखोंसे एक भी आँसू न निकालूँगा ! पर, हाय ! बिना रोए मुझसे रहा नहीं जाता। कहते हैं, रोना पुरुषों के लिये शरमकी बात है; कहने दो, मैं उसकी पर्वाह नहीं करता । जय मैं अपनी आखों से एक बार मनभर आँसू निकाल डालूँगा, तब बस, मेरा एक ही काम रह जायगा --बदला | महाराज ! जाता हूँ, प्रणाम । आह ! इस समय मेरे कलेनेमें बदले की आग खूब धधक रही है; पर इन आँसुओंसे कहीं वह बुश न जाय । ( जाता है ) रा०-विषये ! चलो, हम लोग भी उसके पीछे पीछे चलें । For Private And Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १] बलभद्रदेशका राजकुमार । १४३ उसका क्रोध शान्त करने में कैसे कैसे परिश्रम करने पड़े ! अब फिर, मुझे डर है कि, उसका क्रोध कहीं भड़क न जाये; इसलिये, भाओ, उसके पीछे पीछे चलें । ( जाते हैं । ) चौथा अंक समाप्त | ::---- पाँचवाँ अंक । पहिला दृश्य । स्थान- स्मशान 1 दो मजदूर फावड़ा लिए हुये प्रवेश करते हैं । पहिला मजदूर - क्योंजी, जिसने आत्म हत्या की क्या वह शास्त्रोक्त विधिसे गाड़ी जायगी १ दूसरा मजदूर - हाँ हाँ, वह उसी तरह गाड़ी जायगी । और इसलिये गड़हा खूब अच्छी तरह खोदी । इसका विचार करने के लिये पंच चुने गये थे; और उनकी यही राय है कि वह शास्त्रोक्त विधि ही गाड़ी जाय 1 प०म० - जब तक वह अपनी रक्षा करनेके उद्देश्यसे आपको न डुबो ले तबतक यह बात कैसे है। सकती है ? दू० ० म० – क्यों ? पंचोंकी यही राय है । प० म० - उसने अपनी रक्षा करनेके किया होगा, नहीं तो यह बात कभी नहीं हो उद्देश्यसे ही यह काम सकती थीं । क्योंकि For Private And Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४४ जयन्त [अंक इसमें असल बात यह है कि अगर मैं जान बूझकर डूब जाऊँ तो यह एक काम होगा । कामके तीन भेद हैं:-करना, कराना और हो जाना। इस लिये वह जान बूझकर डूब गई। - दू० म०-नहीं, भाई, ऐसी बात नहीं है ; सुनो प० म०-ज़रा ठहरो ; मुझे अपनी बात कह लेने दो । मान लो, यहाँ है पानी; अच्छा; और यहाँ है आदमी ; अच्छा, देखो; अगर यह आदमी पानीके पास जाय और अपने आपको डुबा ले, तो उसकी इच्छा हो या न हो-वह वहां गया सही ; अच्छा, फिर देखो ; अगर पानी उसके पास जाय, और उसे डुबो दे, तो यह बात नहीं होती कि उसने जान बूझकर अपनेको डुबो लिया। इसलिये, जो जानबूझकर आत्महत्या नहीं करेगा वह अपनी मृत्युके लिये दोषी नहीं हो सकता। दू० म०-पर, क्या यह कायदा है ? प० म०–हाँ, पंचका ऐसा ही कायदा है। - दू० म०-तुम्हें सच सच कह दूँ ? अगर यह बड़े घरानेकी औरत न होती तो इसे शास्त्रोक्त विधिसे गाइनेकी आज्ञा कभी न मिलती । प० म०-बहुत ठीक कहते हो ; और यह बड़े शरमकी बात है कि अमीरोंको-चाहे वे कैसा ही बुरेसे बुरा काम क्यों न करें-उन्हें हर बातके लिये शास्त्राज्ञा मिल जाती है । चलरे फावड़े ! (खोदता है ) अच्छा बताओ पेसराज, लोहार और बढ़ई इन तीनोंमें सबसे अधिक टिकनेवाला काम किसका होता है ? दू० म०-फाँसी देनेकी टिख्टी बनाने वालेका ; क्योंकि वह For Private And Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १] बलभद्रदेशका राजकुमार । १४५ टिटी हजारों आदमियोंको खपाकर फिर भी ज्योंकी त्यों बनी रहती है I प० म० - वाह ! सचमुच तुम्हारी बुद्धि क्या कमाल है ! वह टिरूटी बहुत अच्छी होती है; पर किसके लिये अच्छी होती है ? जो बुरा करते हैं उनके लिये वह अच्छी होती है । तुम कहते हो कि वह टिरूटी मन्दिरोंसे भी अधिक टिकाऊ होती है, यह बुरा करते हो; इस किये वह टिल्टी तुम्हारे लिये अच्छी होगी । अच्छा, फिर सोचो । दू० म० - अच्छा, 'पेसराज, लोहार, और बढ़ई इन तीनोंसे अधिक मजबूत काम कौन बनाता है ? प० म० - हाँ कह डालो; किसका काम अधिक टिकाऊ होता है ? दू० म०–अच्छा, अब मैं कह सकता हूँ । प० म० - कहो, कहो । ० म० - हः हः, नहीं कह सकता । ( जयन्त और विशालाक्ष कुछ दूरीपर प्रवेश करते हैं । ) प० म०—– अब, इसमें फ़जूल माथापच्ची मत करो; क्योंकि तुम्हारे ऐसे गदहे लाख मार खानेपर भी जल्दी जल्दी पैर नहीं बढ़ा सकते 1 अच्छा, अब अगर फिर कोई तुमसे ऐसा सवाल करे तो कह देना 'कम खोदने वाले ' या ' समाधि बनाने वाले ', समझे ? जो घर वे बनाते हैं वह प्रलय कालतक बना रहता है । अच्छा, दोस्त, Featयामें बाकर एक बोतल शराब तो ले आओ । ( दूसरा मज़दूर जाता है। ) ( पहिला मजदूर खोदता हुआ गाता है । ) हा ! जब युवा था प्रेमिकासे प्रेम करता था तभी । सप्रेम में होकर मगन मैं भूल जाता था सभी ॥ For Private And Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त [अंक ५ हा ! अब बुढ़ापा आगया वह बात भाती है नहीं। . वा इस दशामें प्रेमकी बातें सुहाती हैं नहीं ॥ जयन्त-क्यों विशालाक्ष ! यह कैसा आदमी है ? कब्र खोदनेके समय भी इसे गाना सूझ रहा है ! अपने कामपर इसे बिल्कुल गम नहीं! विशा.-अभ्याससे ऐसा हो जाता है । रोज रोज वही काम करनेसे मनुष्यकी प्रकृति भी उस कामके अनुकूल बन जाती है । जयन्त-ठीक है ; जिन्हें काम करनेका अभ्यास नहीं, उनके हाथोंपर बहुत जल्द फफोले पड़ते हैं । ५०म०-( गाता है) वह बातें अब यों भूलती ज्यों प्रेम ही दरसा नहीं। वा प्रेममय बन प्रेमिकाके हेतु मैं तरसा नहीं ॥ (एक खोपड़ी ऊपर फेकता है) जयन्त-विशालाक्ष ! इस खोपड़ीमें किसी समय जीभ रही होगी; और वह गाती भी होगी ! इस दुष्टको उसे जमीनपर पटकनेमें कुछ भी संकोच न हुआ ! यह खोपड़ी किसी राजनीतिज्ञकी होगी, या किसी तत्वाविष्कारककी भी हो सकती है जो अब इस गदहे के पाले पड़ी है ! क्यों, नहीं ? विशा०-क्यों नहीं हो सकती है। जयन्त-या, किसी दरबारी पुरुषकी होगी; जो दरबारमें जाकर राजाको झुक झुक कर सलाम करता होगा और खूब चापलूसी भी करता होगा । और यह दरबारी पुरुष किसी दूसरे दरबारीका घोड़ा हड़पनेकी इच्छासे मुँहपर उसकी खूब तारीफ करता होगा । क्यों ? विशा.–हाँ, महाराज, ठीक है । For Private And Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य १] बलभद्रदेशका राजकुमार। १४७ जयन्त-और यह भी हो सकता है कि यह खोपड़ी किसी भाग्यशालिनी स्त्रीकी हो ; पर इस समय उसके भाग्यमें फावड़ेकी मार ही बदी जान पड़ती है । अगर देखा जाय तो यह स्थित्यन्तर ध्यानमें रस्त्रने योग्य है । विशालाक्ष ! क्या इन हड्डियोंकी यही इज्जतं है कि अन्तमें फावड़ेकी मार खायँ । ओफ़ ! इन विचारोंसे तो सिर दर्द करने लगा ! प० म०-( गाता हुआ दूसरी खोपड़ी उपर फेंकता है।) यह फावड़ा फरसा कफन वो कब सब सामान है। उसका जो दुनियामें इसी मिट्टीका एक मेहमान है ।। जयन्त-देखो, यह दूसरी खोपड़ी । वह किसी वकीलकी भी हो सकती है । क्यों विशालाक्ष ? अब इसकी वकालत, पेचीली और कानूनी बातें और लोगोंसे धन लूटनेकी युक्तियाँ सब क्या हो गई ? अब इस गँवार आदमीके फावड़ेकी मार यह कैसे चुपचाप सह लेता है ! उसे फौजदारीकी धमकी क्यों नहीं देता ? हां, इसने अपने ज़मानेमें बहुतसी जमीन खरीदी होगी ! कई लोगोंसे दस्तावेज़ लिखवाये होंगे ! और बहुतेरोंसे उनकी जायदादका अपने नाम रेहननामा लिखवा लिया होगा ! इतनी हाय हाय करके इतना धन बटोरनेपर भी अन्तमें केवल साढ़े तीन हाथ जमीनका ही स्वामित्व उसके हाथ रह गया ? वे सब दस्तावेज़ और रेहननामे अब इसके किस काम आगे ? जितनी बड़ी सन्दूकमें इसके जायदाद सम्बन्धी सारे कागज़ भी नहीं अट सकते उतने बड़े गडहेपर ही अब इसका अधिकार रह गया ! हाः ! विशा०-बस, उतना ही बड़ा-एक बालभर भी अधिक नहीं। For Private And Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org १४८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त [ अंक ५ जयन्त– अच्छा, अब इससे कुछ बोलना चाहिये । ( मजदूर से) क्यों जी, यह किसकी कब्र है ? प० मज०-- — मेरी है, सरकार । ( गाता है ) यह फावड़ा फरसा कफ़न वो कब सब सामान है । उसका जो दुनियाँ में इसी मिट्टीका एक मेहमान है ॥ जयन्त -- मालूम तो तुम्हारी ही होती है; क्योंकि तुम उसमें लड़े हो । प० म० - आप इसके बाहर खड़े हैं, इसलिये वह आपकी नहीं है । और मेरे विषयमें पूछिये तो मैं इसमें नहीं रहता तो भी यह मेरी ही है । जयन्त -- यह तुम्हारी नहीं है; तुम झूठ बोलते हो | यह जिन्दोंके लिये नहीं, मुर्दों के लिये है; इसलिये तुम्हारी बात सच नहीं, झूठ है । प० म० - झूठ बड़ा चंचल है, जनाब ! देखिये, मुझे छोड़कर कहीं आपको न पकड़ ले I जयन्त - अच्छा, यह तो बताओ, किस आदमी के लिये इसे खोद रहे हो ? प०म० - किसी आदमीके लिये नहीं । जयन्त--फिर किसी औरत के लिये प० म० नहीं औरत के लिये भी नहीं । जयन्त — मैं यह पूछता हूँ इसमें कौन गड़ेगा ? प०म० - एक लाश गड़ंगी, सरकार ! किसी समय वह औरत थी, पर ईश्वर उसकी आत्माको शान्ति दे | अब वह मर गई है । जयन्त - सुनते हो न ? यह बदमाश कैसा कानूनिया है ! इससे ठीक ठीक बातें करनी चाहिये; नहीं तो अपनी उस्तादी अपने ही गले For Private And Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य १] बलभद्रदेशका राजकुमार । १४९ पड़ेगी। सचमुच, विशालाक्ष, इधर कई वर्षोंसे देख रहा हूँ, समय बड़ा विचित्र आ गया है ! किसान चाहता है दरबारीकी बराबरी करूँ, और दरबारी उसे तृणवत् समझता है । अच्छा क्याजी, तुम्हें यह काम उठाए कितने दिन हुए ? प० म०-यह काम मैं उसी दिनसे करने लगा जिस दिन हमारे परलोकवासी महाराजने शाकद्वीपके राजाको मार डाला। जयन्त-इस बातको कितने दिन हुए ? ५० म०-आप नहीं जानते ? एक अपढ़ गंवार भी कह सकता है कि यह घटना उसी दिन हुई थी जिस दिन हमारे जयन्त कुमारका जन्म हुआ। अब तो वे पागल हो गये हैं, इसलिये श्वेतद्वीप भेज दिये गये हैं। जयन्त--क्यौं क्यों ? श्वेतद्वीपमें क्यौं भेजे गये । प० म०-क्यों क्या ? पागल हो गये थे, इसलिये। वहाँ वे सुधर जायेंगे, और अगर वहाँ न भी सुधरे तो कोई हानि भी नहीं है। क्योंकि वहाँके लोग भी उन्हीके ऐसे पागल हैं । जयन्त-वे पागल कैसे हो गये ? प० म०---कहते हैं, बड़ी विचित्र तरहसे वे पागल हुए। जयन्त--कैसे ? प० म०-उनकी विचारशक्ति जाती रही । जयन्त--कहां, किसलिये ? ५० म०-यहां, और यहांके राजपदके लिये । मुझे यह पेशा उठाये कोई तीस वर्ष हो गये। जयन्त-क्यों जी, बिना सड़े गले मनुष्य कितने दिन जर्मनमें रह सकता है ? For Private And Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५. जयन्त [अंक ५ ५० म०--सच बात यह है कि अगर मरनेके पहिले ही मनुष्य सड़ा गला न हो तो वह आठ या नौ वर्ष मजेमें रह सकता है । पर आजकल ऐसे सड़ेगले मुर्दे आते हैं कि जिन्हें गडहेमें रखना ही कठिन हो जाता है । चमार बिना सड़े गले मजेमें नौ वर्षतक जमीनमें रहता है। जयन्त--क्यों ? उसीमें यह विशेषता क्यों ? प० म.--उसका चमड़ा उसके पेशेमें इतना कमाया हुआ रहता है कि बहुत दिनोंतक वह पानीको अपने अन्दर घुसने ही नहीं देता। और आप लोगोंका पानी ही आपकी लाशको गला देता है । देखिये, यह खोपड़ी ! इसे ज़मीनके अन्दर बीस और तीन इतने वर्ष हुए । नयन्त--यह किसकी खोपड़ी है ? प० म.--था, एक वेश्यापुत्र; उसीकी है। आप किसकी समझते हैं ? जयन्त-मैं जानता ही नहीं;-समझंगा क्या ? प० म०---नरक में जाय वह पाजी बदमाश ! उसने मेरे सिरपर एक बार शराषका बोतल उड़ेल दिया था । उसीकी यह खोपड़ी है। उसका नाम था घांघा । राजाके यहां वह मसखरेका काम करता था । जयन्त-क्या ? यह उसी घोंघा मसखरेकी खोपड़ी है ! प०म०-जी हां, उसीकी है। अन्दन्त-लाओ, देवू तो सही । ( खोपड़ी हाथमे लेता है।) अभागे बोधा ! ह: ! विशालाक्ष, मैं उसे अच्छी तरह जानता था । वह बड़ा भारी हंसोड़ अर महः ।। भा। मुह क्या बनाता और आँखें माता था ! उसे जो वही हँस पड़ता था । कमसे कम इशार बार मुझे अपनी पाकर वह लौड़ा होगा ! वे सब वाले उस मगर तो बढ़ी अच्छी होती थी, पर अब उनकी मार For Private And Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य १ ] बलभद्रदेशका राजकुमार । १५१: होनेसे तबियत घबराने लगती है और रोलाई आती है । इस जगह उसके होठ थे ! न जाने कितने बार मैंने उन्हें चूमा होगा ! हा ! घोंघा ! तू लोगोंको चिढ़ाता था ! अब क्यों नहीं चिढ़ाता ? तू नाचता था, गाता था ! अब वह तेरा नाचना और गाना कहाँ चला गया ? तेरी हँसोड़पर बातें सुन लोग दांत निपोरते थे, पर अब तूने आपही दांत निपोर दिये हैं । बोल, अब तूने एकदम उदास सूरत क्यों बना ली ? जा; शहर की स्त्रियांस जाकर कह दे कि तुमलोग खूब शृंगार करके सुन्दर बनने की हज़ार कोशिश किया करो पर अन्तमें तुम्हारी यही गति होगी । इसपर वे खिलखिलाकर हँसेंगी । हँसने दो । विशालाक्ष ! एक बात बतलाओगे ? विशा० – कहिये, महाराज, क्या बात है ? जयन्त- क्या सिकन्दरशाह कब्र में गाड़ेजानेपर ऐसा ही दीखता होगा ? विशा० हाँ, और क्या ? ऐसा ही दीखता होगा | जयन्त — और उसे ऐसी ही बदबू आती होगी ? उँ: ! - ( नाकमें कपड़ा लगाकर खोपड़ी नीचे रखता है | ) विशा० -बस, ऐसी ही बदबू आती होगी । जयन्त---विशालाक्ष, देखा, मनुष्यकी क्या क्या दुर्गति होती है ? क्यौंजी, कल्पनाले क्या यह बात सिद्ध नहीं हो सकती कि सिकन्दर ग्राहकी मिट्टी किसी बिलके बन्द करनेमें काम आई होगी ?. ● विशा -हो क्यों नहीं सकती, पर बड़ी तरद्दुद उठानी पड़ेगी । जयन्त-नहीं नहीं, इसमें रत्तीभर भी तरद्दुद न होगी । जरा सूक्ष्म विचार करना चाहिये । देखो, इस तरहः - सिकन्दरवाह. For Private And Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५२ जयन्त [अंक ५ मरा, वह गाड़ा गया, उसकी मिट्टी हुई; मिट्टीकी लेई बनी । अब उसी सिकन्दरशाहकी बनी लेईसे बिल बन्द किये गये होंगे । यह बात नहीं हो सकती ? अच्छा, और भी सुनो-- सीज़र जो शाहंशाह था मिट्टीमें वहभी मिलगया । जिसके असीम प्रतापसे संसार सारा हिलगया । मिट्टीके उस पुतलकी मिट्टी सन रही है गारमें । आश्चर्य है इस बातका. वह पुत रही दीवारमें । पर ठहरो, ठहरो देखो, महाराजकी सवारी इधर ही आर ही है। . ( बाजेके साथ कमलाकी लाश लाई जाती है; साथमें पुरोहित, चन्द्रसेन, और उसके कई रिश्तेदार शोक करते हुए प्रवेश करते हैं । पीछे २ राजा रानी और कुछ सेवक भी प्रवेश करते हैं।) ___यह मुर्दा किसका है ? इसके साथ रानी और दरबारी क्यों ? और इसकी अन्तिम क्रियाकी ऐसी अधूरी तैय्यारी क्यों ? मालूम होता है किसीने आत्महत्या की है और उसीकी यह लाश है ! परन्तु यह तो किसी बड़े आदमीका मुर्दा जान पड़ता है ! अस्तु, जो हो, आओ हमलोग छिपकर ज़रा देखें तो सही क्या होता है । (जयन्त और विशालाक्ष एक ओर खड़े रहते हैं।) चन्द्रसेन-अब कौनसी क्रिया बाकी है ? जयन्त-रें! यह तो चन्द्रसेन है। बहुत ही भला आदमी है । भच्छा, देखें, क्या होता है। चन्द्र०-अब क्या बाकी है ? पुरोहित-शास्त्रकी आशानुसार उसकी सारी क्रिया हो चुकी है । वह कैसे मरी, इसका अभीतक ठीक ठीक पता नहीं लगा। For Private And Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५३ दृश्य १] बलभद्रदेशका राजकुमार । अगर महाराजकी आज्ञा न होती तो इसकी इतनी भी क्रिया न होने पाती--बिना मन्त्र पढ़े ही उसे गड़हमें ढकेल ऊपरसे मिट्टी और ककड़ पत्थर डालकर गड़हेका मुँह बंद कर दिया जाता । परन्तु महाराजकी ही आज्ञा थी, इसलिये अपमृत्युका विचार छोड़ कुमारीके लिये जो कुछ उचित क्रिया शास्त्रमें कही गई है वह सब कर दी गई। चन्द्र०--पर अब तो कोई क्रिया बाकी नहीं रही ? पुरोहित-नहीं, अब कुछ भी बाकी नहीं रहा । और अब इससे अधिक उसकी क्रिया करना मानों उसे जान बूझकर नरकमें ढकेलना है। चन्द्र०-भगवती वसुन्धरे ! ले, इसे अपने गोदमें सुलाले ! इसके सुन्दर और पवित्र शरीरसे सुन्दर और सुगन्धित फूल उत्पन्न हो ! रे दुष्ट पुरोहित ! याद रख, मेरी बहिन देवदूत होकर मोक्ष प्राप्त करेगी और तू पिशाच होकर स्मशानमें भटका करेगा । जयन्त--कौन ? मेरी प्यारी कमला ? रानी-मधुर वस्तुओंका भोग करनेके लिये मधुर प्राणि ही योग्य है । ( लाशपर बहुतसे फूल छींटती है ) हाय ! सुकुमार कुमारी ! मुझे आशा थी कि तुम मेरे जयन्तकी स्त्री बनोगी; इसलिये मैं मन ही मन सोचती थी कि विवाह होनेपर मैं तुम्हारे कमरेको खूब सजा दूँगी, पर यह कैसे हो सकता था, क्योंकि मेरे भाग्यमें तो तुम्हारी कब्रको सजाना बदा था। __चन्द्र०--बहिन, जिस नीचकी नीचतासे तेरी तीव्र बुद्धि नष्ट हो गई उसका सत्यानाश हो ! भाइयो, जरा ठहरो, मुझे और एक बार अपनी प्यारी बहिनको गले लगा लेने दो, अभी मिट्टी न डालो। For Private And Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५४ जयन्त [ अंक ५ (गड़हेमें कूद पड़ता है ) हाँ, अब डालो मिट्टी, मुर्दे और जिन्दे दोनों पर; जबतक कि मिट्टीका एक पहाड़ न खड़ा हो तबतक मिट्टी डालनेमें कसर न करो। जयन्त-(आगे बढ़कर ) तू कौन है जो इतना भयङ्कर दुःख कर रहा है ? तेरे दुःखका भीषण आक्रोश सुन आकाशमार्गसे भ्रमण करने वाले तारे भी आश्चर्य चकित हो एक दम ठहर गये ! देख, यह बलभद्रका राजकुमार जयन्त भी गड़हेमें कूदता है ! (गड़हमें कूद पड़ता है।) चन्द्र०-रे दुष्ट चाण्डाल ! तेरे सात पुश्तको नरकवास हो ! (दोनों झगड़ते हैं) जयन्त-देख, यह तू अच्छा काम नहीं करता। अगर अपना भला चाहे तो मेरा गला छोड़ दे । मुझे एकाएक क्रोध नहीं आता तो भी, यादरख, मैं अपना अपमान कभी न सहूँगा । सीधी राहते भपना हाथ हटाले । रा०-अजी, उन्हें कोई छुड़ाओ । रानी-जयन्त ! जयन्त ! सबलोग-महाशयो !विशा-महाराज ! छोड़ दीजिये, शान्त हो जाइये ! (लोग उन्हें छुड़ाते हैं ; और वे दोनों गड़हेके बाहर निकल माते हैं।) जयन्त-जबतक मेरे दममें दम है तवतक मैं इस बातपर उससे लडूंगा। रानी-बेटा जयन्त ! वह क्या बात है ? जयन्त०-यही कि, मैं कमलाको प्यार करता था । उक्षपर For Private And Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य १] बलभद्रदेशका राजकुमार । १५५. मार इतना प्रेम था कि ऐसे ऐसे दस बीस नहीं - हज़ार भाईयों का प्रमे मिलकर भी उतना नहीं हो सकता । बोल, तू उसके लिये क्या करेगा ? वह पागल है I रा० - चन्द्रसेन जाने दो, रानी - ईश्वर के लिये, उसे क्षमा करो । जयन्त - अरे बोल, तू उसके लिये क्या करेगा ? रोएगा ! छड़ेगा ? खाना पीना छोड़ देगा ? छाती फाड़ डालेगा ? शराब पियेगा ? या घडियाल खायगा ? तू जो कुछ करेगा वह मैं भी करूँगा क्या तू यहां बच्चों की तरह रोने आया है ? या मुझे लज्जित करनेके लिये कब्र में कूदकर उसके विषयमें अपना असाधारण प्रेम दिखाने आया है ? अगर हिम्मत हो तो इस मुर्देके साथ तू भी अपनेको गढ़वाले और मैं भी गढ़वा लेता हूँ | तू कहता है कि मुझपर मिट्टीका पहाड़ खड़ा कर दो ; ठीक है, मैं भी कहता हूँ कि लाखों एकड़ जमीन की मिट्टी खोदकर मुझपर भी हिमालय पर्वत के बराबर ऊँचा मिट्टीका ढेर लगादो। अगर खाली बकबाद ही करना है, तो समझ रक्खो, मैं भी तुमसे कम बकवादी नहीं हूँ रानी—चन्द्रसेन उससे न बोलो, वह पगल हो गया है; और यह पागलपन कुछ देरतक योंही बना रहेगा । पर जब उसे सुत्र आजायगी तब तो वह गौके ऐसा सीधा हो जायगा और अपने किये पर भाष ही पछतायेगा | जयन्त - सुनो जी, मेरे साथ तुमने ऐसा नीच व्यवहार क्यों किया ? मैं तुम्हें भला आदमी समझकर बहुत चाहता था । पर माने बो, इन बातों से कोई लाभ होनेवाला नहीं | हज़ार चेष्टाएं करने पर भी कौआ सफेद नहीं हो सकता और बिल्ली और कुत्तेका स्वभाव कभी For Private And Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त [अंक ५ पलट नहीं सकता। स्वभाव या प्रकृत्तिमें फेर बदल करनेकी चेष्टा करना हो वृथा है। (जाता है) रा-भाई विशालाक्ष ! कृपा करके तुम जाओ और उसपर खूब निगाह रक्खो । (विशालाक्ष जाता है) ( चन्द्रसेनसे ) भूल गये, कल रातको हमारी तुम्हारी क्या बातें हुई थीं ? ज़रा धीरज रखो, थोड़ी देरमें तो सारा काम बन आता है । अच्छा, प्रिये विषये ! अपने बेटेको कुछ देरतक सम्भाली रहो। कमलाका ऐसा स्मारक किया जायगा जिसमें सृष्टिके अन्ततक उसकी याद बनी रहे । अब ये सारी बलाएँ टलकर शान्तता होनेमें थोड़ी ही देर है, परन्तु तबतक हमें बड़े धीरज और सावधानीसे काम करना चाहिये । (जाते हैं) दूसरा दृश्य । स्थान-किलेमें एक बड़ा कमरा । जयन्त और विशालाक्ष प्रवेश करते हैं। जयन्त-इस विषयमें बहुत बातें हो चुकीं; अब उस विषयकी बतें सुनाता हूँ। तुम्हें याद है, उस समय मेरी क्या हालत थी ? "विशा-क्यों नहीं, महाराज ? सब याद है। जयन्त-उस समय मेरे पेटमें इतनी खलबली मची थी और मन इतना बेचैन था कि रातमें मुझे नींद भी न आती थी। मालूम होता था कि मेरी हालत कैदियोंसे भी बदतर हो गई है। पर, उतावलेपनकी भी धन्य है ! विशालाक्ष ! जब मनुष्यकी कोई युक्ति काम नहीं करती तब उतावलापन और अविचारसे ही बहुधा सफलता प्राप्त होती है। इससे For Private And Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य २] बलभद्रदेशका राजकुमार। १५७ हमें यह सीखना चाहिये कि हमारे काम करनको दिशा चाहे कैसी. ही क्यों न हो-चाहे भली हो या बुरी—पर काम करानेवाली एक ईश्वरीय शक्ति होती है और वही हमारे कामको पूरा करती है। विशा०-इसमें क्या सन्देह है ? जयन्त-मैं अपने कमरेसे उठा और बदनमें चोगा लपेट अन्धेरेमें उन्हें ढूंढने लगा । टटोलते २ एकाएक उनके जेबमें रक्ने हुए खरीते पर ही मेरा हाथ जा पड़ा। बस तुरन्त ही वह खरीता ले चुपचाप मैं अपने कमरेमें लौट गया। मैंने उस समय यह विचार ही नहीं किया कि दूसरेके खरीतेको खोलना अच्छा है या बुरा, किन्तु खरीता खोल एकदम पढ़डाला । हाः ! विशालाक्ष ! तुम्हारा गजा कैसा नीच है ! उस खरीतेमें उसकी एक कठोर आज्ञा थी; और साथ ही साथ उसके बड़े २ कारण भी दिखलाये गये थे और लिखा था कि बलभद्र और श्वेतद्वीप दोनोंकी इसमें भलाई है । रे नीच डाकू ! क्या मेरी जानसे तुझे इतना डर है जो तूने यह कठोर आज्ञा दे दी कि खरीता देखते ही बिना विलम्ब किये, नहीं, तलवारको तेज़ करनेमें भी समय न बिताकर, जयन्त का सिर फौरन् काट डालो ? विशा-क्या यह सम्भव है ! जयन्त--लो, यह खरीता लो; और फुर्सतके समय इसे पढ़ डालना । अच्छा, और सुनोगे, फिर मैंने क्या किया ! विशा-हां हां, कहिये । जयन्त-इस तरह मैं उन नीचोंके फंदेमें फंस चुका था । मैं अपनी जान बचाने का उपाय सोच ही रहा था कि एकाएक मुझे एक उपाय सूझा । बस, उसी दस बैठकर मैंने एक मसविदा तैयार किया; For Private And Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५८ जयन्त [ ५ फिर साफ और अच्छे अक्षरों में उसकी नकल कर डाली। किसी समय मेरा अक्षर बहुत सुन्दर था, परन्तु यहांके बड़े आदमी तो अच्छा अक्षर लिखना कम दर्जेके आदमियोंका काम समझते हैं। इसलिये उनकी रेखा देखी मैंने भी अपना अक्षर विगाड़नेकी बहुत चेष्टा की थी । पर, भाई, इस समय तो मेरा पही अच्छा अक्षर काम आया । अच्चा, यह भी बतला हूँ कि उसमें क्या क्या बातें लिखी थीं ? विशा०-~-हा हा, महारान, बतला दीजिये। जयन्त-राजाकी ओरसे श्वतेद्वीपके राजाको लिखा कि इसे बहुत जरूरी पत्र समझना ; और चकि श्वेतद्वीपराज्य बलभद्र के अधीन राज्यों में गिना जाता है, चूंकि दोनों राज्योंका परस्पर-स्नेह सम्बन्ध बढ़ना आवश्वक है, चूंकि दोनों राज्यों में सुख और शान्ति बनाये रखना हम दोनोंका कर्तव्य है, और चूंकि दोनों राज्योंमें एकता बनाये रखना हमारे लिये सुखकर है, इसी तरह और भी कई 'चकि' लिखकर बड़े बड़े महत्वके कारण दिखलाते हुए अन्तमें यह लिखा था कि इस पत्रको पढ़ते ही, इस विषयमें ज़रा भी शंका कुशंका न कर-नहीं, ईश्वरकी अन्तिम प्रार्थना करनेको भी समय न देकर-पत्रवाहकको एक दम मार डालना । विशा०-उसपर मुहर कैसे हुई ? जयन्त-अजी, परमात्माकी इच्छा होती है तो सब कुछ ठीक होता है । मेरे पिताजीकी मुहर मेरे जेबमें ही पड़ी थी । राज्यकी मुहरका और उस मुहरका साँचा एक ही था। बस, फिर पत्रपर नीचे चाचाजीकी दस्तखत करके खरीतेमें उसे बन्दकर ऊपरसे मुहर लगा असली खरीतेकी जगह वह नकली खरीता चुपचाप रख दिया। फिर दूसरे ही दिन हम लोगोंसे और समुन्दरी डाकुओंसे युद्ध हुआ। और For Private And Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २] बलभद्रदेशका राजकुमार । इसके बाद क्या हुआ वह तो तुम्हें मालूम ही है । विशा० -- तो फिर बिचारे नय और विनयके माथे वह बला टल गई ! जयन्त मैं क्या करूँ ? उन्होंने स्वयं ही बड़े शौकसे यह काम उठाया था । मुझे उनकी मृत्युका बिल्कुल दुःख नहीं होता । जो जैसा करेगा वह वैसा ही भरपायेगा । सिंहों के बीच में अगर सियार कूद पड़े तो उसकी क्या दशा होगी ? बस, वही दशा उनकी भी समझ लो । विशा० - छि:, यह कैसा राजा ! १५९ जयन्त- क्या तुम उस कामको मेरा आवश्यक कर्त्तव्य नहीं समझते ? जिसने मेरे पिताको मारडाला, माका सतीत्व भ्रष्ट किया ; बीचही में कूदकर मेरी राज--गद्दीको हड़प लिया और मेरी सारी आशाओंको भङ्ग कर डाला ; इतना ही नहीं, किन्तु जिसने मेरी जान लेने की चेष्टा करने में भी बाकी न छोड़ा; ऐसे नीच हरामखोरके शरीर के इन हाथसे टुकड़े २ होना क्या योग्य नहीं है ? और अगर इस नराधमको संसार में और भी बुराइयाँ करने को जिन्दा छोड़ दूँ तो क्या मैं ईश्वर के यहाँ दण्ड पानसे कभी बच सकता हूँ ? 0 विशा -श्वेतद्वीपसे उस बातकी खबर उन्हें बहुत जल्दी ही मालूम होगी । जयन्त —– हाँ, थोड़े हीं दिनोंमें मालूम होगी । और इसी बीच यह काम हो जाना चाहिये | मनुष्यका जीवन तो एक पलभरका है ! पर, विशालाक्ष ! मुझे बड़ा दुःख है कि मैंने चन्द्रसेनसे बहुत बुरा बर्ताव किया । पिताके खूनपर मुझे क्रोध आवे और उसे न आवे; यह कहाँका न्याय है ? उसे अपने पिताके खूनपर क्रोध आना बहुत ही स्वाभाविक है । मैं उससे माफ़ी मांग लूंगा। पर, विशालाक्ष, सच कहता हूँ, कमलाके } For Private And Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६० जयन्त लिये उसे अत्यन्त दुःख करते देख मुझसे न रहा गया । विशा०-- चुप चुप, कोई आता है । कौन है ? ( हारीत प्रवेश करता है | ) 1 हारीत --- महाराज ! आपके लौट आनेसे सबको आनन्द हुआ है ! जयन्त——- इस खुश खबरीके लिये, मैं आपको धन्यवाद देता हूँ । (विशालाक्ष से ) इस देशी कुत्तेको पहिचानते हो १ [ अंक ५ विशा० - नहीं, महाराज | जयन्त --- तब तो तुम बड़े भाग्यवान् हो; क्योंकि इसे पहिचानना ही बुरा है । इसकी बहुत सी जायदाद है; और अगर किसी पशुके पास भी बहुत सी जायदाद हो तो वह राजाके साथ बैठकर बेखटके खा सकता है— फिर उसे कोई रोक टोक नहीं । यह है महान् मूर्ख, महा बदचलन, पर इसके पास विपुल धन तो है । हारी ० महाराज ! अगर आपको फुर्सत हो तो मैं आपसे महाराजका एक सन्देसा कहूँ । जयन्त—- हाँ, हाँ, कह डालिये, मैं सुननेके लिये तैय्यार हूँ । पर बारा अपना साफ़ा तो ठिकानेसे बाँधिये; वह सिर ढांकनेकी चीज़ है । हारी० - मुझे बहुत गर्मी मालूम होती है, महाराज ! जयन्त - गर्मी नहीं, सर्दी है । उत्तरसे हवा बहती है । हारी० - हाँ, महाराज; कुछ सर्दी है सही । जयन्त - पर, मुझे तो गर्मी मालूम होती है, और मेरे ऐसा जिसका मिजाज होगा उसे भी इस समय गर्मी ही मालूम होगी । 1 हारी० - सचमुच, महाराज, बड़ी गर्मी है । ओफ़ ! कैसी सख्त गर्मी है ! कैसी है सो कहते नहीं बनता। पर, महराज, आपके For Private And Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६१ दृश्य] बलभद्रदेशका राजकुमार । चाचाजीने आपसे कहनेके लिये मुझे कहा है कि उन्होंने आपकी ओरसे एक आदमीसे एक शर्व लगाई । बप, इतनी ही बात है। जयन्त-अच्छा, कृषा करके पहिले साफा जो अच्छी तरह बाँध लीजिये। हारी.-मा कीजिये, महाराज ! मुझे इसी तरह आराम मिलता है । महाराज ! चन्द्रसेन उत्तासे लौट भाया है। वाह ! क्या ही गुणी मनुष्य है ! अच्छे मनुष्यमें जितने गुण आवश्यक हैं वे सब उसमें मौजूद है। नेकचलनी, मिलनसारी, उदारता आदि सारे गुण एक साथ मुझे, तो उसीमें दिखलाई पड़ते हैं। सचमुच, महाराज, अगर उसके गुणों की योग्य प्रशंसा की जाय तो यही कहना पढ़ेगा कि वह संसारके सारे सद्गुणोंका भाण्डार है। क्योंकि आप नो गुण चाहें वही उसमें पा सकते हैं। जयन्त---महाशय ! आपने उसके इतने गुण कह डाले कि, मैं सोचता हूँ, अगर उनका हिसाब लगाने किसी गणितज्ञसे कहा बाय तो उसका भी दिमाग एक बार चक्करमें पड़ जायगा; और इतनपर भी आप उसके गुणोंकी ठीक २ प्रशंसा नहीं कर सके। उसके गुणोंकी अगर योग्य प्रशंसा की जाय तो यही कहना पड़ेगा कि वह बड़ा गुणी मनुष्य है; उसमें बहुतसे सगुण हैं ; ऐसे असाधारण और दुर्लभ गुणोंकी मार्त या तो वही है या आइनेमें वैसी मात हम देख सकते हैं-तीसरी नगह हम नहीं देख सकते । उसकी सायाके सिवा और किसकी सामर्थ्य है जो डूबहू वैसी मूर्ति बना दे। हारीव-महाराजने उसका बहुत ॥ योग्य वर्णन किया । For Private And Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त [अंक जयन्त-आपका उद्देश्य क्या है, महासय १ इस समय उसकी इतनी प्रशंसा करनेका असल कारण तो बतलाइये ! हारी-महाराज ? विशा०-क्या आप सीधे और सरल शब्दोंमें कोई बात नहीं कह सकते ? मुझे विश्वास है कि अगर आप चाहें तो ऐसा कर सकते हैं। बयन्त-उसकी इतनी प्रशंसा करनेमें आपका उद्देश्य क्या है ? हारी-चन्द्रसेनकी ? विशा-महाराज ! मालूम होता है कि इनके कोषका भव देवाला निकल गया; शब्दोंकी पूँजी खतम हो गई । जयन्त-हाँ, उसीकी । हारी०- मैं जानता हूँ , महाराज अनजान नहीं हैं। जयन्त-यह आप जानते होते तो अच्छा होता; पर तब बातोंमें यह रंग न आता । खैर, कहिये, क्या कहते हैं । हारी०--चन्द्रसेनके गुणों के विषयमें आप अनजान नहीं हैं। जयन्त--यह बात तो मैं नहीं कह सकता; क्योंकि किसी दूसरे मनुष्यको ठीक २ जाननेके लिये पहिले अपने आपको पहिचानना पड़ता है। हारी-मैं उसके शस्त्रकौशलकी बात कह रहा हूँ। लोगोंके ख्यालसे इस विषयमें उसकी कोई बराबरी नहीं कर सकता। जयन्त--किस शस्त्रके कौशलकी बात कहते हैं ? हारी०-तलवार और कटार। जयन्त अर्थात् इन्हीं दो शस्त्रों में वह निपुण है । अच्छा, फिर ? हारी०-महाराजने : अरयो घोड़े शर्तमें लगाये हैं; और चन्द्रसेनने अपनी ओरसे छ: उत्ताली तलवारें और कटारें मै कमरबन्द, For Private And Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य२] बलभद्रदेशका राजकुमार । परतले इत्यादि । सचमुच, महाराज, उनमें तीन परतले तो बहुत ही खूबसूरत बने हैं; मूठोंके बिल्कुल जोड़तोड़के हैं। वाह ! वैसा कब्ज़ा और दस्ता तो बहुत कम देखनेमें भाता है। जयन्त-कब्जा क्या चीज़ होती है ? विशाल-मैंने पहिले ही सोचा था कि बिना टीका-टिप्पणीके इनकी भाषा समझमें आना बहुत कठिन है। हारी०--महाराज ! कब्जा वह चीज़ है जिसमें तलवार लटकाई जाती है । जयन्त-अगर किसी किलेपर कब्जा करते तो 'कब्जा' और भी शोभा देता । खैर; क्या कहा ? एक ओरसे छ: अरबी घोड़े और दूसरी ओर से छ: उत्ताली तलवारें मै. सब सामानके और तीन अनमोल और सुन्दर परतले शर्तमें लगे हैं। अर्थात् यह शर्त उत्ताल और बलभद्रके बीच है । पर, यह शर्त है किस लिये ? हारी-महाराज ! आपके चाचाजीने बारह वारोंकी शर्त रक्खी है; वह आपपर तीनसे अधिक वार नहीं कर सकता । अर्थात् अगर वह बारह वार करेगा तो आप कमसे कम नौ तो अवश्य ही करेंगे। और अगर आपको स्वीकार हो तो खेलकी इसी समय तैय्यारी हो सकती है। जयन्त--अगर मैं 'ना' कह दूँ तो ? हारी--मैं यह पूछता हूँ , महाराज, कि आपको उसके साथ खेलना स्वीकार है या नहीं। __ जयन्त-अजी जनाब ! मैं इसी दीवानखानेमें घूमता रहूँगा। अगर महाराजकी इच्छा हो तो यह मेरा फुरसतका समय है, हथियार भेज दें । और अगर चन्द्रसेन राजी हो, और महाराज उचित समझें तो For Private And Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त उनकी बात रखनेकी मैं अपने भस्सक चेष्टा करूँगा ।अमर जीत मया तो.ठीक हो है और अगर हार भी गया तो उसमें कोई बड़ी भारी हानि नहीं है-बहुत हुआ तो थोडासा लक्षित होना पड़ेगा और कुछ चोट आ जायगी। हारी-फिर महाराजसे यही बात जाकर कह हूँ ! जयन्त-हाँ, यही बात कह दीजिये ; पर, बिना बात बनाये भाप थोड़े ही मानेंगे ? हारी०-अच्छा तो मैं आपकी सेवामें तत्पर होता हूँ। जयन्त.मेरी क्यों, आप अपनी ही सेवा कीजिये। (हारीत जाताहै)। (विशालाक्षसे.) ऐसे लोग अगर अपनी प्रशंसा आप न सुनायें तो इनें कौन पूछे ? विशा.--अब यह सीपके कीड़े की तरह चला लपक कर राजा के पास । उनसे जाकर ऐसी बातें सीटेमा कि उनकी तबीयत मान जाय । ___ जयन्त-रूखदेखे व्यापारमें ये लोग बड़े पके होते हैं-माके स्तनसे इन्हें चाफ्ल्सीकी तालीम मिलती है। आजकल इन्हींका बोलबाला है; क्योंकि मौका देखकर इशारेपर नाचना ही इनका काम है। और इनकी पण्डिताईकी यह तारीफ है कि ये लोग बड़े लोगोंसे दो चार बातें सुनकर उन्हीं बातोंको फिर अपने यार दोस्तोंमें इस तरह बनाकर कहते हैं मानों इन्हींके मस्तिष्कसे वे बातें निकली हैं। ऐसे ही लोगोंकी आजकल बनती है। (एक सरदार प्रवेश करता है) सरदार-महाराज ! आपके चाचाजीने हारीतको आपके पास भेजा या; उसने जाकर उनसे यह कहा कि आप उनसे दीवानखाने. For Private And Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य] बलभद्रदेशका राजकुमार। में मिलकर उस विषयमें स्वयं बातचीत कर लेंगे । उन्होंने फिर मुझे भेजकर आपसे यह पुछवाया है कि आप चन्द्रसेनसे पटा खेलमा चाहते हैं या नहीं, या कुछ दिन अभ्यास करके फिर खेलेंगे। ___ जयन्त-मैं अपने विचारोंको सदा आँखों के सामने रखता हूँ। और मेरे विचार राजाकी इच्छापर निर्भर करते हैं। अभी या और कभीअगर मैं ऐसा ही रहा जैसा कि इस समय हूँ तो हर समय मैं खेलनेके लेये तैय्यार है। .. सरदार-महाराज, रानीसाहब और सबलोग इघरी भाग हैं। अयन्त-अच्छी बात है। यह समय भी कुछ बुरा नहीं है। सर-रानीसाहबकी इच्छा है कि खेलनेके पहिले आप चन्द्रसेनसे दो मीठी बातें कर लें। जयन्त-अच्छी बात है। ( सरदार जाता है।) विशा-महाराज ! इस खेलमें आप हार जायेंगे । जयन्त-मैं नहीं समझता कि मैं हार नाऊँगा । जयते वह उत्सालमें गया है तबसे मेरा अभ्यास जारी है। इसलिये मुझे विश्वास है कि मैं जीत जाऊँगा । पर मेरे हृदयकी स्या अवस्था है उसे तुम सोच भी नहीं सकते; पर जाने दो, इन बातोमें क्या रखा है। ... विशा-नहीं, महारान जयन्त-अजी, यह निरी मूर्खता है; इन सब बातोसे चाहे चियाँ र जाय-हम लोग नहीं डरते। विशा.-अगर आपका मन किसी बातसे हिचकता हो तो उसे कभी मत करिये । मैं अभी जाकर उन्हें यहाँ आनेसे रोक देता हूँ, और कह आता हूँ कि आपकी तबियत इस वक्त अच्छी नहीं है। For Private And Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org १६६ जयन्त [ अंक : जयन्त---नहीं नहीं, मैं शकुन और अपशकुनकी बिल्कुल पर्वाह नहीं करता । जो तकदीर में है वह अवश्य ही होगा । जो कुछ होनेवाला है वह अगर अभी हो जाय तो आगेके लिये हम निश्चिन्त बने रहेंगे; अगर आगे न होनेवाला हो तो वह अभी हो जायगा, और अमर अभी न हो तो आज नहीं कल कभी न कभी वह अवश्य ही होगा ; इसलिये हमें हर दम तैय्यार रहना चाहिये । मरनेपर अगर हम सब बातें और सब चीजें यहीं छोड़ जाते हैं तो जीवित रहते हुए उन्हें छोड़ने में दुःख क्यौं ? ( राजा, रानी, चन्द्रसेन, हारीत, सरदार और नौकर हथियार लेकर प्रवेश० ।) रा० -जयन्त ! इधर आओ, और इस हाथसे हाथ मिलाओ । ( राजा चन्द्रसेनका हाथ जयन्तके हाथमें देता है । ) जयन्त-भाई ! मैं तुमसे क्षमा मांगता हूँ । मैंने तुम्हारा अपइसलिये तुम मुझे अवश्य और तुमने भी सुना होगा Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir overgange । मेरी बातों से अगर तुम्हारा राध किया है, पर तुम उदार पुरुष हो, ही क्षमा करोगे । ये सब लोग जानते हैं I कि मेरा दिमाग़ बेतरह बिगड़ गया है अपमान हुआ हो तो उसके लिये मैं दोषी नहीं हूँ- पागलपन दोष है । क्या जयन्तने चन्द्रसेनका अपमान किया ? नहीं, जयन्तने नहीं किया । जयन्त अपने आपमें नहीं, ऐसी अवस्था में अगर वह चन्द्रसेनका अपमान करे तो उसके लिये जयन्त अपराधी नहीं हो सकता और न वह उस अपराधको स्वीकार ही करता है । फिर, वह अपमान किसने किया ? उसके पागलपनने । अगर ऐसी बात है तो जिसका अपमान हुआ उसीके साथ २ जयन्तका भी अपमान हो चुका ; और जयन्तका For Private And Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य २ ] बलभद्रदेशका राजकुमार । १६७ पागलपन जयन्तका शत्रु हुआ । अच्छा, मित्र, ( लोगों की ओर इशारा करके ) आप लोगोंके सामने मैं इस बातको स्वीकार करता हूँ कि मुझसे जो कुछ अपराध हो गया वह अनजान में अपने सगे भाईपर गोली चलाकर उसे घायल करनेके बराबर है —— मैंने जान बूझ कर तुम्हारा अपमान नहीं किया । अब तो मुझे क्षमा करोगे ? ----- चन्द्र० -- तुम्हारी करतूत तो ऐसी थी कि जो तुमसे बदला चुकानेमें मुझे और भी बढ़ावा दे, पर तुम्हारी बातों से मुझे बहुत संतोष हुआ है। पर मैं अपनी मान मर्यादा का विचार नहीं छोड़ सकता । उसमें मैं तुम्हारा मुलाहजा नहीं कर सकता। इसलिये जबतक कुछ वृद्ध और भद्र पुरुष मुझसे न कहेंगे कि ' खून बहाकर अपने नाममें धब्बा न लगाओ–आपसमें मेल करलो ' तबतक मेरे और तुम्हारे बीच मित्रता नहीं हो सकती । परन्तु इस बीच तुम्हारे बातूनी प्रेमको मैं प्रेम ही मानकर तुमसे बर्ताव करूँगा; इसमें फ़रक न होगा । जयन्त – यह बात मुझे सहर्ष स्वीकार है । अच्छा, आओ, हम लोग सगे भाई के समान मनमें बिना छल कपट रक्खे दिल खोलकर पटा खेलें । लाओ, हथियार लाओ, ( चन्द्रसेन से ) चलो, आओ ! चन्द्रसेन -- एक चमचमाती तलवार मुझे भी दो । अयन्त - चन्द्रसेन ! तुम चमचमाती तलवार लेकर क्या करोगे ? जिस तरह अंधेरी रातमें तारे चमकने लगते हैं उसी तरह मेरी मूर्खता - के सामने तुम्हारा कौशल चमकने लगेगा । चन्द्र० -- मेरी दिल्लगी करते हो ? जयन्त—नहीं, इस तलवारकी सौगन्द, मैं दिल्लगी नहीं करता । राजा - अच्छा, हारीत ! उन्हें हथियार दे दो । जयन्त ! तुम जानते हो, शर्त क्या है ? For Private And Personal Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त: अंक.५ जयन्त-खूब अच्छी तरह जानता हूँ, महाराज। आपने कमजोर पक्षपर ही अधिक बोझ रक्खा है। रा०-कोई चिन्ता नहीं; मैं तुम दोनोंका पटा देख चुका हूँ। पर सना है आजकल यह बहुत अच्छा पटा खेलता है; यही आजमाने के लिये मैंने ऐसा किया है। चन्द्र०-ओफ ! यह तो बहुत भारी है, लाओ, दूसरी देखू । जयन्त-मेरे लिये यही ठीक है। क्या सब तलवारोंकी एक है। लम्बाई है ? (खेलनेके लिये दोनों खड़े हो जाते हैं) हारीत--जी हाँ, महाराज । रा०-शर्बतके गिलास इस मेज़पर लगा दो । अगर जयन्तका पहिला या दूसरा वार खाली न गया, या चन्द्रसेनके किये हुए तीसरे वारसे वह बच गया तो फौरन् तोपोंकी आवाज़से उसका विजयघोष किया जाय । जयन्तके जीतनेसे चन्द्रसेनका हम लोगोंसे इतना घना सम्बन्ध हो जायगा जितना पिछले चार पुश्त में किसीसे न हुआ होगा। अच्छा, अब वाद्यों और तोपोंकी आवाज़से आकाश और पृथ्वीको गुँला हालो । अन खेल आरंभ कर दो । और तुम न्यायकांभो ! खूब सावधानीसे देखो। जयन्त---( चन्द्रसेनसे ) अच्छा, आओ। चन्द्रसेन-आइये, महाराज । ( दोनों पटा खेलते हैं) जयन्त–एक । चन्द्र.--नहीं। जयन्त-न्याय । हारीत--हा, एक वार; वाह ! बहुत सफाईका. हाय था। चन्द्र०-अच्छा, फिर। For Private And Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य २] बलभद्रदेशका राजकुमार । रा०—जरा ठहरो; लाओ जी, शर्बत लाओ । जयन्त, को, इसे fior; थकावट दूर हो जायगी । ( पर्देके अन्दर वार्थो और तोपोंकी आवाज सुनाई देती है) वह प्याला उसे दे दो । जयन्त - ज़रा ठहर जाइये, एक हाथ और खेल लेता हूँ। हाँ, आओ ( खेलते हैं ) दूसरा वार; क्यों जी, अब क्या कहते हो ? चन्द्र०—हाँ, छू गया, कबूल करता हूँ । रा०-- जान पड़ता है, हमारा जयन्त बाजी मारलेगा | रानी - उसका दम फूलने लगा । यहाँ आओ, बेटा जयन्त यह रुमाल लेकर पसीना पोछ डालो । ईश्वर चाहेगा तो तुम ही नीतोगे । अच्छा, मैं यह पी लेती हूँ । जयन्त - तुम्हारा आशिर्वाद चाहिये । रा० - प्रिये विषये ! तुम मत पीओ । रानी - पीती हूँ, महाराज ! क्षमा कीजिये । रा०-हाय हाय ! जहरका प्याला ! अब क्या ! मौका निकल गया ! जयन्त--अभी नहीं, मा, मैं थोड़ी देर में पीऊँगा । रानी --आओ, मैं तुम्हारे मायेका पसीना पोंछ दूँ । चन्द्र० --- महाराज ! अबकी मैं मारूँगा । रा०—- मैं नहीं समझता कि तुम मार सकोगे । चन्द्र० - (स्वगत ) इतना होनेपर भी मेरी विवेक बुद्धि इसके अनुकूल नहीं | जयन्त -- चन्द्रसेन, आओ, लो, अब तीसरा वार । क्यों नी, तुम मन लगाकर क्यों नहीं खेलते ? मालूम होता है, तुम मुझे नवसिखुआ समझ कर मेरी दिल्लगी कर रहे हो ! अच्छा, अबकी बार तुममें जो कुछ सामर्थ्य और इल्म हो सब खर्चकर बालो । For Private And Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १७० www. kobatirth.org जयन्त -- Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ अंक ५ चन्द्र०—यह बात ? अच्छा, आओ । ( खेलते हैं ) हारीत - किसी ओरसे कुछ भी नहीं । चन्द्र० - अच्छा, यह लो । (चन्द्रसेन जयन्तो जखम करता है । फिर वे एक दूसरेसे लिपट कर तलवारें बदलते हैं । जयन्त उसको ज़ख़म करता है | ) रा०—उन्हें छुड़ाओ । जयन्त--नहीं, फिर आओ। ( रानी ज़मीनपर गिरपड़ती है ) हारीत -- देखिये, वहाँ रानीसाहबकी क्या हालत है ! विशा०—दोनों खूनसे तर हो गये ! महाराज, खैरियत तो है ? हारीत - चन्द्रसेन, कैसी तबियत है ? चन्द्र०—अब क्या पूछते हो ? मेरी चालाकी मेरे ही गले पड़ी ! हारीत ! मेरी दगाबाजीका फल यह हुआ कि मैं अपनी ही जान खो बैठा ! जयन्त - - रानीकी क्या हालत है ? - रा० – तुम लोगों के शरीरसे खून निकला हुआ देख उसे मूर्छा आ गई है । रानी नहीं नहीं, शर्बत, शर्बत, मेरे प्यारे जयन्त- शर्बत, जहर, मुझे ज़हर पिला दिया । ( मरती है ) जयन्त - रे नीचाधम ! आह ! दरवाज़े में ताला चढ़ा दो । दगा ! दगा ! ! कहाँ है, उसे ढूंढो । चन्द्र० -- यहाँ, यहाँ है । जयन्त ! तुम मरे समान हो; संसारकी कोई औषधि तुम्हें आराम नहीं कर सकती; अब तुम आध घण्टेसे अधिक नहीं जी सकते; तुम्हारे हाथमें जो शस्त्र है वह नकली नहींअसली है, और उसमें ज़हर भी लगा हुआ है । मेरी नीचता मेंर ही 1 For Private And Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य २.] बलभद्रदेशका राजकुमार । १७१ ऊपर उलट पड़ी | देखो, यहाँ मैं भी लेटा -- अब नहीं उठ सकता | तुम्हारी माको जहर पिलाया है । बस, अब मुझसे नहीं बोला जाता । यह सारी राजाकी करतूत ! जयन्त- - क्या इसकी नोक में भी ज़हर लगा है ? अच्छा तो, ज़हर ! इसे भी तू अपना प्रताप दिखा दे। ( राजाके पेटमें तलवार भोक देता है ) सब लोग - दग़ा ! दग़ा ! ! रा०-- आह ! मित्रो ! मुझे बचाओ; अभी मैं जी सकता हूँ 3 जखम हलका है । जयन्त - रे दगाबाज, खूनी, नीच ! ले, तू भी यह शर्बत पी ले। कैसी अच्छी मित्रता हुई ! जा, माके पीछे २ तू भी चल दे । ( राजा मरता है ) चन्द्र० - उचित दण्ड मिला ! ज़हरका प्याला उसीका तय्यार किया था । सच्चे जयन्त ! मेरा और तुम्हारा अपराध एक ही सा है; इसलिये मुझे क्षमा करो । मेरी और मेरे पिताकी मृत्युके लिये तुम अपराधी नहीं हो, और न ही तुम्हारी मृत्युके लिये अपराधी हूँ ( मरता है ) । जयन्त - - परमात्मा तुझे मुक्ति देगा ! मैं भी तेरे पीछे २ आता | विशालाक्ष ! अब मरता हूँ । अभागिनी रानी ! तुझे अन्तिम प्रणाम करता हूँ । श्रोताओ ! यह विचित्र घटना देख चकित होकर आपके चेहरे पीले पड़गये हैं, पर कोई उपाय नहीं--कठोर मृत्युने मुझे जकड़ लिया है— अब इतना समय नहीं, नहीं तो इसका सारा भेद आप लोगों पर प्रकट कर देता । अस्तु, जो हुआ सो हुआ । विशालाक्ष ! मैं. मरता हूँ; पर तुम अभी जी रहे हो, इसलिये जो लोग इस भयानक घटनाका ठीक ठीक कारण न जानकर मुझे दोष देंगे उन्हें इसका कारण साफ़ २ For Private And Personal Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org १७२ [ क विशा० - - महाराज ! क्या अब भी मैं जीवित रहूँगा ! विश्वास रखिये, मैं बदनामीसे मौत अच्छी समझता हूँ। देखिये, अभी, थोड़ासा जहर बचा है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयन्त---. जयन्त - विशालाक्ष ! अगर तुम मर्द हो तो वह प्याला मुझे दे दो। मैं पीऊँगा । मेरे प्यारे मित्र विशालाक्ष ! अगर इस दुर्घटनाका सच्चा कारण लोगोंको न मालूम होगा तो मेरे पीछे मेरा नाम कितना बदनाम होगा ! अगर तुम हृदयसे मुझे अपना मित्र मानते हो तो स्वर्ग सुख पानेके लिये इतने अधीर न बनो; जरा ठहरो, मेरी कथा लोगों को सुनानेके लिये इस दुःखमय संसारमें अपने कष्टमय जीवन के कुछ दिन और बिताओ। ( दूरीपर फ़ौजके चलनेकी और बन्दूकोंकी भावाज सुनाई पड़ती है ) यह लड़ाई जैसा शोरगुल कैसा ? हारी० - महाराज ! पोलोमपर चढ़ाई करके आये हुए युधाजित श्वेतद्वीपके वकीलोंको तोपोंकी सलामी दे रहे हैं जयन्त - विशालाक्ष ! अब मरता हूँ । इस जबरदस्त जहरसे मेरी तबियत बहुत घबरा रही है । श्वेतद्वीपकी खबर सुनने के लिये मैं अब जिन्दा नहीं रह सकता । पर यह भविष्य तुम्हें कह देता हूँ कि लोग युभाजितको यहाँका राजा चुनेंगे; अच्छी बात है, मेरी भी यही राय है । इस दुर्घटना के विषय में सारी बातें उससे कह दो । अच्छा, मेरे अपराधोंकी क्षमा करना, अब बिदा होता हूँ । ( मरता है । ) विशा०- ( आँखों में आँसू लाकर ) आह! गया ! गया ! संखारसे एक उदार पुरुष आज उठ गया ! प्यारे मित्र, मेरे राजकुमार अपने मित्रको छोड़कर तुम अकेले ही चल बसे ! अस्तु, खुशी तुम्हारी; For Private And Personal Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुवा] बलभद्रदेशका राजकुमार। प्रणाम । देव दूतो ! मेरे मित्रको बिना कष्ट दिये स्वर्गमें पहुँचा दो ! ऐं । यहाँ नकारेकी आवाज़ कैसी ? (भीतर सिपाहियोंके चलनेकी आवाज़ सुनाई पड़ती है) युधाजित, श्वेतद्वीपके वकील और कुछ लोग प्रवेश करते हैं। युधाजित-यह कैसा दृश्य है ? विशा०--देखते क्या हैं ? इस विषयकी खोज आप जितनी ही करेंगे उतना ही आपको आश्चर्य और दुःख होगा। .. युधा०-हाय हाय ! कैसा अनर्थ ! री दुष्ट मृत्यु ! तू यह कैसी दावत कर रही है कि एक ही हाथमें राजकुलके इतने मनुष्योंको मार गिराया ? .प. वकील-बड़ा भयङ्कर दृश्य है ! वेतद्वीपसे आनेमें हमें बहुत देर हो गई । राजाशानुसार नय और विनय मार डाले गये ; यह वार्ता निमको सुनाने हम लोग आये थे वे तो मुर्दा होकर पड़े हैं। अब हमारी वार्ता सुनकर हमें कौन धन्यवाद देगा ? विशा.-अगर वे जिन्दा भी होते तो भी उनके मुँहसे आप लोग धन्यवाद न पाते । उन्होंने उनके मारनेकी आशा नहीं दी थी । पर जब इस भयानक अवसरपर आप पोलोमकी लड़ाई से--और आप तद्वीपसे, यहाँ आ पहुँचे हैं तब आप ही आज्ञा दीजिये कि किसी उँचो जगहपर ये लाशें रक्खी जाय, जिसमें सब लोग देख सकें और मैं भी इस विचित्र घटनाका सारा भेद उनके सामने खोल सकूँ । इस तरह आप लोग भी सुन लेंगे कि कैसे कैसे भयङ्कर और अस्वाभाविक काम किये गये, किसका कैसा समझका फेर था, गलतीसे और एकाएक किसने किसका खून किया, किसका खून करने के लिये किसने कैसी २ For Private And Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७४ जयन्त [अंक ५ चालाकियाँ खेली; चालाकियाँ कैसे पकड़ी गई और इसके परिणाम में, जिसकी चालाकी उसीके गळे कैसे पड़ी ! ये सब बातें मैं साफ़ साफ़ कह सकता हूँ। __युधा.---ठोक है, चलिये, ये सब बातें सुन लेनी चाहिये और यहाँके कुछ सजनोंको भी सुनने के लिये बुलालेना चाहिये । मुझे बहुत दुःख है कि ऐसी अवस्थामें मुझपर इस राज्यका शासनमार आ पड़ा; यहाँकी राजगद्दीपर मेरे सिवाय और किसीका अधिकार भी तो नहीं है। विशा--हा, इस विषयमें भी मुझे कुछ कहना होगा । इस विषयमें मेरे मित्रने मुझपर अपनी सम्मति प्रकट की है और मैं समझता हूँ , औरॉकी भी वही सम्मति होगी। पर मैंने जो कुछ कहा है, वह सबसे पहिले हो जाना चाहिये; क्योंकि देर करनेसे कहीं ऐसा न हो कि जिसमें और भी नई खुराफ़ात खड़ी हो जाय। __युधा०-ठीक है ; चार कप्तान मिलकर किसो वीर सैनिककी लाशकी तरह जयन्तकी लाश चौराहेपर ले चलें; क्योंकि अगर वह राजगद्दीपर होता तो अपनेको एक बहुत सुयोग्य राजा कहला लेता । इसलिये युद्ध में काम आये हुए वीरों की तरह इस लाशकी भी बड़ी धूमधामसे बारात निकाली जाय । हाँ, उठाओ यहाँ से ये सब लाशे ; ऐसा दृश्य रणक्षेत्र में ही शोभा देता है-ऐसी जगह वह बहुत ही भद्दा और बुरा मालूम होता है । जाओ, सिपाहियोंसे कहदो कि वे तोपोंकी सलामी दें । ( मुर्देकी बारात निकाली जाती है । लार्योको उठा ले जाते हैं ; और तोपोंकी सलामी होती है)। पाँचवाँ अंक समाप्त । For Private And Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ve For Private And Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Serving Jin Shasan 021198 gyanmandir@kobatirth.org For Private And Personal Use Only