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७८
जयन्त
[ अंक ३
पुरुषकी मीठी मीठी बातें मैंने अपने कानोंसे सुनी थीं उसीको अब इस समय मैं पागल देख रही हूँ । हाय ! बरतनका तला फूट जानेपर जैसे उस बरतनका नाद जाता रहता है वैसे ही पागलपनसे इसकी बुद्धि नष्ट होकर इसका अद्वितीय रूप और तारुण्य भी एकाएक जाता रहा ! आह ! धिक्कार है, मेरे जीवनको ! जिन आखोंसे मैंने इसकी अच्छी दया देखी थी, अब उन्हीं आखोंसे मैं इसकी ऐसी बुरी दशा देख रही हूँ ! धिक्कार है ! धिक्कार है ! !
( राजा और धूर्जटि प्रवेश करते हैं । )
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रा० – प्रेम ? छि:, उसके मनका झुकाव इस ओर बिल्कुल नहीं जान पड़ता । उसकी बोलचाल कुछ विचित्र तो अवश्य है; पर कोई यह नहीं कह सकता कि वह पागलपनकी ही थी । उसके हृदयमें कोई भयानक चोट लगी है; इसीसे वह इतना उदास हो गया है । मुझे इस बातका डर है कि अगर यह बात लोगोंको मालूम हो जाय तो हम लोगोंको अवश्य ही किसी दिन भयानक विपदसे सामना करना पड़ेगा । इस लिये मैंने यह सोचा है कि बरसों से श्वेतद्वीपके तरफ़ जो कर बाकी पड़ा है उसकी वसूली करने को इसे भेज दूं । इससे सम्भव है कि सुमद्रकी शोभा, अन्यान्य देश और वहाँकी चित्र विचित्र वस्तुएँ देखकर उसके हृदयको कुछ शांतता प्राप्त हो जाय, और उसकी बहकी हुई तबियत ठिकाने आ जाय । कहिये, इस विषय में आपकी क्या राय है ?
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धु० – ठीक है; पर मुझे उसके दुःखका मुख्य कारण प्रेम-भंग ही जान पड़ता है । क्यौं कमला ! इसपर तुम्हारी क्या राय है ? तुमसे और उससे जो जो बातें हुईं, उनके कहनेकी कोई जरूरत नहीं --- हम लोग सब सुन चुके हैं। महाराज ! आप जैसा उचित समझें वैसा करें;
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