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जयन्त
[ अंक ४ मैंने कुछ दूत भेज दिये हैं । उसका मनमाना काम करना बड़ा भयङ्कर है ! तिसपर भी हम उसे उचित दण्ड नहीं दे सकते ; क्योंकि मूर्ख लोगोंका उसपर बड़ा प्रेम है जो युक्ति और न्यायको कुछ नहीं सुनते,
आँखों देखी बात मानते हैं । और जहाँ यह बात है वहाँ अपराधीको दिया हुआ दण्ड लोगोंकी आँखोंमें खटकता है-अपराधको कोई नहीं सोचता । ऐसे जनापवादसे बचनेके लिये उसे विदेश भेज देना ही अच्छा है । बस, ठीक है ; 'विषस्य विषमौषधम् ' ।
. (नय प्रवेश करता है।) क्यों ? कुछ पता लगा ? नय-महाराज ! उस लाशका कुछ भी पता नहीं लगता । रा०-अच्छा, जयन्त कहाँ है ? नय-महाराज ! वे बाहर हैं ; मैं आपकी आज्ञा लेने आया हूँ। रा०-ले आओ मेरे सामने । नय-विनय ! महाराजको भीतर ले आओ।
. ( जयन्त और विनय प्रवेश करते हैं ।) रा-जयन्त ! धूर्जटि कहाँ हैं ? जयन्त-भोजनमें मगन हैं । रा०-भोजनमें मगन हैं ? कहाँ ?
जयन्त--ऐसी जगह नहीं जहाँ वे भोजन करते हों किन्तु उस जगह हैं जहाँ वे स्वयं भोजन बन बैठे हैं । सारे बुद्धिमान् और चतुर कोड़ोंने मिलकर बेचारे धूर्जटिको अपनी खुराक बना लिया है । ये कोड़े उच्च पदार्थ खानेमें तो सरनाम हैं । इस विषयमें इनकी बराबरी करने वाला दूसरा कोई भी प्राणी न होगा । हम लोग अपने लिये और
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