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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११८ जयन्त [ अंक ४ मैंने कुछ दूत भेज दिये हैं । उसका मनमाना काम करना बड़ा भयङ्कर है ! तिसपर भी हम उसे उचित दण्ड नहीं दे सकते ; क्योंकि मूर्ख लोगोंका उसपर बड़ा प्रेम है जो युक्ति और न्यायको कुछ नहीं सुनते, आँखों देखी बात मानते हैं । और जहाँ यह बात है वहाँ अपराधीको दिया हुआ दण्ड लोगोंकी आँखोंमें खटकता है-अपराधको कोई नहीं सोचता । ऐसे जनापवादसे बचनेके लिये उसे विदेश भेज देना ही अच्छा है । बस, ठीक है ; 'विषस्य विषमौषधम् ' । . (नय प्रवेश करता है।) क्यों ? कुछ पता लगा ? नय-महाराज ! उस लाशका कुछ भी पता नहीं लगता । रा०-अच्छा, जयन्त कहाँ है ? नय-महाराज ! वे बाहर हैं ; मैं आपकी आज्ञा लेने आया हूँ। रा०-ले आओ मेरे सामने । नय-विनय ! महाराजको भीतर ले आओ। . ( जयन्त और विनय प्रवेश करते हैं ।) रा-जयन्त ! धूर्जटि कहाँ हैं ? जयन्त-भोजनमें मगन हैं । रा०-भोजनमें मगन हैं ? कहाँ ? जयन्त--ऐसी जगह नहीं जहाँ वे भोजन करते हों किन्तु उस जगह हैं जहाँ वे स्वयं भोजन बन बैठे हैं । सारे बुद्धिमान् और चतुर कोड़ोंने मिलकर बेचारे धूर्जटिको अपनी खुराक बना लिया है । ये कोड़े उच्च पदार्थ खानेमें तो सरनाम हैं । इस विषयमें इनकी बराबरी करने वाला दूसरा कोई भी प्राणी न होगा । हम लोग अपने लिये और For Private And Personal Use Only
SR No.020403
Book TitleJayant Balbhadra Desh ka Rajkumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanpati Krushna Gurjar
PublisherGranth Prakashak Samiti
Publication Year1912
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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