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[ अंक ३
( जयन्त और विशालाक्षके सिवा और सब जात हैं । ) जयन्त — क्यों विशालाक्ष ! मिलाओ हाथ ! क्यौं, कैसी तदबीर है ? अब इससे बढ़कर और क्या प्रमाण हो सकता है ? उनसे जाकर कह दो कि आपके जीवनका अन्तिम दिन अब समीप आ ग या ! सुखके दिन बीतकर अब विपद् के दिन आ गए ! कोई हँसता है, कोई रोता है; जो हँसता है वह रोता है, और जो रोता है वह हँसता भी है; इसी तरह यह संसारचक्र सदा घूमा करता है । पर क्यौंजी, विशालाक्ष ! अगर मैं किसी तरह अपना पेट न भर सका तो क्या नाटक में नाचकर किसी नाटककम्पनीका भी हिस्सेदार नहीं हो सकता ?
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जयन्त
विशा० - क्यों नहीं ? महाराज ! आपतो आधे हिस्से के मालिक हो सकते हैं ।
जयन्त—क्यों ? आधा क्यों ? मुझे तो पूरा हिस्सा मिलना चाहिये | क्या तुम नहीं जानते कि उसने मेरे पिताका खून करके यह राज्य हड़प लिया है ? और अब वही हत्यारा कौआ उनकी राजगद्दीपर फुदुक रहा है !
विशा० - - महाराज ! उन्हें कौआ न कहकर अगर गदहा कहा - जाय तो उनकी बुद्धिको बहुत ठीक उपमा मिल जाय ।
जयन्त - प्यारे विशालाक्ष ! अब तो उस भूतके एक एक अक्षर का मूल्य हज़ार २ अशर्फ़ियां हैं ? क्या तुमने सब हाल अच्छी तरह नहीं देखा ?
विशा० - बहुत अच्छी तरह देख लिया, महाराज ! जयन्त -- विषकी बात आते ही कैसा....
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