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१६ जयन्त
[बंक १ गए होते तो बहुत अच्छा होता । मेरे पिताजी पल भरके लिये भी मेरी आँखोंकी ओट नहीं होते।
विशा०—किसकी ओट, महाराज ? जयन्त-अजी, हृदयकी ओट-ज्ञानचक्षूकी ओट ।
विशा. मैंने उन्हें एक बार देखा था। वाह ! कैसे नेक राजा थे।
जयन्त-वे तो लाखों में एक ही थे । अब वैसा राजा होना दुर्लभ है।
विशा०-महाराज, कल रातको मैंने उन्हें देखा था। जयन्त-देखा था ? किसको ? विशा०-महाराज, आपके पिताजीको । जयन्त-मेरे पिताको ?
विशा.-महाराज, हमलोगोंने जो चमत्कार देखा है, वह मैं आपसे निवेदन करता हूं । थोड़ी देरके लिये आश्चर्य करना छोड़ ज़रा ध्यानसे सुनिये । ___ जयन्त-कहो कहो, शीघ्र कह डालो । ... विशा०-परसों और नरसों आधीरातके समय, जब वीरसेन
और भीमसेन पहरा दे रहे थे उस समय यह घटना हुई कि आपके पिता जैसी एक सूरत सिरसे पैरतक सिपाहियाना पोशाक पहिनी हुई इनके बिलकुल पाससे धीरे धीरे निकल गई । उसे देखते ही मारे डर
और अचम्भेके इनके होश उड़ गये; पैर लटपटाने लगे; शरीर पसीनेसे बिलकुल तर हो गया और मुंहसे एक शब्द भी न निकाल. सके । तीसरे दिन अर्थात् कल रातको इन्होंने एकान्तमें मुझसे यह बात
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