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प्रकाशकका निवेदन। ग्रन्थ-प्रकाशक समितिकी यह दूसरी पुस्तक है । पहिली पुस्तक • सरल गीता' और दूसरी यह । तीसरी तथा चौथी पुस्तकें भी छप चुकी हैं । उनमेंसे एकका नाम है ' महाराष्ट्र रहस्य ' और दूसरीका नाम ' महात्मा टालस्टायके तीन लेख '1' जयन्त ' तो पाठकोंके सामने ही है। वे स्वयं इस बातका निर्णय कर सकते हैं कि यह पुस्तक वास्तवमें उपयोगी है वा नहीं । हम नहीं चाहते कि इस पुस्तकके विषयमें यहाँ कुछ लिखकर अपने पाठकोंका समय नष्ट करें । रही बात दूसरी तीन पुस्तकोंकी; उनके विषय में संक्षिप्त, पर स्पष्ट सूचना हम नीचे दिये देते हैं। ___ हमें यह देख बड़ा आनन्द होता है-और साथ २ उत्साह भी बढ़ता है-कि हमारी समितिकी पुस्तकें प्रकाशित होनेसे पहिले ही उनके बहुतसे ग्राहक हो चुके हैं । पर खेदके साथ कहना पड़ता है कि हज़ार कोशिश करनेपर भी हम अपने ग्राहकों की सेवामें नियत समयपर पुस्तके न पहुंचा सके । इसका कारण 'पराधीनता' । समितिका कोई निजका प्रेस न रहनेसे हमें दूसरोंके प्रेसोंकी शरण लेनी पड़ी । पराधीनतामें अपना इच्छित कार्य साधन कर लेना कब सम्भव है ? अस्तु, अब हमने यह प्रण कर लिया है कि जबतक समितिके पास निजका प्रेस न होले तबतक हम ऐसी प्रतिज्ञा ही न करेंगे । ___इस नाटकमें कहीं कहीं छापेकी बड़ी भद्दी २ अशुद्धियाँ रह गई हैं । उदाहरणार्थ:--' मेरा ' की जगह ' मार ' छप गया है; हँसोड़पन की बातें' की जगह ' हँसोड़पर बातें'; 'चुभ ' और ' चन्द्रसेन ' की जगह 'चम' और 'चन्द्रसने' इत्यादि । एक दो अशुद्धियाँ ऐसी हैं जो
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