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जयन्त
लिये उसे अत्यन्त दुःख करते देख मुझसे न रहा गया । विशा०-- चुप चुप, कोई आता है । कौन है ? ( हारीत प्रवेश करता है | )
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हारीत --- महाराज ! आपके लौट आनेसे सबको आनन्द हुआ है ! जयन्त——- इस खुश खबरीके लिये, मैं आपको धन्यवाद देता हूँ । (विशालाक्ष से ) इस देशी कुत्तेको पहिचानते हो १
[ अंक ५
विशा० - नहीं, महाराज |
जयन्त --- तब तो तुम बड़े भाग्यवान् हो; क्योंकि इसे पहिचानना ही बुरा है । इसकी बहुत सी जायदाद है; और अगर किसी पशुके पास भी बहुत सी जायदाद हो तो वह राजाके साथ बैठकर बेखटके खा सकता है— फिर उसे कोई रोक टोक नहीं । यह है महान् मूर्ख, महा बदचलन, पर इसके पास विपुल धन तो है ।
हारी ० महाराज ! अगर आपको फुर्सत हो तो मैं आपसे महाराजका एक सन्देसा कहूँ ।
जयन्त—- हाँ, हाँ, कह डालिये, मैं सुननेके लिये तैय्यार हूँ । पर बारा अपना साफ़ा तो ठिकानेसे बाँधिये; वह सिर ढांकनेकी चीज़ है । हारी० - मुझे बहुत गर्मी मालूम होती है, महाराज ! जयन्त - गर्मी नहीं, सर्दी है । उत्तरसे हवा बहती है ।
हारी० - हाँ, महाराज; कुछ सर्दी है सही ।
जयन्त - पर, मुझे तो गर्मी मालूम होती है, और मेरे ऐसा जिसका मिजाज होगा उसे भी इस समय गर्मी ही मालूम होगी ।
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हारी० - सचमुच, महाराज, बड़ी गर्मी है । ओफ़ ! कैसी सख्त गर्मी है ! कैसी है सो कहते नहीं बनता। पर, महराज, आपके
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