________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૧૦૮
जयन्त-.
[ अंक ३ सोलहों कलाओंसे चमकता हुआ यह चंद्रमा ही है ! विधाताने मानों अपमा घटनाचातुर्य दिखानेके लिये यह सौंदर्थमय मानवमूर्ति निर्मित की है ; तेरे सौभाग्यसे तुझे यह वर मिला । अब यह चित्र देख; यह तेरा अब पति है ; जैसे अनाज का सड़ा हुआ बाल पासके और अच्छे बालोंको बरबाद कर देता है ; इस पापीने वैसे ही अपने बड़े
और निरोगी भाईको मरवा डाला । क्या तुझे आँखें नहीं हैं ? उस मदनको छोड़ कर इस कालकूटको कैसे गले लगाया ? प्रबल कामका वेग इसका कारण कहूं तो यह भी नहीं हो सकता; क्योंकि अब तेरी वह वयस् नहीं है । इस क्यस्में कामपर विचारका स्वामित्व रहता है । अकल, हां तुझमें अकल भी है; नहीं तो तेरा एक काम भी न बनता । क्या तू पागल हो गयी है ? पर पागल भी तो ऐसी भूल नहीं करते ; और फिर उसकी बुद्धिमें कितना ही भ्रम क्यों न हो जाय, भला बुरा समझनेकी कुछ शाक्त अवश्य होती है । तो ऐसी कुवासना कहांसे उत्पन्न हुई ? वह कौन चुडैल या डाइन है जिसके वशमें आकर तूने घोर पाप कर डाला । तेरी आंखें, कान नाक, मुंह हाथ क्या शरीरकी सारी इंद्रियां नष्ट हो गयीं ? एक ही इंद्रियमें फर्क पड़ता तो ऐसी भूल न होती। धिक् ! अब भी शरम नहीं आती ! अरी कामवासना ! इस ढलती उम्र में जब इसके शरीरमें तेरी इतनी धधक है तो फिर जिनका शरीर यौवनसे पूर्ण है उनमें तेरी भस्मकर प्रवृत्ति एक भी सद्गुण स्वाहा होनेसे न बचने देती होगी ! और फिर युवा उसके लिये क्यों दोषी हों : जब मरघटकी राह चलनेवालोंका यह हाल है तो अबसे व्यभिचार करनेवाले युवाओंको दोष देना अनुचित है।
रानी- जयन्त, अब बस करो । तेरे इस भाषणसे मेरी आँखें
For Private And Personal Use Only