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जयन्त
[ अंक २
इस नीचको अभ्रम कहकर क्यों नहीं पुकारता ? कोई इसके दोनों कान ऐंठकर इसे इसके पिताकी हत्याका स्मरण क्यों नहीं कराता ? "कोई इसके मुंह में दो तमाचे मारकर इसके चचाकी नीचताका हाल इसे क्यों नहीं सुनाता ? कोई इसकी नाक पकड़कर इसे उसका बदला चुकानेके लिये क्यों नहीं उभारता ? कोई इसके मुंहमें थूककर इसे इसके अपमान और कृतघ्नताको याद क्यों नहीं दिलाता ? क्या ? इस संसार में ऐसा कोई सज्जन पुरुष नहीं है जो इस नीचको दण्ड देकर इसे इसके कतर्व्यकी राह दिखला दे ? हा ! मैं उस दण्डको बड़े सुखसे सह लूंगा । रे नराधम ! क्या बकरेके कलेजेसे भी तेरा कलेजा डरपोक है ? रे डरपोक ! हाय हाय ! इतने पर भी तुझे क्रोध नहीं आता ? ठीक है । तेरे बदनकी खाल खींचे बिना तुझे उसका बदला लेनेका स्मरण न होगा । यदि तेरी जगह और कोई होता तो अबतक उस जाराधम नरपशुकी बोटी बोटी काटकर उन्हें गीदड़ोंसे नोचवा डालता । हां... ; मेरी मासे - अपनी सगी भौजाईसे जारकर्म करने वाले नीचाधम, नरपिशाच, भ्रातृघातक नरपशु, चाण्डाल, नमकहराम ! क्या मैं तुझे बिना उचित दण्ड दिये ही छोड़ दूंगा ? वाहरे गदहे ! वाह ! वाहरे तेरा ज्ञान ! और वाहरे तेरी वीरता ! तेरे शत्रुने प्रत्यक्ष तेरे पिताका खून किया; और उसका बदला लेने के लिये आकाश और पाताल दोनों अनुमोदन भी दे रहे हैं; तिसपर भी तू छिनाल और के समान - - खानगी वेश्याके समान केवल गालियाँ बकता हुआ यहां खड़ा है ! वाहरे मूढ़ ! बलिहारी है !
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हं हं हं—छि:, इन बातोंमें क्या रक्खा है ? ( सिरपर हाथ रखकर ) क्या इसमेंसे कोई तदबीर निकलेगी ? ( सोचकर ) हां ठीक
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