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दृश्य २] बलमद्रदेशका राजकुमार ।
६७ . अब मैं अकेला हूँ। हाय ! मेरी दशा कैसी भयङ्कर हो रही है ! ओफ़ ! मैं कैसा दुष्ट हूँ ! कैसा नीच हूँ !! और कैसा अभागा हूँ !!! कुत्ते और मुझमें भेद ही क्या है ? क्या यह राक्षसी काम नहीं है कि, इस नटने कल्पित नाटकका भाषण आरम्भ करते ही अपनी मनोवृत्तियोंको एक दम पलट दिया; पहिले अपने चेहरेको उदास बना लिया; फिर आंखोंसे आँसू बहाने लगा, इसके बाद एकाएक उन्मत्तसा हो गया और फिर थोड़ी ही देरमें सिसकने भी लगा; तात्पर्य-जहाँ जैसा भाव था वहाँ वैसा ही भाव उसने पैरोंसे, हाथोंसे, आँखोंसे, भौसे, मुँहसे और आवाज़से हूबहू दिखला दिया। और यह सब किस लिये किया ? किसी लिये नहीं ; केवल उस कृपीके लिये । भला उस कृपीसे इसका क्या सरोकार ? इससे उसका रिश्ता ही क्या था, जो उसके लिये इसने इतने आँसू बहा डाले । सचमुच, अगर मेरे समान इसके क्रोधका कोई यथार्थ करण होता तो न जाने इसने कैसा कहर मचा दिया होता; रो रो कर अपने आँसुओंसे सारी रंगभूमिको तर कर दिया होता ! उसकी भयङ्कर गर्जना सुनकर श्रोताओं के कान फट जाते ! और कई लोगोंके अन्तःकरण विदीर्ण हो जाते ! अपराधी तो पागल ही हो जाते, किन्तु निरपराधी भी एक बार दहल जाते ! और अज्ञानी लोग घबरा जाते ! तात्पर्य प्रत्येक श्रोताके कानोंकी तथा आँखोंकी विचित्र दशा होती। पर मैं कैसा मूढ़, बोदा, नीच, और सुस्त हूँ जो अपना कर्तव्य करना छोड़ योंही इधर उधर पागलके समान भटक रहा हूं । साक्षात् मेरे पिताकी सारी सम्पत्ति और उनके प्यारे प्राणोंका बुरी तरहसे नाश होनेपर भी मैं धुम्मी साधकर डरपोकके समान बैठा बैठा समय बिता रहा हूँ। रे नीच डरपोक ! धिक्कार है ! धिक्कार है, तेरे जीवनको !! कोई
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