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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२ जयन्त [ अंक १ सतीधर्मको भंग करने यदि साक्षात् इन्द्रदेवभो स्वर्गसे नीचे उतरें तो भी उस स्त्रीका मन अपने पतिचरणोंसे जरा भी नहीं डिगता । और व्यभिचारिणी स्त्रीका विवाह स्वर्गमें साक्षात् कामदेवसे भी क्यों न हुआ हो, परन्तु उसका मन वहाँ भी बिना व्यभिचार किये नहीं मानता । पर ठहरो, ठहरो, देखो, प्रातःकालकी वायु महकने लगी । अब सारी बात मैं संक्षपसे कह देता हूँ । नित्यके अनुसार तीसरे पहर जब मैं अपने बागमें सोया था तब तेरा चाचा एक शीशीमें कुछ विषैली पत्तियोंका रस लेकर वहाँ आया और मुझे गहरी नींद में सोया देख उसने वह कालकूट रस मेरे कानोंमें टपका दिया । फिर क्या था ! थोड़ी ही देरमें वह मेरे शरीर में भिन गया । और जिस तरह दूधमें खटाई छोड़ते ही दूध फट जाता है उसी तरह मेरे शरीरमें उस विषैले रसके जातेही मेरा सारा खून फट गया; और मेरा कोमल चिकना शरीर चिड़चिड़ी लकड़ीके समान हो गया । इस तरह नींदमें रहते, अपने सगे भाईकी नीचता के कारण मुझे अपने जीवनसे, मुकुटसे और रानीसे हाथ धोना पड़ा । मरते समय पापक्षालनार्थ तीर्थोदकप्राशन करनेका भी उसने मुझे अवसर नहीं दिया । यहाँ अपनी सारी वस्तुओंको छोड़ वहां परमेश्वरके सामने अपने पापका उत्तर देनेके लिये मुझे यहांसे लौट जाना पड़ा । हाय ! हाय ! कैसी भयानक कठोरता ! कैसी घृणित इच्छा ! और कैसी भयङ्कर कामवासना ! बास्तवमें यदि तू मेरे ही बीजका होगा तो तुझसे यह कभी नहीं सहा जायगा; और बलभद्रकी राजशय्याको इन गोत्रगामियोंके घोर व्यभिचारसे तू कभी अपवित्र न होने देगा । मेरे प्यारे पुत्र ! इस घोर कर्मका तेरा जी चाहे वैसा बदला ले, mpet For Private And Personal Use Only
SR No.020403
Book TitleJayant Balbhadra Desh ka Rajkumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanpati Krushna Gurjar
PublisherGranth Prakashak Samiti
Publication Year1912
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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